प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि सुभाष चंद्र बोस से संबंधित उन 41 फाइलों को आगामी 23 जनवरी को सार्वजनिक कर दिया जाएगा जो अब तक केंद्र सरकार के पास थीं। इसके बाद उस लंबे विवाद का पटाक्षेप हो जाएगा जो बोस के 70 साल पहले ताइवान के आकाश में हुई हवाई दुर्घटना के बाद से गायब होने को लेकर छिड़ा रहता है। हालांकि यह फैसला अपने आप में काफी समझदारी भरा है और इसे रेसकोर्स स्थित प्रधानमंत्री आवास पर प्रधानमंत्री और बोस के परिवार के 35 सदस्यों के बीच बहुचर्चित चर्चा के बाद अमल में लाया जा रहा है लेकिन यह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रतिस्पर्धी राजनीति का भी नतीजा है। बनर्जी ने गत माह बोस से संबंधित 64 फाइलों को सार्वजनिक करने का फैसला किया था। इसके बाद केंद्र सरकार पर ऐसा करने का दबाव बढ़ गया था।
यह थोड़ा विचित्र लग सकता है कि केंद्र और राज्य की कार्यपालिका के प्रमुख इस मसले पर समय और ऊर्जा खपा रहे हैं लेकिन बंगाल की राजनीति में बोस का मुद्दा भावनात्मक रहा है। अभी हाल तक उनको मृत कह देने भर पर शारीरिक रूप से या संपत्ति को नुकसान पहुंचाये जाने का खतरा था। वह भी उन लोगों से जो उनकी स्मृति के स्वयंभू संरक्षक बन बैठे हैं। ज्यादा अहम बात यह है कि वर्ष 2016 में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं। बोस के 119वें जन्मदिवस पर दस्तावेजों को सार्वजनिक करके मोदी निस्संदेह प्रदेश में भाजपा की बढ़ती मौजूदगी को और मजबूत करना चाहते हैं।
बहरहाल यह घटना उन कमियों को उजागर करती है जो आजादी के बाद से देश की तमाम सरकारें दस्तावेजों को सार्वजनिक करने के मामले में लगातार करती आई हैं। आखिर इस काम को शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व की तवज्जो क्यों चाहिए? अमेरिका और पश्चिमी यूरोप में ऐसे दस्तावेज 30 साल बाद स्वत: जारी कर दिए जाते हैं। चाहे उस वक्त सत्ता में कोई भी हो। भारत में सार्वजनिक दस्तावेज अधिनियम और नियम कहते हैं कि 25 साल से अधिक पुरानी फाइलें राष्टï्रीय अभिलेखागार भेज दी जाती हैं। लेकिन हताश हो चुके विद्वान बताएंगे कि इस नियम का पालन शायद ही होता हो। निश्चित तौर पर ऐसा करने से घटनाओं का परिपक्व और विस्तृत विश्लेषण बाधित होता है।
उदाहरण के लिए विद्वानों को आज भी चीन के साथ सन 1962 में हुए युद्घ के दस्तावेजों का इंतजार है जबकि इनको सन 1987 में सार्वजनिक कर दिया जाना चाहिए था। उनके पास केवल हेंडरसन ब्रुक्स रिपोर्ट के रूप में ही एक विश्लेषण मौजूद है जिसे ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार नेविल मैक्सवेल ने गत वर्ष लीक किया था। सन 1965 में पाकिस्तान के साथ हुई जंग और लाल बहादुर शास्त्री की मौत से जुड़े दस्तावेज सन 1990 तक सार्वजनिक हो जाने चाहिए थे लेकिन वे अब तक बाहर नहीं आ सके हैं। पाकिस्तान के साथ सन 1971 का युद्घ जिसमें भारत को स्पष्टï जीत हासिल हुई थी, वह अमेरिका में सार्वजनिक दस्तावेज था और उसके फलस्वरूप ही ब्लड टेलीग्राम के रूप में एक नया नजरिया सामने आया। सन 1975 के आपातकाल से जुड़े कागजात सन 2000 में सामने आ जाने चाहिए थे।
भारतीय राजनीति की सबसे अहम घटनाओं में से एक की 40वीं बरसी बीत चुकी है और अब तक उसके बारे में कोई खास विश्वसनीय जानकारी नहीं है। सूचना का अधिकार अधिनियम आने के बाद भी हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया है। दस्तावेजों को हासिल करने से जुड़े कई अनुरोध यह कहकर ठुकराए जा चुके हैं कि वे जनहित में नहीं हैं। भारतीय राजनेता देश के लोकतंत्र के कसीदे पढ़ते हैं लेकिन जब बात दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की आती है तो वे ऐसी चुप्पी दिखाते हैं जिसकी तुलना अधिनायकवादी शासन से की जा सकती है।
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