वित्तीय व्यवस्था और भूरणनीतिक क्षेत्र में उपजे नए जोखिमों ने वैश्विक हलचल पैदा की है। इस बारे में विस्तार से बता रहे हैं क्लॉड समद्जा
आखिर चल क्या रहा है? शेयर बाजार और वित्तीय बाजार साल की शुरुआत से ही संकट में हैं। बाजार में एक अजीब आपाधापी का माहौल है जिसकी इकलौती ठोस आर्थिक वजह चीन की मंदी के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था के समक्ष उपजी चुनौतियों को ही ठहराया जा सकता है। हालांकि चीन की मंदी के प्रभाव को लेकर भी जितना शोर हो रहा है शायद उसका प्रभाव उतना घातक नहीं हो। इस बीच जहां अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेत नजर आ रहे हैं वहीं उभरते बाजारों में वृद्घि दर धीमी है और उनके वित्तीय क्षेत्र में तनाव महसूस किया जा सकता है। इस बीच परेशानियों का जो जिक्र है उसे थोड़ा अतिरंजित प्रतिक्रिया माना जा सकता है क्योंकि अंतरराष्टï्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) का हालिया वैश्विक आर्थिक पूर्वानुमान जोखिम की चेतावनी अवश्य देता है लेकिन अब उसने वृद्घि दर के अनुमानों में सुधार किया है। आईएमएफ के मुताबिक वर्ष 2015 में वैश्विक अर्थव्यवस्था 3.1 प्रतिशत, 2016 में 3.4 प्रतिशत और 2017 में 3.6 प्रतिशत रहेगी। उभरते बाजारों के लिए उसने अनुमान गत वर्ष के 4 प्रतिशत से सुधार कर इस वर्ष 4.3 प्रतिशत और 2017 के लिए 4.7 प्रतिशत कर दिया है।
समस्या यह है कि पारंपरिक विश्लेषण या अनुमान आज केवल तस्वीर का एक ही पहलू पेश करते नजर आते हैं। उनमें वे कारक शामिल नहीं होते जो पूरी तरह आर्थिक प्रणाली से परे होते हैं। उदाहरण के लिए आज तेल कीमतों में जबरदस्त कमी है और अब तक इसे उन देशों के लिए बहुत बेहतर माना जाता रहा है जो तेल का उत्पादन नहीं करते हैं। लेकिन विकसित देशों के उपभोक्ता इससे अप्रभावित और उदासीन हैं। अब चिंता यह पैदा हो गई है कि कहीं इसकी वजह से अपस्फीति का वह रुझान न पैदा हो जिसने यूरोप और जापान को लंबे समय तक गिरफ्त में रखा। यूरोप की बात करते हुए इस बात पर आश्चर्य होता है कि शून्य के करीब ब्याज दर, अत्यंत कम तेल कीमतों, अवमूल्यित यूरो और खर्च कटौती नीतियों में ढील शुरू होने के बाद भी आखिर ऐसी कौन सी दिक्कत है जिसके चलते यूरो क्षेत्र ऐसी वृद्घिदर हासिल कर पाने तक में नाकाम है जो फ्रांस, इटली, स्पेन, पुर्तगाल या फिनलैंड की बढ़ती बेरोजगारी दर को प्रभावित करने में सफल हो सके। ग्रीस की तो फिलहाल चर्चा ही बेकार है। वह भयंकर मंदी के दौर से गुजर रहा है। हौसले की कमी और नकारात्मक वृद्घि की आशंका केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। हमें इस आम धारणा पर भी विचार करना होगा कि भूराजनैतिक क्षेत्र में भी अस्थिरता और जोखिम लगातार बढ़ रहा है। इतना ही नहीं हम विडंबनाओं के एक अलग युग में प्रवेश कर गए हैं: एक ओर वैश्विक स्तर पर दुनिया द्वितीय विश्वयुद्घ के बाद लगातार सुरक्षित हुई है क्योंकि परमाणु संघर्ष की आशंकाएं बहुत सीमित रह गई हैं। वहीं दूसरी ओर दुनिया में बिखराव बढ़ा है। क्षेत्रीय और स्थानीय संघर्ष बढ़े हैं। इस बीच आतंकवाद के खतरे ने वैश्विक स्तर पर असुरक्षा को जन्म दिया है।
