बंगाल चुनाव के विरोधाभास | मयंक मिश्रा / May 03, 2016 | | | | |
कोलकाता के हावड़ा ब्रिज से सबकुछ नीला और सफेद दिखाई देता है। शहर की सभी सरकारी इमारतें, फ्लाईओवर, स्कूल, कॉलेज, मदरसे, अस्पताल, रास्ते और यहां तक कि पुलिस की वैन भी इसी रंग में रंगी हुई हैं। पश्चिम बंगाल के दूसरे हिस्सों में भी कमोबेश यही नजारा देखने को मिलता है। सत्ताधारी दल के इस नए फितूर के बारे में कई तरह की कहानियां कही जा रही हैं। कुछ का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस की नेता और राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जनता के दिमाग से वामपंथी लाल रंग का नामोनिशान मिटा देना चाहती हैं। दूसरे लोग मानते हैं कि शायद वह ज्योतिषियों की सलाह पर ऐसा कर रही हैं। कारण चाहे जो भी हो, कई लोगों का कहना है कि पश्चिम बंगाल में 34 साल के निर्बाध वामपंथी शासन में बाद 2001 में हुए बदलाव के बाद केवल यही एक परिवर्तन देखने को मिला है।
वाम से ज्यादा वामपंथी?
ऐसा लगता है कि ममता ने हर क्षेत्र में वामपंथियों की नकल की है और उन्हें उन्हीं के खेल में हराने की कोशिश की है। चाहे वह 'साइंटिफिक रिगिंग' की चतुराई हो या फिर नए समूहों को लुभाने के लिए उन्हें राजकीय संरक्षण देने का मामला, ममता सरकार ने वामपंथियों की परंपरा को आगे बढ़ाया और इसे नए स्तर तक ले गई। वर्ष 2012 में ममता बनर्जी ने रेलवे के किराए में मामूली बढ़ोतरी का जबरदस्त विरोध किया था जिसके बाद 'वाशिंगटन पोस्ट' ने अपने एक लेख में उन्हें भारत की लोकलुभावन ताकतों कर अवतार बताया था। उदार आर्थिक नीतियों पर उनका विरोध जगजाहिर है। जो वर्षों से ममता बनर्जी की राजनीति को जानते हैं, उनका कहना है कि ऐसा करके उन्होंने वामपंथियों के एक प्रतीक को हथिया लिया है। कोलकाता के राजनीतिक विश्लेषक रजत रॉय कहते हैं, 'उन्होंने वामपंथी शासन से उकता चुके बंगाली मध्य वर्ग के बीच सम्मान हासिल करने के लिए ऐसा किया।' कोलकाता के प्रतीची इंस्टीटï्यूट के कुमार राणा कहते हैं कि वामपंथी शासन में कैडर राज लोकप्रिय हुआ करता था। इसके तहत स्थानीय स्तर पर हर फैसले के लिए वामपंथी दलों के कार्यकर्ताओं से मंजूरी लेनी पड़ती थी। ममता सरकार में उसका स्थान सिंडिकेट ने ले लिया है। ऐसे गिरोहों के सक्रिय होने की खबरें आती रही हैं जो खरीदारों को ऊंची कीमत पर निर्माण सामग्री खरीदने के लिए मजबूर करते हैं। वामपंथी शासन में जहां हर क्षेत्र में पार्टी कार्यकर्ताओं का दबदबा होता था वहीं अब ऐसी व्यवस्था कायम है जो डरा धमकाकर लोगों को जबरन महंगा माल बेचकर स्थानीय दबदबा कायम करने में विश्वास करती है।
जहां तक राजकीय संरक्षण देने की बात है कि तो ममता इस मामले में वामपंथियों से भी एक कदम आगे निकल गई है। उन्होंने करीब 7,000 क्लबों को अनुदान दिया जिसमें अधिकांशत: उन्हीं की पार्टी के कार्यकर्ताओं का दबदबा है। इसी तरह करीब 13,0000 नागरिक पुलिस स्वयंसेवकों को भर्ती किया गया। ऐसा करके ममता ने वामपंथियों की विरासत को ही आगे बढ़ाया। अपनी अधिकांश चुनावी सभाओं में वह आठ करोड़ लोगों के लिए शुरू की गई दो रुपये प्रति किलोग्राम चावल की योजना का जिक्र करना नहीं भूलती हैं और इसे अपनी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक मानती हैं। तो क्या लोग भी ऐसा मानते हैं, खासकर ऐसी स्थिति में जब बंगाल के शहरी और ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी की दर राष्टï्रीय औसत से बहुत ज्यादा है।
