प्रख्यात इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने एक हालिया आलेख में भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के बारे में लिखा है। गुहा ने बहुत ही प्रभावी ढंग से लिखा कि अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद शास्त्री को न राष्टï्र से और न ही कांग्रेस पार्टी से वह सम्मान हासिल हुआ, जिसके वह हकदार थे। उसी कांग्रेस पार्टी की उन्होंने जीवनपर्यंत सेवा की। शास्त्री ने भारतीय कृषि के कायाकल्प की खातिर पहला बड़ा कदम उठाया, जिसका उनके उत्तराधिकारियों ने अनवरत फायदा उठाया, पाकिस्तान से देश की सुरक्षा सुनिश्चित की और भारत को एक गतिशील लोकतंत्र बनाने में अहम भूमिका निभाई। फिर भी शास्त्री की गिनती व्यापक तौर पर गुमनाम नायकों में ही होती है। वर्ष 1965 में पाकिस्तान के साथ चले एक संक्षिप्त युद्घ के बाद पाकिस्तान के साथ ताशकंद में शांति समझौते पर दस्तखत के तुरंत बाद शास्त्री का देहांत हो गया। मगर इस साल शास्त्री की 50वीं पुण्यतिथि मनाने की दिशा में कोई बड़ी पहल नहीं की गई है, जो इस महान नेता की शख्सियत से मेल खा सके। हरित क्रांति और पाकिस्तान पर विजय जैसी उपलब्धियों के बीच शास्त्री के नेतृत्व का एक पहलू खासतौर से नजरअंदाज किया गया। इसका संबंध नियंत्रणों के विचार और आर्थिक नीतिगत मामलों में सार्वजनिक क्षेत्र के वर्चस्व से जुड़ा है। एक मायने में शास्त्री को भारत का पहला आर्थिक सुधारक माना जा सकता है, पी वी नरसिंह राव से भी पहले का सुधारक, जिन्हें खुद कांग्रेस ने शास्त्री की ही तरह भुला दिया। शास्त्री को उनका वाजिब हक न मिलने की एक वजह यह भी हो सकती है कि सुधारों के पहले दौर में उनकी कोशिशों को तमाम संदेहों के दायरे में देखा गया। उदाहरण के लिए व्यापक तौर पर यही माना जाता है कि वर्ष 1966 में भारतीय रुपये का अवमूल्यन प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी द्वारा लिया गया निर्णय था। यह सच है कि फैसला इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में ही हुआ लेकिन मुद्रा के अवमूल्यन पर शास्त्री पहले ही फैसला ले चुके थे। उस समय वित्त मंत्रालय में कार्यरत रहे आई जी पटेल ने अपने एक निबंध में उन स्मृतियों के बारे में बताया कि जब शास्त्री प्रधानमंत्री थे तो कैसे सैद्घांतिक रूप से मुद्रा के अवमूल्यन का निर्णय कर अंतरराष्टï्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) को उसकी जानकारी दे दी गई थी। आईएमएफ को बताने से पहले शास्त्री ने साथ ही साथ एक और साहसिक फैसला किया। उनके वित्त मंत्री टी टी कृष्णमचारी अवमूल्यन के विचार से सहमत नहीं थे। जी डी बिड़ला की जीवनी लिखने वाली कुदेसिया ने इसमें लिखा है कि आयात पर सरकारी नियंत्रण हटाने और औद्योगिक गतिविधियों एवं मुद्रा के अवमूल्यन की राह में सिर्फ कृष्णमचारी ही विरोध में खड़े इकलौते शख्स थे। वहीं युद्घ के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए शास्त्री के पास आईएमएफ-विश्व बैंक के आर्थिक उदारीकरण और मुद्रा अवमूल्यन के विकल्प को मानने के अलावा कोई अन्य रास्ता नहीं था। ऐसे में शास्त्री ने कृष्णमचारी को हटाकर तुरुप चाल ही चल दी। अपने राजनीतिक जीवन में कृष्णमचारी को दूसरी बार वित्त मंत्री के पद से हटना पड़ा। जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में मूंदड़ा घोटाला सामने आने के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। वहीं अपने बेटे के खिलाफ दुराचार के आरोपों के कारण उन्हें शास्त्री मंत्रिमंडल से बाहर होना पड़ा। शास्त्री ने इन आरोपों की अनदेखी करने से इनकार कर दिया और जब तक कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा जांच में उन्हें दोषमुक्त नहीं कर दिया जाता, तब तक उनसे वित्त मंत्री के पद से इस्तीफा देने के लिए कहा। कृष्णमचारी ने इसे अपना अपमान समझा और इस्तीफा दे दिया, जिसे शास्त्री ने तुरंत स्वीकार करते हुए सचिन चौधरी को नया वित्त मंत्री नियुक्त किया। उसके बाद शास्त्री बहुत समय तक जीवित नहीं रहे। उनके बाद देश का नेतृत्व संभालने वाली इंदिरा गांधी ने सचिन चौधरी को वित्त मंत्री बनाए रखा और शास्त्री द्वारा लिए अवमूल्यन के फैसले को कार्यान्वित किया। हालांकि यह बात अलग है कि लाइसेंस परमिट राज के एक और वादे को उन्होंने पूरा नहीं किया। शास्त्री की आर्थिक टीम को देखकर भी उनके सुधारवादी दृष्टिïकोण के दर्शन होते हैं। इसमें एस भूतलिंगम, धर्मवीर, आई जी पटेल और एल के झा जैसे दिग्गज शामिल थे, जो सुधारों के हिमायती होने के साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था को उसकी क्षमता अनुसार रफ्तार देने के लिए जरूरी कदम उठाने में यकीन रखते थे और इसके लिए कृषि के आधुनिकीकरण से लेकर निजी क्षेत्र को नियंत्रणों के दायरे से बाहर निकालना चाहते थे। यहां तक कि शास्त्री के मंत्रिमंडल से वी के कृष्ण मेनन और के डी मालवीय की विदाई से उनकी पसंद को लेकर साफ संकेत नजर आ रहे थे कि वह लाइसेंस राज के बजाय बाजार पर भरोसे को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं। शास्त्री के मातहत सरकार के कुछ फैसलों में भी ताजगी की बयार महसूस की जा रही थी। अगस्त 1965 में प्रधानमंत्री ने संसद में ऐलान किया कि आर्थिक गतिविधियों पर लगे सरकारी नियंत्रणों पर पुनर्विचार किया जाएगा। जल्द ही इस्पात और सीमेंट जैसे क्षेत्रों के लिए नियम नरम बना दिए गए। इससे भी बढ़कर यह बात थी कि सिरे नहीं चढ़ पा रही सार्वजनिक क्षेत्र की अहम परियोजनाओं की शास्त्री ने समीक्षा के आदेश दिए। ऐसी परियोजनाओं को विभिन्न विभागों के बीच चक्करघिन्नी में फंसने से बचाने के लिए राष्टï्रीय नियोजन परिषद की स्थापना की, जिसने योजना आयोग की भूमिका और दायरे को सीमित किया। यह अफसोस की बात है कि आर्थिक सुधारों, विनियमनों और विकेंद्रीकरण पर अपने विचारों को लागू करने से पहले ही शास्त्री का असामयिक निधन हो गया। मगर यह राष्टï्रीय शर्म की बात है कि भारत में शास्त्री को कोई भी इस बात के लिए याद नहीं रखता, जिस दौर में उन्होंने सुधारों की राह पर आगे बढऩे की हिम्मत दिखाई।
