उठाने होंगे दमदार कदम ताकि मुहिम को मिले दम | राहुल खुल्लर / January 18, 2017 | | | | |
मोदी सरकार की महत्त्वाकांक्षी मेक इन इंडिया को पेश हुए दो साल से ज्यादा हो गए हैं। ऐसे में विनिर्माण वृद्घि और रोजगार सृजन की कसौटियों पर इसे कस रहे हैं राहुल खुल्लर
एक समय नारा बना मेक इन इंडिया (एमआईआई) आकांक्षाओं का प्रतीक (एक आधुनिक विनिर्माता देश) और गुणवत्ता की गारंटी (जैसे कि स्विस क्रोनोमीटर) है। एमआईआई पहल सितंबर, 2014 में शुरू हुई थी ताकि भारत में विनिर्माण को बढ़ावा मिलने के साथ ही रोजगार सृजन में तेजी लाई जा सके। उसे पेश हुए अब दो साल से अधिक हो गए हैं। ऐसे में हमने इस पैमाने पर कितनी प्रगति की है? सबसे पहले तो एमआईआई अब न तो नाम के लिहाज से नया है और न ही सामग्री के पैमाने पर। वर्ष 2009 में 'मेड इन इंडिया' नाम से एक पहल की गई थी, जो एक सफलतम भारतीय शो के रूप में उभरी। एमआईआई का एकमेव लक्ष्य विनिर्माण गतिविधियों को बढ़ावा देकर रोजगार सृजन को प्रोत्साहन देना है। यह अब विस्मृत कर दी गई राष्ट्रीय विनिर्माण नीति (एनएमपी), 2011 से ज्यादा अलग नहीं है, जिसमें जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी बढ़ाने और 10 करोड़ नौकरियों के सृजन का उल्लेख था। एमआईआई का परिचालन संकेंद्रण कारोबार की राह को सुगम (ईडीबी) बनाने पर जोर देना था। क्यों? यह निवेश को बढ़ावा देगा, जो वृद्घि और रोजगार सृजन को सहारा देगा। ईडीबी लक्ष्यों के साथ राज्य सरकारों को एमआईआई में 'साझेदार' बनाया गया।
दो साल बीत गए हैं लेकिन विश्व बैंक द्वारा ईडीबी के पैमाने पर भारत की रैंकिंग में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। सरकार में कुछ लोगों को छोड़कर किसी को इस पर हैरानी नहीं हुई। जरा खुद से पूछिए कि पिछले दो वर्षों के दौरान उद्योग जगत के कितने दिग्गजों ने यह बयान दिया है कि ईडीबी के मोर्चे पर हालात में सुधार हुआ है? किसी ने नहीं। यहां तक कि मौजूदा दौर में उद्योग जगत ईडीबी को लेकर शिकायत कर रहा है और हाल में आईटी उद्योग ने वित्त मंत्रालय से इस सिलसिले में बात की। लिहाजा, अपने तात्कालिक लक्ष्य की पूर्ति के लिहाज से देखा जाए तो एमआईआई को उल्लेखनीय सफलता हासिल नहीं हुई है।
जहां तक जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी बढ़ाने की बात है तो विनिर्माण क्षेत्र की वृद्घि को तृतीयक यानी सेवा क्षेत्र से तेज करना होगा। उसकी ऐसी रफ्तार को कुछ समय के लिए कायम भी रखना होगा। मगर वर्ष 2014 से किसी भी तिमाही में ऐसा नहीं हो पाया। औद्योगिक वृद्घि ने बहुत उत्साह नहीं बढ़ाया और यह मासिक आधार पर अस्थिरता की शिकार होती रही और कई बार तो नकारात्मक भी रही लेकिन हमेशा निरंतर रूप से सुस्ती देखी गई। विनिर्माण वृद्घि के एक प्रमुख स्रोत के रूप में निर्यात में भी लगातार दो वर्षों से गिरावट का ही रुख रहा। औद्योगिक ऋण में वृद्घि भी लचर रही। कई बार तो यहां नकारात्मक दर्ज हुई।
