स्कूलों में शत प्रतिशत शौचालय का दावा हकीकत या छलावा? | जमीनी हकीकत | | सुनीता नारायण / August 31, 2015 | | | | |
गत वर्ष 15 अगस्त को लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक अहम घोषणा की थी। उन्होंने कहा था कि उनकी सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि अगले स्वतंत्रता दिवस तक देश में कोई ऐसा विद्यालय न हो जहां छात्रों एवं छात्राओं के लिए अलग-अलग शौचालय न हों। ठीक एक साल बाद देश के मानव संसाधन मंत्रालय ने कहा है कि उस लक्ष्य को हासिल कर लिया गया है और देश के 261,000 विद्यालयों में 417,000 शौचालय बनाए गए हैं।
यह कोई उपलब्धि नहीं है। खासतौर पर इस बात को देखते हुए कि यह काम कितना महत्त्वपूर्ण है। सच तो यह है कि स्कूलों में ऐसी सुविधाओं की कमी की वजह से विद्यार्थी और खासकर छात्राएं विद्यालयों में पढ़ाई बंद कर घर बैठ जाते हैं। बीमारियों से भी इसका तगड़ा संबंध हैं। यह आधारभूत मानवीय जरूरत है। ठीक उसी तरह जैसे खाना और सांस लेना। मानवीय गरिमा के लिए इसका होना जरूरी है। विद्यालयों में शौचालयों की मौजूदगी बड़े सामाजिक बदलाव की वजह बनती है। इसकी मदद से बच्चे निजी तौर पर साफ-सफाई के सबक सीखते और उस पर अमल करते हैं।
विद्यालयों में शौचालय आने वाले कल के सूचक हैं। ऐसे में यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या वास्तव में हमने लक्ष्य हासिल कर लिया है या यह केवल आंकड़ों की बाजीगरी है। इससे संबंधित प्रश्न यह भी है कि क्या इस तीव्र गति से बने शौचालय काम कर रहे हैं? क्या उनमें पानी आता है, क्या उनकी नियमित साफ-सफाई और देखभाल होती है? अगर इन सबका जवाब हां है, तभी हम अपनी पीठ थपथपा सकते हैं।
सरकार ने 100 फीसदी सफलता का दावा करते हुए कहा कि उसने 151,000 शौचालयों में सुधार कार्य कराया और बाकी नए बनाए। उसकी वेबसाइट पर यह भी लिखा है कि अगर कोई स्वेच्छा से विद्यालयों में शौचालय बनवाना चाहता है तो वह उसे डिजाइन मुहैया कराएगी। हर शौचालय के निर्माण की लागत करीब 80,000 रुपये से 1,30,000 रुपये तक है। इसके अलावा यह भी कहा गया है कि जहां पाइप से पानी पहुंचाने की व्यवस्था न हो वहां हैंड पंप और पानी की टैंकी की जरूरत होगी। इसकी लागत 80,000 रुपये है जबकि देखरेख के लिए हर वर्ष 20,000 रुपये की अतिरिक्त जरूरत होगी। मूल योजना यह थी कि कारोबारी जगत ये शौचालय बनवाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। निजी कंपनियों ने कृपणता दिखाई जबकि सरकारी विद्यालय इस मामले में लक्ष्य प्राप्ति के लिए संघर्षरत हैं।
परंतु असल बाधा धन की कमी नहीं है। पिछली सरकार ने सबको प्राथमिक शिक्षा देने के लिए जो सर्व शिक्षा अभियान शुरू किया था उसमेंं विद्यालयों में बुनियादी सुविधाएं देने के लिए काफी धन की व्यवस्था करने की बात शामिल थी। इनमें शौचालय भी शामिल थे। इस वर्ष फरवरी में सरकार ने इस प्रावधान का विस्तार करके खराब पड़े शौचालयों में सुधार को भी इसमें शामिल किया। सरकार को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उसने इस काम के महत्त्व को कम करके नहीं आंका।
