वैश्विक आर्थिक मंदी के बावजूद अधिकांश देश प्राकृतिक गैस के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
अनिल धीरूभाई अंबानी समूह अपनी ऊर्जा इकाइयों के लिए मुकेश अंबानी द्वारा नियंत्रित रिलायंस इंडस्ट्रीज द्वारा खोजे गए कृष्णा-गोदावरी बेसिन को किस प्रकार पाने के लिए बेताब है, इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।
प्राकृतिक गैस के लिए यह उतावलापन तब देखा जा रहा है जब 25 साल में पहली बार साल 2008 में तेल की मांग में कमी आई जिस कारण कच्चे तेल की कीमतें मध्य जुलाई की रेकॉर्ड 147 डॉलर प्रति बैरल के स्तर से घट कर 40 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर आ गईं।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुमानों के अनुसार वैश्विक अर्थव्यवस्था में इस साल की दूसरी छमाही से क्रमश: सुधार होगा। दूसरी तरफ, ऊर्जा विशेषज्ञों का कहना है कि साल 2009 में फिर से तेल की मांग में तेजी आएगी। यद्यपि वर्तमान कीमतों पर इसे समर्थन नहीं मिलेगा अगर तेल की तुलना में गैस की अंतर्निहित मांग मजबूत रहती है।
गैस की कीमतें पांच साल की तेजी की अवधि के बाद कम हो रही हैं तो इसकी प्राथमिक वजह तेल की कीमतों के अनुसार गैस की कीमतों में तेजी या गिरावट का आना है। जैसा कि हम जानते हैं, गैस का इस्तेमाल प्राथमिक तौर पर ऊर्जा उत्पादन, ताप और उर्वरक इकाइयों के फीडस्टॉक के लिए किया जाता है।
वास्तव में, नैफ्था और अन्य तेल की जगह उर्वरक फीडस्टॉक के लिए गैस के इस्तेमाल का वैश्विक चलन बन गया है। गैस आधारित उर्वरक इकाइयों को हालांकि पर्याप्त मात्रा में इसकी आपूर्ति नहीं हो पाती है। क्योंकि देश में लगभग 86 एमएमएससीएमडी (मिलियन मेट्रिक स्टैंडर्ड क्यूबिक मीटर प्रति दिन) का उत्पादन किया जाता है जबकि मांग 235 एमएमएससीएमडी की है।
आधिकारिक आंकड़ो के अनुसार साल 2012 तक भारत में 315 एमएमएससीएमडी की जरूरत होगी और साल 2012 तक इसकी मांग और अधिक बढ़ कर लगभग 400 एमएमएससीएमडी हो जाएगी।
कोई नहीं जानता कि ईरान से भारत तक का प्रस्तावित पाइपलाइन (पाकिस्तान होते हुए) कभी पूरा होगा या नहीं और बांग्ला देश गैस बेचने के लिए कम सहमत होगा।
इसके साथ ही हमारे आयात की जरूरते भी कम से कम 8.5 प्रतिशत की सालाना दर से बढ़नी जारी रहेंगी। ऊर्जा क्षेत्र गैस का सबसे बड़ा इस्तेमालकर्ता है और रहेगा।
हालांकि, गैस की खपत करने वाला यह एकमात्र सेक्टर है जहां मांग हमेशा कीमतों के प्रति हमेशा संवेदनशील रहेगी। गैस की कीमतों की तुलना कोयले की कीमतों से की जाती रहेगी।
सभी इस्तेमालकर्ता क्षेत्रों, जिसमें ऊर्जा क्षेत्र भी शामिल है, के लिए फायदे की बात यह है कि गैस बहुत हद तक मंदी-प्रूफ है। तेल से अलग ऑनशोर और ऑफशोर साइट्स से गैस निकाले जाने के बाद इसके तुरंत इस्तेमाल कर लेने की जरूरत होती है।
जब तक तरलीकृत नहीं किया जाए तब तक गैस का भंडारण मुश्किल है और यही कारण है कि कीमतों को प्रभावित करने की क्षमता उत्पादकों में कम होती है।
गैस उत्पादकों को एक लाभ यह मिलता है कि ईंधन की बिक्री दीर्घावधि के निश्चित अनुबंधों के आधार पर किया जाता है और ये अनुबंध अधिकांशत: अखण्डनीय होती हैं।
यूरोप में घरेलू आपूर्ति घटने से वैश्विक गैस कारोबार में कुछ संरचनात्मक बदलाव आए हैं। इस घटना के बाद आपूर्ति के मामले में यूरोप की निर्भरता रूस पर बढ़ी है।
यूरोप, चीन, दक्षिण कोरिया को बड़े पैमाने पर अकेले रुस ही गैस की आपूर्ति नहीं करता बल्कि गैस के धनी कुछ अफ्रीकी देश भी इस संसाधन की बिक्री के लिए प्रमुख ग्राहकों की खोज कर रहे हैं।
विश्व के प्रकृतिक गैस भंडार का लगभग 60 प्रतिशत रूस, ईरान और कतर के पास है। गैस का आयात करने वाले देशों में इस बात को लेकर चिंता बढ़नी स्वाभाविक है कि ये तीनों बड़े आपूर्तिकर्ता कहीं ओपेक की तरह काटर्ेल न बना लें।
हालांकि, भारत जैसे गैस आयातक देशों को पिछले महीने गैस एक्सपोर्टिंग कंट्रीज फोरम की बैठक में रूस के स्पष्ट बयान से राहत मिली।
रूस ने कहा था कि वह गैस निष्कर्षण और तरलीकरण के क्षेत्र में सभी सदस्यों का सहयोग करता है लेकिन यह कीमत निर्धारण के लिए ओपेक जैसा संगठन बनाने के कदमों का समर्थन नहीं करेगा।
रॉयल डच शेल ने बताया कि जहां गैस की वैश्विक खपत सालाना तीन प्रतिशत की दर से बढ़ रही है वहीं तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी), जिसे दहेज और कोच्चि जैसे टर्मिनल प्वांइट्स पर फिर से गैस में बदल दिया जाता है, की मांग 7 से 10 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रही है।
प्राकृतिक गैस को इसलिए तरजीह दी जाती है क्योंकि फॉसिल-फ्यूल में यह सबसे शुध्द होता है। गैस की मांग इसलिए भी बढ़ रही है क्योंकि गैस आधारित ऊर्जा संयंत्र लगाने की लागत अपेक्षाकृत कम होती है।
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