अगर सरकार किसी व्यक्ति की जमीन का अनिवार्य अधिग्रहण करती है तो फिर उसे सरकार से मिले मुआवजे की रकम पर पूंजीगत लाभ कर नहीं देना होगा। उच्चतम न्यायालय ने बालकृष्णन बनाम भारत संघ मामले का निपटारा करते हुए यह व्यवस्था दी है। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने केरल उच्च न्यायालय के फैसले को भी पलट दिया है। सरकार ने वर्ष 2006 में टेक्नो पार्क बनाने के लिए बालकृष्णन की 27 एकड़ जमीन का अनिवार्य अधिग्रहण किया था। शुरू में तो बालकृष्णन ने सरकार की तरफ से दी जा रही मुआवजा राशि को अपर्याप्त बताते हुए जमीन देने से मना कर दिया लेकिन लंबी कानूनी प्रक्रिया से बचने के लिए बाद में जमीन देने के लिए तैयार हो गए। लेकिन राजस्व विभाग ने उनसे जमीन के एवज में मिली रकम पर पूंजीगत लाभ कर देने की मांग कर दी। विभाग का कहना था कि यह लेनदेन असल में जमीन की बिक्री थी, न कि अनिवार्य अधिग्रहण। ऐसी स्थिति में पूंजीगत लाभ पर कर की देनदारी बनती है। केरल उच्च न्यायालय ने भी राजस्व विभाग की दलील पर सहमति जताई जिसे बालकृष्णन ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि जमीन का मालिक शुरू में तो अपनी जमीन देने के लिए तैयार ही नहीं था लेकिन बाद में कानूनी प्रक्रिया से बचने के लिए सरकार के आगे झुक गया। उसकी जमीन के अधिग्रहण की सारी प्रक्रिया भूमि अधिग्रहण कानून के तहत हुई थी लिहाजा उसे जमीन की बिक्री नहीं माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में मुआवजे की रकम पर पूंजीगत लाभ कर भी नहीं वसूला जा सकता है।
मध्यस्थता का फैसला लागू होने तक अंतरिम आदेश रहेगा प्रभावी
उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा है कि अगर मध्यस्थता अधिकरण में भेजे गए किसी मामले पर कोई अंतरिम आदेश आता है तो वह अधिकरण का फैसला लागू होने तक प्रभावी माना जाएगा। न्यायालय ने मध्यस्थता एवं मेलमिलाप अधिनियम की धारा 9 की व्याख्या करते हुए कहा है कि मध्यस्थता प्रक्रिया जारी रहने और उसका फैसला आने के बाद भी अंतरिम आदेश तब तक प्रभावी रहेगा जब तक कि फैसला लागू नहीं हो जाता है। राजस्थान उच्च न्यायालय के फैसले से नाखुश अल्ट्राटेक सीमेंट की अपील पर सुनवाई के बाद अपना फैसला सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है। अल्ट्राटेक का राजस्थान विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड के साथ समझौता हुआ था जिसमें उसे पांच वर्षों तक मुफ्त फ्लाई ऐश देने और उसके बाद निगम की तरफ से तय दर पर देने का प्रावधान था। लेकिन कुछ वर्षों बाद निगम ने फ्लाई ऐश की बिक्री के लिए निविदा जारी कर दी जिसे सीमेंट कंपनी ने अदालत में चुनौती दे दी। स्थानीय अदालत ने निविदा पर रोक लगा दी लेकिन राजस्थान उच्च न्यायालय ने उसे पलट दिया था। फिर अल्ट्राटेक ने उच्चतम न्यायालय में अर्जी लगाते हुए कहा कि मध्यस्थता प्रक्रिया विचाराधीन होने से निगम बिक्री की दरों में बदलाव नहीं कर सकता है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने अंतरिम आदेश जारी करते हुए फ्लाई ऐश की बिक्री पर रोक लगा दी। मध्यस्थता अधिकरण का फैसला आने के बाद अंतरिम आदेश की स्थिति पर सवाल उठा। उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि कानून के मुताबिक मध्यस्थता अधिकरण का फैसला अमल में आने तक अंतरिम आदेश ही प्रभावी रहेगा।
मरम्मत वाले विदेशी जहाज सीमा शुल्क
से मुक्त
