आंध्र प्रदेश सरकार माइक्रोफाइनैंस की फिर से विवेचना कर रही है। ग्रामीण क्षेत्र में गरीबी के उन्मूलन के लिए बनी उसकी सोसाइटी (एसईआरपी) आज विश्व की सबसे बड़ी माइक्रोफाइनैंस संस्था होने की दावेदार है।
एसईआरपी ने स्वयं सहायता समूहों को जोड़कर एक बहुत बड़ा नेटवर्क तैयार किया है। इसमें बैंक भी शामिल हैं। सोसाइटी से 96 लाख महिलाएं जुड़ी हैं, जो ग्रामीण बैंक से जुड़े 67 लाख और बीएआरसी के 63 लाख लोगों की संख्या से भी ज्यादा है।
इस समय इसमें शामिल समूहों की कुल बचत 3,000 करोड़ रुपये है, जबकि स्वयं सहायता समूहों को दिए जाने वाला कर्ज 2001 में 200 करोड़ रुपये था, वह पिछले साल 5,900 करोड़ रुपये पर पहुंच गया है।
एसईआरपी के लक्ष्यों में कहा गया है कि 2013-14 तक 1 लाख करोड़ रुपये जमा कराने का उद्देश्य है, इसके साथ ही दूरस्थ गांवों में खुद के करीब 35,000 बैंक होंगे, जिसमें स्वयं सहायता समूह की महिलाएं ही कारोबारी संवाददाता के रूप में नेतृत्व करेंगी।
दरअसल यह कार्यक्रम केंद्र सरकार द्वारा चलाई जा रही स्वर्ण जयंती ग्रामीण स्वरोजगार योजना का ही राज्य का प्रतिरूप है। केंद्र सरकार अब इस मॉडल को देश के अन्य राज्यों में भी लागू करने पर गंभीरता से विचार कर रही है।
गरीबी हटाने के लिए यहां पर जो तरीका अपनाया गया है, उसमें 6 साल के दौरान बार बार मदद करके एक परिवार के हाथों में 1 लाख रुपये पहुंचाना शामिल है।
पश्चिमी गोदावरी जिले के कल्ला मंडल के जक्कारन गांव में रहने वाली पी ग्राकम्मा सरकारी स्वास्थ्य कर्मी या एएनएम है। वे एक एसईआरपी समूह की सदस्य भी हैं। उस गांव में कुल 30 समूह हैं जिसमें प्रत्येक समूह में 10 सदस्य शामिल हैं।
ग्राकम्मा के समूह ने 1.5 लाख रुपये उधार लिए थे, जिसमें से उसे 15,000 रुपये मिले। इस रुपये से उन्होंने भैंस खरीदी और वे एक कलेक्शन सेंटर को दूध बेंचती हैं, जो प्रतिदिन उनसे 4 लीटर दूध लेता है। इससे उनकी कमाई 60 रुपये प्रतिदिन होती है।
उनका कहना है कि उनका सुगुना समूह बहुत बेहतर ढंग से काम कर रहा है और अब अगला कर्ज लेने के लिए तैयार है। उनके समूह ने पिछले कर्ज का करीब करीब पूरा भुगतान कर दिया है, जिसे करने में 18 महीने लगे हैं।
इसके सीईओ विजय कुमार कहते हैं कि कार्यक्रम की खूबसूरती यह है कि दिए गए कर्ज वापस मिल रहे हैं और महिलाएं हम लोगों से ज्यादा सहमत नजर आती हैं।
हालांकि उनके ऊपर महिलाओं के समूह, फेडरेशन या गांव स्तर पर समाख्या तथा ब्लॉक और जिला स्तर से समय से भुगतान करने का दबाव होता है, क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें सब्सिडी का अतिरिक्त लाभ मिल जाता है।
आप ऐसा क्यों मानते हैं कि अगर एक बार किसी को एक छोटी सी धनराशि दे दी जाए तो गरीबी का उन्मूलन हो जाएगा? वह सवाल करते हैं। इन कार्यक्रमों को संचालित करने के लिए धन केंद्र और राज्य सरकार की ओर से आता है, जिसमें विश्व बैंक का भी योगदान होता है।
