पिछले एक साल में एग्री कमोडिटी की कीमतों में खासी बढ़ोतरी हुई है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती मांग के बावजूद इसकी पैदावार जस की तस है।
विशेषज्ञों का कहना है कि अगले दो-तीन साल तक इसकी कीमतों में उछाल का सिलसिला जारी रहने के आसार हैं जब तक कि पैदावार में तेजी से बढ़ोतरी न हो जाती है।
अग्रणी शोध संस्थान के अर्थशास्त्री के मुताबिक, एग्री कमोडिटी की कीमतें मुख्य रूप से मांग-आपूर्ति के अंकगणित पर निर्भर करती है। अगर ऐसी वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाना है तो फिर इसके फसल क्षेत्र में इजाफा करना होगा।
यह तभी हो सकता है जब जंगली इलाकों को खेती की जमीन में तब्दील कर दी जाए और वहां खेती हो। लेकिन इसमें समस्या ये है कि पर्यावरणवादी इस कदम का विरोध करेंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि प्रति हेक्टेयर पैदावार बढ़ाकर ही इस समस्या से निजात पाया जा सकता है। इसकेलिए उन बीजों (जिनेटिकली मोडिफाइड बीज) का इस्तेमाल किया जाए जिनसे ज्यादा से ज्यादा उपज हो।
साथ ही सिंचाई की सुविधा में भी इजाफा किए जाने की जरूरत होगी। अर्थशास्त्री ने कहा कि उत्तर भारत में जमीन का वॉटर लेवल धीरे-धीरे कम हो रहा है, हालांकि अभी खतरे की घंटी नहीं बजी है। ऐसे में जल संरक्षण किए जाने की जरूरत है।रिटेल ग्रेन्स डीलर्स कोऑपरेटिव सोसायटी के चेयरमैन ने बताया कि सरकार कमोडिटी की कीमतों में बढ़ोतरी का लाभ किसानों को देने लगी है और यही वजह है कि लगभग सभी एग्री कमोडिटी का न्यूनतम समर्थन मूल्य काफी बढ़ा है।
गेहूं
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यानी कई देशों मसलन यूक्रेन, ऑस्ट्रेलिया व अमेरिका में गेहूं की फसल खराब हुई है, जहां से जरूरत पड़ने पर भारत आयात करता है। ग्रेन राइस एंड ऑयलसीड मर्चेंट असोसिएशन के प्रेजिडेंट शरद मारू के मुताबिक, घरेलू बाजार में कीमतों में बढ़ोतरी के तार अंतरराष्ट्रीय बाजार से जुड़ गए हैं। हाल ही में फूड एंड एग्रीकल्चरल ऑर्गनाइजेशन ने कहा था कि पूर्वी अफ्रीका व यमन में फफूंद गेहूं की फसल को खराब कर सकता है।
इसके बाद भारतीय नकदी बाजार में गेहूं की रिटेल कीमत में 50-100 रुपये प्रति क्विंटल की तेजी दर्ज की गई। इस बीच सरकार ने गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 750 रुपये से बढ़ाकर 1000 रुपये कर दिया ताकि बफर स्टॉक के लिए ज्यादा से ज्यादा खरीद में सहूलियत मिले।
2007 में एफसीआई ने 18 लाख टन गेहूं की कम खरीद की और इसी वजह से भारत को गेहूं का आयात करना पड़ा। इससे पहले 2005 में भारत ने 55 लाख टन गेहूं का आयात किया था। अर्थशास्त्री का आरोप है कि मल्टीनैशनल कंपनियां गेहूं की खरीद कर रही है और इसी वजह से दूसरों को भी इसकी ऊंची कीमत देनी पड़ रही है।
चावल
निर्यात की मांग के चलते बासमती और दूसरे चावल की कीमतों में तेजी से बढ़ोतरी दर्ज की गई है। हालांकि सरकार ने इसके निर्यात पर पाबंदी लगा दी है ताकि घरेलू बाजार में इसकी पर्याप्त मात्रा उपलब्ध हो। बावजूद इसके घरेलू बाजार में इसकी कीमतों में उछाल का सिलसिला जारी है। मारू केमुताबिक, अप्रैल के पहले हफ्ते में जब पंजाब से चावल की आवक शुरू होती है तो इसकी कीमतों धरातल पर दिखाई देती है, ऐसे में इस साल भी यही नजारा देखने को मिलेगा यानी कीमतें कम होने लगेंगी।
सप्लाई चेन भी चावल की कीमत पर खासा असर पड़ता है। इसके मुख्य उत्पादक और मुख्य उपभोक्ता के बीच अच्छी खासी दूरी है। पंजाब व हरियाणा चावल बेशक पैदा करता है, लेकिन इसके उपभोक्ता मसलन दिल्ली व मुंबई इससे काफी दूर हैं। ऐसे में मालभाड़ा की वजह से चावल की लागत बढ़ जाती है यानी कीमत बढ़ोतरी में इसका भी योगदान होता है। कच्चे तेल की कीमत में बढ़ोतरी का भी इस पर असर पड़ा है।
इस साल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बासमती का उत्पादन 20 लाख टन रहने के आसार हैं और इसमें भारत का हिस्सा 74 फीसदी का है। दूसरे चावलों की पैदावार 93 लाख टन रहने की उम्मीद जताई जा रही है। इस सीजन के लिए सरकार ने धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 735 रुपये प्रति क्विंटल रखा है जबकि पिछले साल यह 650 रुपये था। चावल का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1298 रुपये है जबकि पिछले साल 1050 रुपये था।
सीएसीपी 2008 के सीजन के लिए धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1050 रुपये प्रति क्विंटल तय कर सकता है। एक व्यापारी के मुताबिक, इससे भी चावल की कीमतें और बढ़ेंगी।
दाल
दाल के उपज क्षेत्र में लगातार हो रही कमी और किसानों का द्ूसरी फसल की ओर मुड़ जाना इसकी कीमतों में हो रही बढ़ोतरी का मुख्य कारण है। भारत इसके आयात पर निर्भर करता है यानी घरेलू जरूरत के मुताबिक दाल की पैदावार यहां नहीं हो पाती। ऐसे में यह ऑस्ट्रेलिया व म्यांमार आदि देशों से सरप्लस माल खरीदता है। भारत में 145 लाख टन दाल की पैदावार होती है जबकि 16-18 लाख टन दाल का आयात किया जाता है।