खाद्य मुद्रास्फीति में पिछले कुछ महीनों के दौरान लगातार गिरावट देखने को मिली लेकिन अब एक बार फिर उसमें तेजी आने की आशंका बलवती हो रही है। अपेक्षाकृत कमजोर मॉनसून में खाद्य मुद्रास्फीति की इस सहजता में दालें एक अपवाद की तरह रही हैं। तुअर दाल ने सबसे अधिक चोट पहुंचाई है। बीते सप्ताहों के दौरान तुअर दाल की कीमतें बढ़कर 200 रुपये प्रति किलोग्राम तक के स्तर पर पहुंच गईं। इसकी वजह से देश भर में निराशा का माहौल बना। सरकार इससे निपटने के लिए कुछ कदम उठा रही है और उसकी वजह से कीमतों का दबाव कुछ कम हो सकता है। यह स्वागतयोग्य है लेकिन इसके स्थायित्व के बारे में कई सवाल उठ सकते हैं। अगर तुअर दाल की कीमतों में काफी कमी आ जाती है लेकिन अगर कुछ महीनों तक कीमतें 100 रुपये प्रति किलोग्राम से ऊपर के स्तर पर बनी रहती हैं (यद्यपि यह भी दूर की कौड़ी है) तो भी इसका लोगों के बीच अच्छा संदेश नहीं जाएगा। इससे निपटने के लिए और अधिक स्थायी हल तलाश करने होंगे।
इस संकट की स्थिति में उन कदमों को उचित ठहराया जा सकता है जो वास्तविक आपूर्ति और लगातार तेज बनी कीमतों को तत्काल प्रभावित कर सकें। उदाहरण के लिए आयात बढ़ाने को समझदारी माना जा सकता है। इसके अलावा स्टॉक की सीमा बढ़ाने जैसे कदम उठाने से भी इसमें मदद मिल सकती है। बहरहाल, यह भी मानना होगा इन सभी कदमों का समेकित असर यह होगा कि थोड़े समय में ही हजारों टन दाल का भंडार हो जाएगा। खरीफ की फसल में काफी कमी का अनुमान लगाया जा रहा है और वह भी कीमतों में बढ़ोतरी के लिए जिम्मेदार है।
अगर ऐतिहासिक तुलना की जाए तो पिछली बार तुअर दाल की कीमतों में ऐसी बढ़ोतरी वर्ष 2009 और 2010 में देखने को मिली थी। उस वक्त लगातार तीन साल तक तुअर का उत्पादन अपने उच्चतम स्तर से हजारों टन कम रहा था। अगर एक बार फिर वही स्थिति दोबारा बन रही है तो दाल की कीमतों को थामने के तमाम प्रयासों की सफलता अगले वर्ष दक्षिण पश्चिम मॉनसून के प्रदर्शन पर निर्भर करेगी। यह निश्चित तौर पर जोखिम भरी स्थिति है।
दालेें देश में प्रोटीन का सबसे अहम जरिया हैं और इनकी कीमतों में अक्सर होने वाली इस बढ़ोतरी की समस्या से निपटने के लिए जिस ढांचागत उपाय की जरूरत है उससे नजरें नहीं चुराई जा सकती हैं। इसके अलावा तमाम दालों में तुअर दाल सबसे ज्यादा इस्तेमाल में लाई जाती है और आम परिवारों के आय के स्तर में हो रही बढ़ोतरी के साथ-साथ इसकी मांग में भी बढ़ोतरी हो रही है। इस समस्या से निपटने की नीति के चार अहम तत्त्व हैं।
पहला, ऐसी जमीन में काफी बड़े रकबे पर दाल की बुआई की जाए जो दालों की खेती के लिए उपयुक्त हो। उन प्रोत्साहनों को समाप्त किया जाए जिनके चलते ऐसी जमीन पर दूसरी फसलें बोई जाती हैं। दूसरा, जमीन की उर्वरता जो काफी समय से ठिठकी हुई है उसे बढ़ाने के लिए ठोस उपाय किए जाने चाहिए। गौरतलब है कि पिछले दो दशक से उर्वरता कमोबेश एक ही स्तर पर है। तेजी से बढ़ती मांग से निपटने के लिए ऐसा करना ही होगा। तीसरा, तुअर दाल के संरक्षण और भंडारण के लिए नए-तरीके तलाश करने होंगे। इसके लिए एक समर्पित और पर्याप्त वित्त पोषण वाला शोध कार्यक्रम चलाना होगा। आखिर में सरकार को दालों के निर्यात का अधिक संगठित और बेहतर तरीका विकसित करना होगा। जमीन की प्रचुरता वाले देशों में अनुबंधित खेती की संभावनाओं को तलाशा जाना एक विकल्प हो सकता है।
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