उत्तर 24 परगना जिले के पारीपत गांव के विश्वनाथ मुखर्जी कहते हैं, 'हमें सब्सिडी वाले चावल और मुफ्त की साइकिल नहीं चाहिए। ये बातें बहुत हो चुकी हैं। हमें रोजगार चाहिए जिससे हम अपनी क्रय शक्ति बढ़ाकर खुद इन चीजों को खरीद सकें।'
पश्चिम बंगाल को रोजगार चाहिए और यह तभी होगा जब राज्य में औद्योगीकरण की बहाली होगी और निवेशकों के अनुकूल माहौल होगा। वामपंथी सरकार ने इस मोर्चे पर ज्यादा कुछ नहीं किया। विडंबना यह है कि उसकी जगह आई सरकार उससे ज्यादा लोकलुभावन और धुर वामपंथी नीतियों में विश्वास करती है। कोलकाता के राजनीति विज्ञानी सव्यसाची बसु राय चौधरी का कहना है, 'बंगाल की राजनीति में दीर्घकालिक विकल्प बनने के लिए तृणमूल कांग्रेस को खुद को नए सिरे से तैयार करना होगा।' लेकिन वह साथ ही कहते हैं कि पार्टी ने धुर वामपंथी कार्यक्रमों को अपनाकर चुनावी सफलता का स्वाद चख लिया है और अब उसके लिए इससे पीछे हटना आसान नहीं होगा।
भ्रष्टïाचार की उपेक्षा?
राज्य में अंतिम चरण का मतदान गुरुवार को होने जा रहा है और यह भ्रष्टïाचार पर मतदाताओं का फैसला सुनाएगा। अभी तक तो ऐसा लग रहा है कि इन चुनावों में भ्रष्टïाचार कोई बड़ा मुद्दा नहीं बन पाया है। 2014 के आम चुनावों से कुछ ही महीने पहले शारदा घोटाला सामने आया था जिससे करीब 17 लाख निवेशक और सैकड़ों ब्रोकर और एजेंट प्रभावित हुए थे। इन पोंजी स्कीम में तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं पर आरोप लगे थे लेकिन पार्टी ने आम चुनावों में शानदार प्रदर्शन किया।
विश्लेषकों का कहना है कि तृणमूल ने इस स्थिति को बेहतर ढंग से संभाला जिससे उसे राजनीतिक नुकसान नहीं हुआ। करीब 200000 निवेशकों को वित्तीय सहायता दी गई। राज्य की राजनीति में नजर रखने वाले दिल्ली के एक विश्लेषक कहते हैं, 'मुझे याद है कि प्रभावित एजेंट कोलकाता में तृणमूल के मुख्यालय पर आते थे और वहां धरना देते थे। लेकिन पार्टी उन्हें और उनके जरिये जमाकर्ताओं को यह समझाने में कामयाब रही कि उनके हितों का पूरा ध्यान रखा जाएगा। तृणमूल ने इसका दोष पिछली सरकार पर मढ़कर खुद को इस संकट से बाहर निकाल लिया। मतदाताओं ने नई सरकार को शंका का लाभ दिया।'
एक स्टिंग में तृणमूल के कुछ नेता काम कराने के लिए कंपनियों से पैसा लेते दिखे थे और विश्लेषकों का कहना है कि इस प्रभाव चुनावों में देखने को मिलेगा। दिल्ली के विश्लेषक कहते हैं, 'नारद घोटाले का असर तृणमूल कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में देखने को मिला है। ममता पहले इनकार की मुद्रा में थी और अब वह बचाव की मुद्रा में आ गई हैं। पार्टी के कुछ नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया है कि यह पैसा व्यक्तिगत फायदे के लिए नहीं लिया था। चुनाव के बाद भी इन बातों का असर देखने को मिल सकता है।'
मतदाताओं के लिए ममता बनर्जी का परिवर्तन का मुद्दा ज्यादा अहम है। नादिया जिले में प्लासी की लड़ाई के ऐतिहासिक मैदान के करीब ताश के पत्तों का खेल देख रहे अंसार शेख कहते हैं, 'तृणमूल ने वादे ज्यादा किए लेकिन काम बहुत कम किया। हमें उसका यह काम नजर नहीं आ रहा है। मैं शारदा और नारदा से वाकिफ हूं। लेकिन वोट देने से पहले मैं अपने आप से सवाल करूंगा कि क्या पिछले पांच साल में मेरे जीवन में कोई बदलाव आया है।'