इसका असर छोटे, मझोले और बड़े सभी उद्योगों पर हुआ। भविष्य की वृद्घि का एक अहम पैमाना पूंजी निर्माण भी सुस्ती का शिकार है और भारतीय रिजर्व बैंक का अनुमान है कि अतिरेक क्षमता 30 फीसदी हो चली है। विनिर्माण नौकरियों (एसएमई सहित) में वृद्घि अनुमानों से कम है। संक्षेप में कहा जाए तो एमआईआई के प्रमुख लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सका और उनकी भविष्य की संभावनाएं भी बहुत बेहतर नजर नहीं आ रही हैं। सही कहा जाए तो सरकार बड़ी असहज या अवांछनीय स्थिति में है। विदेशी मांग कमजोर पड़ी है। घरेलू स्थिति भी बहुत अस्थिर है, निजी उपभोग में वृद्घि की रफ्तार सुस्त है, निवेश की मांग सूख गई है, औद्योगिक कायाकल्प दूर की कौड़ी लग रहा है, कृषि गंभीर संकट की जद में है और गैर निष्पादित आस्तियों का ढेर बैंकों की जान सुखा रहा है। नोटबंदी के रूप में एक और अनपेक्षित झटका लगा है। संरक्षणवाद बढऩे पर है। वैश्विक अर्थव्यवस्था और वृद्घि को लेकर जोखिम बढ़ गया है। भारत से होने वाला निर्यात संकटों से उबर नहीं पा रहा है। लिहाजा, घरेलू अर्थव्यवस्था पर ध्यान देना होगा और एमआईआई के मोर्चे पर गतिविधियां भी महत्त्वपूर्ण हैं।
सबसे पहले तो नीतिगत बयान नाकाफी हैं। उन्हें मूर्त रूप देना होगा और सरकारी स्तर, रणनीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों की कड़ी के रूप में पिरोना होगा। इसके अभाव में नीतिगत बयान निरर्थक होंगे। वर्ष 2011 में बनी राष्ट्रीय विनिर्माण नीति की भी यही परिणति हुई थी। दुखद रूप से एमआईआई भी उसी राह जा रहा है। सरकार को बड़े-बड़े बयानों से परे जाकर भी काम करना चाहिए। दूसरी बात यही कि संघीय ढांचे में औद्योगिक नीति एकल व्यवस्था वाले तंत्र से सर्वथा अलग होती है। केंद्र सरकार ने समय-समय पर तमाम औद्योगिक नीतियों का ऐलान किया है। उनमें से अधिकांश उस दौर की सियासत से प्रभावित राजनीतिक मंशा वाली घोषणाएं होती हैं। अपने आप में वे व्यापक रूप से बेअसर हैं।
लाइसेंस राज के दौरान केंद्र सरकार ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल स्थान के पैमाने को प्रभावित करने में किया। संतुलित क्षेत्रीय विकास को प्रोत्साहन देने के लिए केंद्र सरकार ने सही किया। मगर उससे परे इसमें कुछ खास नहीं था। वास्तविक औद्योगिक 'नीतियां' असल में राज्यों ने बनाईं। दरअसल, जमीन, जल, बिजली, श्रम कानून, बिक्री कर/मूल्य वर्धित कर जैसे औद्योगिक इकाइयों से जुड़े अहम मसले राज्यों के अधिकार क्षेत्र में ही आते हैं। इस बीच औद्योगिक नीतियों को आकार देने और उन्हें अमली जामा पहनाने में राज्यों का प्रदर्शन खासा बेहतर रहा। जरा इस विवरण पर गौर कीजिए। 1990 के दशक में बेंगलूर एक सुस्त रफ्तार गार्डन सिटी के रूप में ही मशहूर था लेकिन एक डेढ़ दशक में इसका नाम बदलकर न केवल बेंगलूरु हो गया बल्कि यह आईटी और जैव प्रौद्योगिकी उद्योग का गढ़ बन गया। 