दी गई जानकारी के मुताबिक प्रधानमंत्री कार्यालय ने सप्ताह दर सप्ताह कार्य की प्रगति की निगरानी की। इसकी समय सीमा हर किसी के दिमाग में स्पष्ट थी। मेरे सहयोगियों के आकलन के मुताबिक अगस्त 2014 से मार्च 2015 के बीच हर माह 2,850 शौचालय बनाए गए। जब समय करीब आ गया तो काम की गति भी तेज हो गई। अप्रैल से अगस्त 2015 के बीच हर माह करीब 10,000 शौचालय बनाए गए। सरकार तय समय में लक्ष्य हासिल करना चाहती थी इसलिए उसने गति बढ़ाई। लेकिन इन सब बातोंं के बीच यह सवाल बरकरार है कि क्या शौचालय काम कर रहे हैं? सच कहें तो सरकार की रिपोर्ट में इस बारे मे कोई जानकारी नहीं दी गई है। लेकिन विभिन्न देशों से आने वाली मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक तो हमे पूर्ण सफाई का लक्ष्य हासिल करने में अभी काफी वक्त लगेगा। यहां तक कि विद्यालयों में भी। यह बात कतई चौंकाने वाली नहीं है। यह बताने के लिए पर्याप्त आंकड़े और अनुभव हैं कि केवल ढांचा खड़ा कर देने से शौचालय की उपलब्धता सुनिश्चित नहीं हो जाती। पानी की कमी भी चिंता का विषय है। देश में पानी की जरूरत हैंड पंप, कुओं और आपूर्ति पाइप आदि की मदद से पूरी की जाती है। लेकिन कुएं और हैंड पंप कभी भी सूख जाते हैं जबकि आपूर्ति का पाइप टूट जाता है।
साफ सफाई पर भी यही बात लागू होती है। शौचालय बनाए तो जाते हैं लेकिन या तो उनका कभी इस्तेमाल ही नहीं होता या फिर वे बेकार हो जाते हैं। एक मसला यह भी है कि गंदगी कहां जाती है और उसका निस्तारण कैसे किया जाता है। ऐसे में मानव मल एकत्रित करने के लिए एक ठिकाना बनाना भी सफाई की प्रक्रिया का एक हिस्सा भर है। हमें पता है कि विद्यालयों के शौचालय सफाई की चुनौती का आसान हिस्सा हैं। विद्यालयों में शौचालय बनाने की जगह होती है। वहां स्वामित्व और नियंत्रण स्पष्ट होता है और देखरेख सुनिश्चित की जा सकती है। बहरहाल हमें इसके लिए एक योजना की आवश्यकता है। जब तक ऐसा नहीं होता है मंत्रालय यह नहीं कह सकता है कि लक्ष्य हासिल हो गया है। वास्तव में जो हो रहा है उसका उलटा असर भी हो सकता है। गत वर्ष शौचालयों का निर्माण सर्व शिक्षा अभियान के लिए आवंटित धन से किया गया। लेकिन वर्ष 2015 के बजट में इस मद की राशि कम कर दी गई। अब सवाल यह है कि विद्यालयों में इनकी देखरेख कैसे होगी? इसके लिए जवाबदेह कौन होगा और इसकी रिपोर्ट किसे भेजी जाएगी?
मुझे अब डर यह है कि चूंकि काम को पूरा दिखाया जा रहा है इसलिए यह एजेंडे से बाहर हो जाएगा। इस पर कोई ध्यान नहीं देगा कि आगे न केवल शौचालय बल्कि एक ऐसा शौचालय सुनिश्चित हो जो काम करता हो और जिसकी नियमित सफाई की जाती हो। पूर्ण सफाई का तात्पर्य भी यही है। कम से कम हम अपने बच्चों को इतना तो दे ही सकते हैं।
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