2001 से लेकर अब तक विश्व बैंक से 1,500 करोड़ रुपये मिले हैं और करीब 200 करोड़ रुपये केंद्र सरकार से और करीब 30 करोड़ रुपये राज्य सरकार की ओर से मिले हैं। इसमें केंद्र सरकार द्वारा ब्याज पर दी गई सब्सिडी के रूप में उपलब्ध कराया गया अतिरिक्त 250 करोड़ रुपये भी शामिल हैं।
आंध्र प्रदेश में मिली सफलता के बाद विजय कुमार खासे उत्साहित हैं। उनका मानना है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे प्रदेशों में भी इस तरह के कार्यक्रम की खास जरूरत है।
उन्होंने इस दिशा में काम करना शुरू भी कर दिया है और अब वे अपने कर्मचारियों को इन राज्यों के विभिन्न इलाकों में भेज रहे हैं, जिससे उत्तर प्रदेश और बिहार के महिला समूहों को प्रशिक्षित किया जा सके।
एसईआरपी जैसे कार्यक्रम का नामकरण भी हर नई सरकार कर देती है। अभी हाल की सरकार के कार्यकाल में इसे वेलुगु या प्रकाश पुंज के नाम से जाना जाता था।
अब इसे इंदिरा क्रांति पाठम नाम दे दिया गया है। तब इन दोनो कार्यक्रमों में समानता क्या है? दरअसल समानता यह है कि इसमें काम करने वाले अधिकारी वही हैं, जो पहले काम करते थे।
कल्ला मंडल के 75 गांवों की 40,000 महिलाएं स्वयं सहायता समूह का हिस्सा बन चुकी हैं। तमाम ऐसे उदाहरण मिलेंगे, जहां महिलाएं खुद काम करती थीं लेकिन पैसे की कमी की वजह से वे अपने काम को विस्तार नहीं दे पाती थीं।
इस कार्यक्रम के बाद उन्हें अपने काम को सुचारु रूप से चलाने के लिए पैसे की कमी आड़े नहीं आ रही है। अब गांवों में परंपरागत रूप से कंघी और चूड़ियां बेचने वाली अनुसूचित जाति की महिला नागमणि का ही उदाहरण ले लीजिए। उसने दूसरी बार 20,000 रुपये कर्ज लिए हैं, जबकि उसके समूह ने 2 लाख रुपये कर्ज लिया है।
अब तो इस बात को लेकर भी भय का वातावरण बन रहा है कि इन समूहों के मजबूत होने के बात से माइक्रो फाइनैंस इंस्टीटयूशंस (एमएफआई) की भूमिका समाप्त हो जाएगी।
हालांकि कुछ लोग कहते हैं यह बुलबुला उन दो लोगों की वजह से बरकरार है, जो पिछले एक दशक से इस संस्था का नेतृत्व कर रहे हैं। कुछ अन्य लोगों की यह भी राय है कि जैसे ही विश्व बैंक की सहायता खत्म हो जाएगी तो इन स्वयं सेवी संस्थाओं की स्वाभाविक मौत हो जाएगी।
लेकिन कुमार इस तरह के दावों और बयानों को खारिज करते हैं। उनका कहना है कि एक बेहतरीन तंत्र विकसित किया गया है, जिसमें बैंकों से भी समझौते हुए हैं। बैंकों को इस तरह का बड़ा नेटवर्क नहीं आसानी से नहीं मिल सकता है, जो उधार ले और समय से उसका भुगतान कर दे।
जहां तक एमएफआई को खतरे की बात है, वे कहते हैं कि यह ऐसी संस्था है जो गरीबों से पैसे बनाती है, जबकि स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से गरीब लोग अमीर होते हैं। ऐसे में यही उचित होगा कि एमएफआई को मरने दिया जाए।