अपनी प्रतिभा से पूरी दुनिया को चमत्कार दिखाते देसी कलाकार | मीडिया मंत्र | | वनिता कोहली-खांडेकर / October 30, 2015 | | | | |
इस साल सितंबर में एबीसी चैनल पर एफबीआई के तानेबाने पर बुनी कहानी को लेकर 'क्वांटिको' धारावाहिक की शुरुआत हुई, जिसमें प्रियंका चोपड़ा मुख्य किरदार में हैं। अमेरिका में अधिकांश समीक्षक इस कार्यक्रम की कहानी और उसमें खामियों का छिद्रान्वेषण कर रहे हैं। मगर इस बात पर किसी ने सवाल नहीं उठाया कि मुख्य किरदार के तौर पर एक भारतीय कलाकार को क्यों चुना गया? इसी तरह इरफान खान भी मुख्यधारा की कई अंतरराष्ट्रीय फिल्मों का हिस्सा बने हैं, जिनमें द अमेजिंग स्पाइडरमैन (2012), लाइफ ऑफ पई (2012), जुरासिक वल्र्ड (2015) और इनफर्नो (यह 2016 में रिलीज होगी) के नाम प्रमुख हैं। ए आर रहमान ने भी एंड्रयू लॉयड वेबर की बॉम्बे ड्रीम्स के लिए संगीत रचा, लंदन फिलहार्मोनिक ऑर्केस्ट्रा और मिक जैकर के लिए भी काम किया।
मरहूम रोजर एबर्ट ने वर्ष 2012 में सप्ताह भर चलने वाले अपने सालाना फिल्म समारोह में शिरकत करने के लिए नवाजुद्दीन सिद्दीकी को आमंत्रित किया था। एबर्ट अमेरिका के कद्दावर फिल्म समीक्षकों में माने जाते थे। सिद्दीकी की अंतरराष्टï्रीय फिल्मों में निकोल किडमैन अभिनीत लॉयन का नाम लिया जा सकता है।
मुख्यधारा के हॉलीवुड, ब्रिटिश और कनाडाई सिनेमा में भारतीय प्रतिभाओं की बढ़ती स्वीकार्यता उल्लेखनीय है क्योंकि जिन बाजारों में ये फिल्में बनाई जा रही हैं या जहां से वे ज्यादा कमाई करती हैं, वहां उन्हें लेकर बहुत ज्यादा चर्चा नहीं। यह भारतीय सिनेमा और उसकी प्रतिभाओं के धीरे-धीरे वैश्वीकृत होते स्वरूप की ओर संकेत करता है, जो कई कारकों का नतीजा है। एक तो वही पुराना तर्क है कि 'भारत तेजी से बढ़ती हुई एक बड़ी अर्थव्यवस्था है और तमाम सफल भारतीय दूसरे देशों में बसे हुए हैं।' मगर मेरे ख्याल से इसकी असल वजह भारतीय फिल्मों के बाजार के विस्तार के साथ-साथ उसकी असाधारण सृजनात्मक, रचनात्मक और व्यावसायिक अपील है।
यह 1970 के दशक की बात है, जब कबीर बेदी और परसिस खंभाटा जैसे देसी कलाकार हॉलीवुड में किस्मत आजमाने गए। बेदी जहां जेम्स बॉन्ड की फिल्म 'ऑक्टोपसी' (1983) में भूमिका पाने के अलावा 1977 की एक लोकप्रिय टेलीविजन शृंखला सैंडोकन में भूमिका पाने में सफल रहे। वहीं खंभाटा 'स्टार ट्रेक' (1979) और 'नाइटहॉक्स' (1981) में नजर आईं। मगर व्यापक रूप से देखा जाए तो भारतीय सिनेमा और उसकी प्रतिभाएं स्थानीय बाजार पर ही केंद्रित रहीं। रचनात्मक और वित्तीय पैमाने पर यह देसी फिल्म उद्योग के लिए मुश्किल दौर था।