1990 में ही गुजरात बिजली और उद्योगों की किल्लत से जूझ रहा था। आज यहां न केवल बिजली अधिशेष की स्थिति है बल्कि दो भीमकाय शोधशालाएं और भारत का सबसे बड़ा बंदरगाह और दवा उद्योग का विकसित संकुल मौजूद है। 1990 में गुडग़ांव गुमनाम शहर था लेकिन दो दशकों के दरमियान यह वाहन उद्योग, बीपीओ के दम पर बढ़ते आईटी उद्योग सहित तमाम व्यापारिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया। तमिलनाडु पर नजर दौड़ाएं तो महज एक दशक के दौरान ही यह राज्य वाहन वाहन विनिर्माण का बड़ा अड्डïा बन गया है और यहां के विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) विशेष रूप से कई पूर्वी एशियाई विनिर्माताओं के लिए प्रमुख आधार बने हुए हैं। आंध्र प्रदेश की सफलता गाथा भी ऐसी ही है, जहां चाहे साइबराबाद की मिसाल दी जाए या फिर श्री सिटी सेज, जो एमआईआई की सफलता का चेहरा बनाया जा रहा है।
इस सफलता की प्रमुख वजह यही थी कि राज्यों ने अपनी औद्योगिक नीतियों को आकार दिया, उद्योगों को प्रोत्साहन के रूप में राहत-रियायतें दीं और देसी-विदेशी निवेश को सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया। विभिन्न मुख्यमंत्रियों के राजनीतिक नेतृत्व ने नीतियों का सक्षम कार्यान्वयन सुनिश्चित किया। वहीं तमाम हो हल्ले के बावजूद एमआईआई पहल के पास दिखाने के लिए बहुत कम उपलब्धियां हैं। साथ ही भविष्य में विनिर्माण वृद्घि की तस्वीर भी बहुत गुलाबी नहीं दिख रही है। स्पष्टï रूप से एमआईआई अभियान खतरे के निशान पर है।
पहला तो यही कि एमआईआई अब भी एक नारे के रूप में ही सिमटा हुआ है। इसमें नीतिगत पक्ष या तो गायब है या उसे साफ तौर पर नुमाया नहीं किया गया है। इसे निश्चित रूप से उचित आकार दिया जाना चाहिए। दूसरा यही कि राज्यों की भूमिका केवल ईडीबी तक ही सीमित करना बुद्घिमानी नहीं थी। केंद्र और राज्यों को कंधे से कंधा मिलाकर काम करना होगा और तय करना होगा कि केंद्र को क्या कदम उठाने की जरूरत है और राज्यों की क्या जरूरतें हैं। तीसरा यही कि एमआईआई को मूर्त रूप देने की जिम्मेदारी कई मंत्रालयों की है। मिसाल के तौर पर कंपनी मामलों का मंत्रालय, कौशल विकास और श्रम मंत्रालयों की इसमें महती भूमिका है। ऐसा प्रतीत होता है कि समन्वय, कार्यक्रम निर्माण एवं संयोजन के लिए उन्हें साथ आना अभी बाकी है और ऐसा केंद्र और राज्यों दोनों के स्तर पर है। अपने मौजूदा रूप में शायद एमआईआई परवान न चढ़ सके। अभी भी बहुत ज्यादा देर नहीं हुई कि इसके कंकाल में कुछ जान डाली जाए। कल पुर्जों और पहियों से बने शेर में निश्चित रूप से कुछ हलचल नजर आनी ही चाहिए।
(लेखक ट्राई चेयरमैन रह चुके हैं। वर्ष 2009 से 2012 के बीच केंद्रीय वाणिज्य सचिव थे)
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