दुनिया के सबसे कुख्यात अपराधियों में से एक चाल्र्स शोभराज के जीवन पर आधारित दो घंटे की फिल्म 'मैं और चाल्र्स' में अगर निर्देशक प्रवाल रमन काल्पनिकता का पुट ज्यादा न देते तब भी अच्छा ही होता। चाल्र्स शोभराज ने सीरियल किलर होने का अपना अपराध स्वीकार भी किया था। फिल्म के दो हिस्सों के बीच की सीमाएं एकदम स्पष्ट दिखती हैं। फिल्म के पहले हिस्से की थोड़ी उलझी पटकथा दूसरे हिस्से में थोड़ी स्पष्टता के साथ विस्तार पाती है। फिल्म के मुख्य किरदार भी पहले घंटे में नजर आने के लिए काफी मशक्कत करते दिखते हैं और बाद में उनके असली किरदार का विस्तार दिखता है।फिल्म की शुरुआत थाइलैंड के समुद्री तट पर बिकनी पहनी हुई एक मृत महिला के पाए जाने से होती है। यह औरत भी चाल्र्स शोभराज (रणदीप हुड्डा) की शिकार बनी कई औरतों में से एक थी जो भारतीय और वियतनामी माता-पिता की संतान और अव्वल स्तर का फ्रांसीसी अपराधी और चोर था। 1968 के थाइलैंड से सीन बेहद तेजी से 1975 के नई दिल्ली में तब्दील हो जाता है जहां शोभराज की 1976 में गिरफ्तारी हो जाती है और उसके बाद वह तिहाड़ जेल में बंद हो जाता है। तिहाड़ जेल से भागने में कामयाब होने के 10 सालों के बाद वह दोबारा गोवा में पकड़ा जाता है। फिल्म में जब इतने सारे घटनाक्रम को एक साथ दिखाना हो तो सिनेमाई अंदाज में ही सही दर्शकों के लिए कोई संकेतक जरूर होना चाहिए लेकिन इस फिल्म में उसका अभाव होने की वजह से आप कुछ देर के लिए चकरा सकते हैं।मंद रोशनी वाली सलाखें, हिप्पियों से भरे गोवा के चमकीले और आकर्षक तट, शानदार होटल के कमरे जैसे दृश्यों का सिलसिला चलता ही रहता है जो सत्य घटनाक्रम के नाटकीय फिल्मांकन से भी कहीं ज्यादा नाटकीय नजर आता है और इस दौरान शायद उस बारीक फर्क के बारे में ज्यादा नहीं सोचा गया है जिसकी वजह से एक क्राइम थ्रिलर विश्वसनीय बन पाता है। हालांकि इन सभी बाहरी चमक-दमक के भीतर हुड्डïा अपने किरदार में बेहद सधे हुए आधे फ्रांसीसी दिखते हैं, उनका अंग्रेजी का उच्चारण, बिना ज्यादा कोशिश वाली अदाकारी की सलाहियत, चुप्पी साधने वाले रहस्यमयी होंठ, धीमी मुस्कराहट और उनके डरावने बर्ताव पर सबका ध्यान जाता है।बेहतर अदाकारी की मिसाल यह है कि शोभराज का किरदार निभाते हुए हुड्डïा ने जैसे खुद को ही पीछे छोड़ दिया हो और इसी वजह से थोड़ी हमदर्दी जगती है। लेकिन एक घंटा बीतने के बाद हम सारी चमक-दमक से दूर सिर्फ हुड्डा की अदाकारी को देखने लगते हैं। शोभराज के तिहाड़ जेल से भागने और उसके बाद के घटनाक्रम को देखते हुए फिल्म का शीर्षक मुफीद लगता है। शोभराज अपने गार्ड को कस्टर्ड खिलाकर बेहोश कर जेल से भाग निकलता है और उस दृश्य के बाद सभी ढीले दृश्यों में एक कसावट आने लगती है और उसके बाद ही 'मैं और चाल्र्स' का 'मैं' किरदार बड़ी प्रमुखता से उभरता है। गंभीर दिखने वाले आदिल हुसैन ने दिल्ली पुलिस प्रमुख आमोद कंठ की भूमिका निभाई है जो शोभराज के शातिर और कुटिल तरीकों के बीच एक संतुलन बिठाते नजर आते हैं। हालांकि एक क्रिमिनल लॉ छात्र के रूप में ऋचा चड्ढïा का किरदार उतना महत्त्वपूर्ण नहीं बन पाया जो शोभराज के आकर्षण में पड़कर उसके जुर्म में साझेदार बनती है।फिल्म के अंत में ही दो विपरीत ताकतें 'मैं और चाल्र्स' एक-दूसरे के सामने आते हैं और तब फिल्म अपने मकसद को मुकम्मल करती हुई दिखती है। अंधेरे कमरे में छन कर आती सूरज की रोशनी में कंठ की आंखों में गुस्से को साफतौर पर महसूस किया जा सकता है जब उन्हें पता चलता है कि शोभराज का जेल से भागना जेल की सजा का विस्तार करने की एक चाल थी ताकि वह प्रत्र्यपण और थाइलैंड में फांसी की सजा से बच सके। इस फिल्म में कुछ अच्छे दृश्य बन पड़े हैं लेकिन वे आपको पहले घंटे में शायद ही दिखे और उसके लिए आपको फिल्म के दूसरे हिस्से का इंतजार करना पड़ेगा। अपराधी-सेलिब्रिटी से यह दुनिया वाकिफ है जो टीवी स्क्रीनों पर अपना करिश्मा दिखाते हैं। हालांकि कुछ वक्त के लिए यह छवि बदलती हुई दिखती है और इसके लिए हुड्डा का शुक्रगुजार होना चाहिए।