उदारवाद के बाद ट्वेंटीफस्र्ट सेंचुरी फॉक्स (स्टार इंडिया) और सोनी की टेलीविजन शाखाओं के भारत में आगमन तथा जी और सन जैसी स्थानीय कंपनियों द्वारा दिखाई गई जबरदस्त वृद्घि ने मनोरंजन को लेकर उन्मादी बाजार की संभावनाओं को दर्शाया। उसके बाद जल्द ही फिल्म कारोबार को उद्योग का दर्जा मिल गया और कुछ राज्यों में मल्टीप्लेक्सों को करों में रियायत मिलने लगी। मल्टीप्लेक्सों और सिंगल स्क्रीन थियेटरों में डिजिटलीकरण की बयार से टिकटों का कंप्यूटरीकरण होने लगा, जिससे पारदर्शिता आई। फिल्मों की कमाई में घपले के बजाय पूरी वसूली होने लगी। लगभग मरणासन्न हो चले फिल्म उद्योग का राजस्व एक दशक के दौरान ही तकरीबन तीन गुना बढ़ गया। इससे फिल्म उद्योग में सृजन की एक नई बयार बहने लगी, जैसी उसमें 1950 के दशक से पहले स्टूडियो ढांचे के ढहने से पहले बहा करती थी। इस बीच 'जॉनी गद्दार' (2007), 'काई पो चे', 'विकी डॉनर', 'ओह माई गॉड' (2012), 'द लंचबॉक्स' (2013), 'मैरी कॉम' (2014) और 'तलवार' (2015) जैसी फिल्मों की बढ़ती तादाद अच्छी कहानियों और उन्हें कहने के बेहतरीन तरीके की ओर संकेत करती हैं। तमाम अंतरराष्टï्रीय फिल्म समारोहों में भारत के नाम के साथ भरोसा जुड़ता जा रहा है।
इस पर भी गौर करना होगा कि भारत, चीन और कोरिया जैसे चुनिंदा बाजार ही हैं, जहां स्थानीय फिल्म उद्योग हॉलीवुड से उतना प्रभावित नहीं हुआ। हालांकि चीन और यहां तक कि फ्रांस के उलट भारत में विदेशी फिल्मों के आयात पर किसी तरह की कोई सीमा तय नहीं है। सिनेमा के लिए राज्य का कोई सहयोग नहीं है। फिर भी एक दशक के दौरान भारतीय बॉक्स ऑफिस पर हॉलीवुड फिल्मों की हिस्सेदारी पांच से आठ फीसदी के बीच बनी हुई है। उस पर भरोसा बढ़ रहा है और उसका आकार भी लगातार बढऩे पर है, जिसके लिए डिज्नी और वॉर्नर ब्रदर्स जैसे स्टूडियो काफी मशक्कत कर रहे हैं, जिन्होंने स्थानीय फिल्मों के निर्माण के लिए 2008 में प्रोडक्शन स्टूडियो शुरू किया।
इस वित्तीय रूप से मजबूत, आत्मविश्वास से ओतप्रोत और प्रगतिशील सोच वाले भारतीय उद्योग के लिए निकल रहे सृजनात्मक मुहावरे पूरी तरह उसके हैं। इसी मुहावरे के चलते 'मिस लवली' (2012), 'पीकू' (2015) और 'कोर्ट' (2014) जैसी तमाम फिल्में बन रही हैं। यह इसी चलन का नतीजा है कि चोपड़ा और खान जैसे सितारों को उनकी प्रतिभा के दम पर ही हॉलीवुड में चुना जा रहा है क्योंकि वे उन भूमिकाओं के लिए मुफीद हैं, न कि इसलिए कि वे भारतीय हैं या हॉलीवुड फिल्में भारत में बढिय़ा कमाई करती हैं।
तमाम रचनात्मक लोगों की तरह आप भी तर्क दे सकते हैं कि आखिर पश्चिम की स्वीकृति के लिए ही क्यों लालसा रहती है। मगर जैसे सॉफ्टवेयर या तकनीकी सेवाओं की वैश्विक प्रतिस्पर्धा और जीत से आर्थिक और भावनात्मक सुखद एहसास जुड़ा होता है, यह भी उसी तरह का काम करता है। चोपड़ा और रहमान जैसे लोग बेहद प्रतिस्पर्धी वैश्विक मनोरंजन बाजार में भारत को गर्वान्वित करते रहेंगे। वह निश्चित रूप से जश्न मनाने वाली बात है।
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