कांग्रेस का भविष्य पर दांव मगर जमीन पर मनमुटाव | |
अर्चिस मोहन / 02 27, 2017 | | | | |
समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन का इस्तेमाल कर कांग्रेस देश के सबसे अहम सियासी राज्य में अपनी स्थिति मजबूत करने के मिशन में जुटी
महाराष्ट्र के निकाय चुनावों में कांग्रेस की करारी हार के बाद एक बार फिर पार्टी की कमियों का विश्लेषण शुरू हो गया है। लेकिन उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ऐसी रणनीति अपना रही है जिससे आने वाले वर्षों में वह देश के इस सबसे बड़े राज्य में फिर से खड़ी हो सकती है। समाजवादी पार्टी (सपा) के पुराने नेता कांग्रेस की इस रणनीति से परेशान हैं। उत्तर प्रदेश में विधानसभा की 403 सीटें हैं और सपा के साथ गठबंधन के मुताबिक कांग्रेस 105 यानी 26 फीसदी सीटों पर चुनाव लड़ रही है। लेकिन अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित 85 सीटों पर कांग्रेस आनुपतिक रूप से ज्यादा सीटों पर लड़ रही है।
कांग्रेस ने ऐसी 31 यानी करीब 35 फीसदी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे हैं। साथ ही सपा के साथ गठबंधन के तहत उसे कई ऐसे सीटें मिली हैं जहां 20 फीसदी से अधिक मुस्लिम जनसंख्या है। इनमें सहारनपुर और वाराणसी जिले भी शामिल है। उत्तर प्रदेश में 20 फीसदी दलित और 19 फीसदी मुस्लिम मतदाता हैं। ये कभी कांग्रेस के वोट बैंक की रीढ़ हुआ करते थे लेकिन मंडल और राम मंदिर आंदोलन के बाद 1990 के दशक की शुरुआत में यह वोट बैंक कांग्रेस के हाथ से निकल गया। यही वजह है कि कांग्रेस की नजर आने वाले वर्षों में इस वोट बैंक को दोबारा हासिल करने पर है। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता उत्तर प्रदेश चुनावों में लगे हैं और उसके रणनीतिकारों को उम्मीद है कि पार्टी कम से कम 40-50 सीटें जीतेगी।
कांग्रेस ने वर्ष 2002 और वर्ष 2007 में राज्य की सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ा था जबकि 2012 में 355 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे। पिछले 15 साल में पार्टी 30 से अधिक सीटें नहीं जीत पाई है और उसका वोट शेयर भी 9-10 फीसदी के आसपास रहा है। सपा और कांग्रेस के बीच गठबंधन जनवरी के अंत में हुआ था। कांग्रेस के नेताओं का मानना है कि अगर यह गठबंधन पहले हुआ होता तो इससे कांग्रेस को ज्यादा लाभ होता।
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक गहलोत ने बिज़नेस स्टैंडर्ड से कहा, 'मैं यह नहीं कहूंगा कि यह गठबंधन जल्दबाजी में हुआ। लेकिन यह सही है कि इसमें समय लग गया। अगर यह पहले हुआ होता तो बेहतर होता।' गहलोत ने फिलहाल लखनऊ में डेरा डाल रखा है और वह गठबंधन की मुश्किलों को सुलझाने के लिए सपा के साथ समन्वय कर रहे हैं। हाल में कांग्रेस सपा को वाराणसी कैंट से अपने उम्मीदवार का नाम वापस लेने के लिए मनाने में कामयाब रही। गहलोत इस बात से सहमत नहीं है कि सपा-कांग्रेस गठबंधन में कोई मतभेद नहीं है लेकिन कई स्थानों पर कांग्रेस के जिला स्तर के कार्यकर्ता सपा उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं।
गठबंधन में वहां ज्यादा समन्वय दिख रहा है जहां अधिकांश कांग्रेस कार्यकर्ता मुस्लिम हैं, खासकर कानपुर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शहरी इलाकों में। कानपुर में कांग्रेस के एक कार्यकर्ता ने कहा कि सपा का कांग्रेस विरोध का लंबा इतिहास रहा है। उन्होंने कहा, 'हमारे लिए सपा के दफ्तरों में बैठना मुश्किल है। हम सपा के कार्यकर्ताओं के साथ नहीं जाते हैं।' दोनों दलों के बीच जाति भी एक बड़ी समस्या है। कांग्रेस के ब्राह्मण मतदाता और कार्यकर्ता सपा उम्मीदवारों के साथ मिलकर काम करने को तैयार नहीं हैं।
सपा के कार्यकर्ताओं की भी इस गठबंधन से कई शिकायतें हैं। मुलायम सिंह यादव और उनके भाई शिवपाल यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन का विरोध किया था। पिछले दो दशक से अधिक समय से सपा को कवर कर रहे लखनऊ के पत्रकार रामेश्वर पांडे ने कहा, 'उन्हें लगता है कि अखिलेश परिवार की चांदी बेच रहे हैं जिसमें सपा को नुकसान ज्यादा हुआ है और फायदा कम।' राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अखिलेश यादव और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने राष्ट्रीय लोक दल और उसके युवा नेता जयंत चौधरी को गठबंधन से बाहर रखकर एक मौका गंवा दिया।
पांडे ने कहा, 'अगर ऐसा हुआ होता तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गठबंधन की भारी जीत होती।' कांग्रेस के नेता भी इस राय से सहमत हैं। कांग्रेस ने वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में अजित सिंह की पार्टी के साथ गठबंधन बनाया था और इस बार उसे भाजपा के खिलाफ जाटों की नाराजगी का फायदा मिल सकता था। सपा नेतृत्व इस बात से भी खफा है कि प्रियंका गांधी वाड्रा ने अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव के साथ प्रचार पर सहमति नहीं जताई। पार्टी के अंदर यह भावना है कि गांधी-नेहरू परिवार अपने वादे से मुकर गया। इसमें पार्टी के लिए अच्छी बात यह रही है कि डिंपल यादव एक अच्छी वक्ता बनकर उभरी हैं और जिस तरह वह लोगों से जुड़ी हैं उससे कई लोगों को आश्चर्य हुआ है।
सपा नेतृत्व का कहना है कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में वोट नहीं जुटा पा रहे हैं और वह खासकर युवाओं में अखिलेश की लोकप्रियता के रथ पर सवार हैं। सपा के एक नेता ने कहा, 'उत्तर प्रदेश में घूमिए और आपको पता चल जाएगा कि कोई भी राहुल गांधी के बारे में बात नहीं कर रहा है। कांग्रेस से इस गठबंधन को कोई फायदा नहीं हुआ है।' हालांकि सपा में सभी इस बात से सहमत नहीं हैं। पार्टी के एक अन्य नेता ने कहा कि कांग्रेस के साथ आने से सपा अल्पसंख्यकों को गठबंधन में बने रहने के लिए मनाने में कामयाब रही है, अन्यथा वे बहुजन समाज पार्टी के पाले में जा सकते थे।
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