उच्चतम न्यायालय के मुताबिक केवल मरम्मत के लिए भारतीय बंदरगाह पर आने वाले विदेशी जहाजों पर सीमा-शुल्क नहीं लगाया जा सकता है। न्यायालय ने सीमा शुल्क आयुक्त बनाम अबान लॉयड चाइल्स ऑफशोर लिमिटेड मामले में फैसला सुनाते हुए कहा है कि केवल मरम्मत के इरादे से भारतीय बंदरगाह पर आने वाले विदेशी जहाज पर सीमा शुल्क नहीं लग सकता क्योंकि वह जहाज भारतीय समुद्री क्षेत्र में कोई कारोबारी गतिविधि नहीं कर रहा है। न्यायालय के मुताबिक जहाज की केवल मरम्मत की गई थी और बाकी उसका कोई इस्तेमाल नहीं हुआ था। किसी कारोबारी गतिविधि में शामिल नहीं होने पर यह नहीं कहा जा सकता है कि वह जहाज आयात कार्य में लिप्त था। ऐसी स्थिति में विदेशी जहाज पर सीमा शुल्क की देनदारी नहीं बनती है। यह मामला एक विदेशी जहाज के मरम्मत के लिए मुंबई बंदरगाह पर आने से जुड़ा हुआ है। सीमा शुल्क अधिकारियों ने जहाज मालिक से 28 करोड़ रुपये की मांग करने के साथ ही जुर्माने और जब्ती की धमकी भी दी। न्यायाधिकरण ने इसे गलत ठहराया था और अब उच्चतम न्यायालय ने भी उस पर मुहर लगा दी है।
माफिया को दी गई
फिरौती भी डेवलपर
खर्च में शामिल
बम्बई उच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अगर कोई प्रॉपर्टी डेवलपर बेवजह दखलंदाजी रोकने और अपने कर्मचारियों की सुरक्षा के नाम पर स्थानीय अपराधी गिरोहों को भुगतान के लिए मजबूर होता है तो वह उस रकम को भी अपने खर्च के ब्योरे में दिखा सकता है। न्यायालय ने कहा है कि वैध उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया कोई भी भुगतान गैर-कानूनी नहीं हो सकता है और इस मामले में इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह भुगतान किसको किया गया? यह मामला डेवलपर के दावों की पड़ताल के लिए नियुक्त चकबंदी आयुक्त के आकलन को आयकर आयुक्त की तरफ से दी गई चुनौती से जुड़ा था। आयकर आयुक्त ने कहा था कि चकबंदी आयुक्त ने अपने आकलन में माफिया को किए गए भुगतान को भी डेवलपर के खर्च में शामिल कर दिया है जो गलत है। इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई जिसने आयकर विभाग की आपत्तियों को दरकिनार कर दिया। न्यायालय ने कहा है, 'हमें यह देखना होगा कि भुगतान किस मकसद से किया गया, न कि भुगतान किसको किया गया? अगर कोई भुगतान गैर-कानूनी मकसद से किया गया है तो उसे अवैध माना जाएगा लेकिन किसी अपराधी को भी वैध काम करने के लिए भुगतान किया जाता है तो उसकी अनुमति दी जा सकती है। यहां ध्यान रखना होगा कि खर्च का मद कानूनी दायरे में होना चाहिए।' न्यायालय ने यह भी कहा है कि किसी माफिया को किया गया भुगतान किसी भी कानून के तहत अपने आप में अपराध नहीं ठहराया गया है।
सूचना अधिकार कानून के दायरे में सहकारी बैंक
बम्बई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र में सक्रिय सहकारी बैंकों को सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में शामिल बताते हुए कहा है कि वे भी जानकारी देने के लिए बाध्य हैं। जलगांव जिला शहरी सहकारी बैंक संघ की आपत्तियों को नकारते हुए न्यायालय ने कहा कि इस अधिनियम के दायरे को लेकर भारतीय रिजर्व बैंक की दलीलों को उच्चतम न्यायालय पिछले साल ही ठुकरा चुका है। सहकारी बैंक कोई निजी वित्तीय संस्थान नहीं हैं क्योंकि सहकारिता कानून के तहत सरकार का इन पर परोक्ष नियंत्रण रहता है। सहकारिता विकास में लगी इकाइयों को सरकार से सब्सिडी भी मिलती रहती है। इसके पहले सहकारी बैंकों ने कहा था कि किसी भी सरकारी प्राधिकरण के अधीन नहीं होने और कोई वित्तीय मदद नहीं मिलने से सूचना अधिकार कानून उन पर लागू नहीं होता है।
गुजरात उच्च न्यायालय ने कर्ज में फंसी
संपत्ति को गैर निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) घोषित कर उसकी नीलामी प्रक्रिया शुरू करने को चुनौती देने वाले कर्जदार की अपील पर सुनवाई से इनकार कर दिया है। ओम शिव लम्बर्स लिमिटेड ने कॉर्पोरेशन बैंक से अपनी संपत्ति पर कर्ज लिया था लेकिन समय पर भुगतान नहीं होने पर बैंक ने उसे एनपीए घोषित कर उसकी ई-नीलामी की प्रक्रिया शुरू कर दी। कंपनी ने इसे अवैध बताते हुए उच्च न्यायालय मेंचुनौती दी। हालांकि बैंक ने दलील दी कि इस तरह के मामलों की सुनवाई के लिए ऋण वसूली न्यायाधिकरण (डीआरटी) के रूप में स्थापित मंच मौजूद है लिहाजा न्यायालय को इसकी सुनवाई नहीं करनी चाहिए। न्यायालय ने भी इससे सहमति जताते हुए सुनवाई से इनकार कर दिया।
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