दो कारक इस नए परिदृश्य को स्पष्टï करते हैं: शीत युद्घ के दौर में पूर्व और पश्चिम के संघर्ष के दौरान क्षेत्रीय और स्थानीय विवाद सीमित रहते थे क्योंकि दोनों महाशक्तियों में से कोई भी परिस्थितियों को नियंत्रण से बाहर होने देना नहीं चाहती थी। वे नहीं चाहती थीं कि वैश्विक यथास्थिति प्रभावित हो। शीतयुद्घ समाप्त होने के बाद और अमेरिका की सैन्य विवादों में सीधे शामिल होने की नीति बदलने के बाद हालात बदल गए हैं। अब क्षेत्रीय विवाद तेजी से फलफूल रहे हैं। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि राज्येतर कारक भी अंतरराष्टï्रीय परिदृश्य को प्रभावित कर रहे हैं और वैश्विक स्थिरता के लिए एक बड़ा जोखिम पैदा कर रहे हैं।
बहरहाल, मौजूदा हालात में जो हड़बड़ी व्याप्त है उसके पीछे अस्थिर भू राजनैतिक और आर्थिक माहौल जिम्मेदार नहीं है बल्कि यह चिंता जिम्मेदार है कि हम पर इस नए परिदृश्य की चुनौतियों से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो विभिन्न देश अपने समक्ष उत्पन्न चुनौतियों के हल तलाशने में जिस तरह नाकाम रहे हैं उसका प्रभाव उन देशों के राजनेताओं में लोगों के भरोसे पर भी पड़ा है। इसके चलते सरकार, कारोबार, मीडिया और तमाम संस्थानों में विश्वास कमजोर हुआ है।
आर्थिक मोर्चे पर कई कारोबारी और राजनीतिक नेताओं के मन में यह प्रश्न उठ रहा है कि क्या हमारे सामने वृद्घि का एक नव सामान्य दायरा है? क्या मंदी के अगले दौर से निपटने के लिए हमारे पास कोई नया उपाय बचा है? क्या आर्थिक प्रोत्साहन के जरिये अर्थव्यवस्था में नकदी बढ़ाने का तरीका यूरोप और जापान में विफल नहीं हो चुका है? क्या कोई कॉर्पोरेट डिफॉल्ट हमें बुरी तरह प्रभावित कर सकता है या फिर क्या चीन के आर्थिक या वित्तीय आंकड़ों का कोई स्याह पहलू अचानक बाजार में अफरातफरी ला सकता है?
भूराजनैतिक क्षेत्र में भी हमें कोई बेहतर भविष्य नहीं नजर आ रहा है। इस क्षेत्र में नए तरह के जोखिम और विवाद उभरते नजर आ रहे हैं जहां विभिन्न किस्म संगठनों के हित आधारित गठजोड़ कहीं अधिक विनाशकारी परिस्थितियां तैयार कर सकते हैं। इसमें राज्येतर कारकों की भूमिका स्पष्टï है। जरा सोचिए कि आईएसआईएस क्या कुछ करने में सफल साबित हुआ है और किस तरह साइबर हमलों में सक्षम लोगों का एक छोटा सा समूह भी आज बहुत बड़ी समस्या खड़ी कर सकता है।
इस अस्थिर परिदृश्य में सुन्नी-शिया संघर्ष पहले के मुकाबले ज्यादा है और यही सऊदी अरब और ईरान के विवाद की जड़ है। सीरिया युद्घ के प्रभाव से सभी वाकिफ हैं। उधर व्लादीमिर पुतिन के नेतृत्व में रूस ने भी दमदारी से अपनी स्थिति मजबूत की है। यूरोप का भूराजनैतिक अस्तित्व अब प्रवासी संकट से जूझ रहा है। चीन की स्थिति ने भी परिदृश्य को बदला है। अब वह अमेरिका के साथ बराबरी पर समझौते का इरादा रखता है। ये सारी बातें जोखिम के नए जरिये लेकर आई हैं। न केवल इनके बारे में अनुमान जताना कठिन है बल्कि इनका प्रबंधन भी आसान नहीं है क्योंकि तमाम बहुपक्षीय संस्थान इतने मजबूत नहीं किए जा सके हैं कि वे ऐसे संघर्ष को निपटा सकें। इतना ही नहीं अमेरिकी राजनीतिक व्यवस्था की निष्क्रियता इसमें और इजाफा कर रही है। वैश्विक घटनाओं को आकार देने की अमेरिका की क्षमता कम हो रही है और वह सैन्य संघर्षों में शािमल होने का भी इच्छुक नहीं नजर आ रहा है। ऐसे में समझा जा सकता है कि वैश्विक स्तर पर वहां नेतृत्व का किस कदर अभाव नजर आ रहा है जबकि फिलवक्त उसकी सबसे अधिक आवश्यकता है।
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