वामपंथियों और तृणमूल के खिलाफ गुस्सा
राज्य में घूमने और लोगों से बात करने पर आपको पता लगता है कि तृणमूल के प्रति उनका कुछ मोहभंग हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि पार्टी ने अपने वादों को पूरा नहीं किया। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मतदाताओं का झुकाव वामपंथियों की तरफ है। कभी एकदूसरे के धुर प्रतिद्वंद्वी रहे वामपंथी दलों और कांग्रेस के गठबंधन को लेकर लोगों के मन में संदेह है।
बीरभूम जिले के नरूर मार्केट में एक मुस्लिम व्यापारी कहते हैं, 'हम वामंपथी शासन की ज्यादतियों को नहीं भूले हैं। लेकिन तृणमूल सरकार से भी खुश नहीं हैं क्योंकि उसने भी पिछले पांच साल कमोबेश यही किया। हमारे पास कोई विकल्प नहीं है।' नरूर में साल 2000 से हिंसक राजनीतिक संघर्ष की कई घटनाएं हुई हैं जिसमें कई लोग मारे गए।
विश्लेषकों का कहना है कि ऐसे हालात में एक वैकल्पिक राजनीतिक ताकत भारतीय जनता पार्टी के पास फायदा उठाने का मौका था। लेकिन कुछ झंडों और पोस्टरों को छोड़ दें तो पार्टी की वहां ऐसी मौजूदगी नहीं दिखती है जिससे लगे कि वह मतदाताओं का दिल जीतने में कामयाब रही है। इकनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में लिखने वाले सुमंत बनर्जी कहते हैं, 'भाजपा कुछ सीटें जीत सकती हैं लेकिन राज्य में अभी वह निर्णायक ताकत नहीं है।' 2014 के आम चुनावों में भाजपा ने 17 प्रतिशत मतों के साथ पश्चिम बंगाल में दो सीटें जीती थीं। पार्टी 22 विधानसभा क्षेत्रों में पहले स्थान पर थी और 11 में दूसरे स्थान पर। फिर पार्टी इसे आगे बढ़ाने में नाकाम क्यों रही? रजत रॉय कहते हैं, 'कुछ मौकों को छोड़ दिया जाए तो भाजपा राज्य में केवल चार-पांच प्रतिशत वोट ही हासिल कर पाई है।' आजादी के पहले के दौर से अविभाजित बंगाल के जमाने से पश्चिम बंगाल में हिंसक सांप्रदायिक दंगों का इतिहास रहा है। 1946 के दंगों को 'टाइम' पत्रिका ने 20 शताब्दी का सबसे भयावह दंगा बताया था। इन दंगों में तीन दिन में 10,000 लोग मारे गए थे। 1946 से 1950 के बीच कई दंगे हुए थे। लेकिन तबसे राज्य में अपेक्षाकृत शांति का माहौल है। राय चौधरी कहते हैं, 'मेरा मानना है कि 1946 से 1950 की घटनाएं अपवाद थीं।'
कुमार राणा का कहना है कि राज्य में सांप्रदायिक सद्भाव का कारण यह है कि मुस्लिम गरीब हैं और ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। दूसरे लोग उनकी मौजूदगी में असुरक्षित महसूस नहीं करते हैं। उन्होंने कहा, 'दूसरा कारण यह है कि राज्य के मुसलमान खुद को पहले बंगाली मानते हैं और फिर मुसलमान।'
पर्यवेक्षकों का कहना है कि पश्चिम बंगाल में दोनों संप्रदायों के बीच दशकों से जिस तरह का संबंध बना है उसे देखते हुए दक्षिणपंथी ताकतों के लिए चुनावी सफलता हासिल करना मुश्किल हो रहा है। दिल्ली के विश्लेषक कहते हैं, 'यहां तक कि बंगलादेश से पलायन और जनसंख्या में बदलाव की आशंका राज्य में कोई मुद्दा नहीं है क्योंकि पलायन अब बहुत कम हो गया है।' भाजपा इन चुनावों में सीमापार से घुसपैठ के बजाय पशुओं की तस्करी को मुद्दा बना रही है।
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