देश की सर्वोच्च खाद्य नियामक संस्था भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकार (एफएसएसएआई) अभी तक पहचान नहीं बना सकी है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब उसने नेस्ले के मैगी नूडल्स को बाजार से वापस लेने का आदेश दिया था। अब उसका यह दावा कई वजहों से विवाद में है। इसमें संदेह नहीं कि नेस्ले ने जिस तरह इस प्रकरण से निपटने की कोशिश की उसके लिए उसकी आलोचना की जानी चाहिए लेकिन अब पता चल रहा है कि उसने पहले ही मैगी को हटाने का फैसला कर लिया था। मगर एफएसएसएआई ने तेजी से कदम उठाए। इस तरह नियामक ने पूरे प्रकरण पर विचार करने के बजाय सख्त छवि बनाने की कोशिश की। इतना ही नहीं मैगी नूडल्स को अब न केवल सिंगापुर और ब्रिटेन की प्रयोगशालाओं ने पाक साफ करार दिया है बल्कि घरेलू प्रयोगशालाओं ने भी ऐसा ही किया है। यह अव्यवस्था उस पूरी अवधि का चरम है जिसमें एफएसएसएआई ने कई जगह निशाने साधे। ये निशाने पहेलीनुमा लेकिन सुर्खी बटोरू थे। मिसाल के तौर पर दुनिया भर में प्रसिद्घ ऑस्ट्रेलियन वाइन ब्रांड जैकब्स क्रीक पर टार्टरिक एसिड मिलाने का आरोप लगाया गया जिसके जवाब में एफएसएसएआई को बॉम्बे उच्च न्यायालय की फटकार सुननी पड़ी। न्यायालय ने एफएसएसएआई का फैसला पलटते हुए कहा कि उसे स्वच्छ एवं पारदर्शी तरीके से काम करना चाहिए। इस तरह एफएसएसएआई को लताड़ सुननी पड़ी।
लेकिन न्यायालय की राय को कई अन्य नियामकों पर लागू किया जा सकता है। भारतीय दवा कंपनियों के शिथिल मानकों के बारे में कई विवादास्पद रिपोर्ट सामने आने (उनमें से कई पर विकसित देशों ने प्रतिबंध लगा दिया और वे बंद हो गई) के बाद देश के दवा नियामक ने केवल इतना कहा कि अमेरिकी मानक भारतीय दवा कंपनियों पर लागू नहीं किए जा सकते क्योंकि तब कोई दवा पास ही नहीं हो पाएगी। वाहन क्षेत्र की स्थिति भी बेहतर नहीं है। यूरोपीय नियामकों ने वर्ष 2014 में पांच नई छोटी भारतीय कारों का परीक्षण किया और उनमें से कोई सुरक्षा मानकों पर खरी नहीं उतरी। लेकिन देश में नियामकों को उससे कोई फर्क नहीं पड़ा। उड्डïयन क्षेत्र की बात करें तो भारतीय बाजार भले ही सबसे बड़ा और तेजी से विकसित होता विमानन बाजार हो लेकिन अमेरिकी संघीय उड्डïयन प्राधिकार ने वर्ष 2014 में उसके सुरक्षा मानक घटा दिए और उसे स्तरहीन करार दिया। अमेरिकी नियामक ने कहा कि भारतीय नियामक के पास इतने लोग नहीं कि सभी विमानों की निगरानी की जा सके।
यह आपातकालीन स्थिति है। जन स्वास्थ्य, सार्वजनिक सुरक्षा और आर्थिक मोर्चे पर विकट स्थिति बनी हुई है। भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है (क्रय शक्ति समता के संदर्भ में सकल घरेलू उत्पाद के आकलन के आधार पर)। लेकिन उसका नियामकीय ढांचा खस्ताहाल है। देश के कानून कागजों पर इतने सख्त हैं कि उनका प्रबंधन करना ही मुश्किल है। लेकिन इन कानूनों का बिना सोचे समझे ढीलाढाला प्रवर्तन किया जाता है और मैगी जैसे विवाद सामने आते हैं। सबसे बुरी बात यह कि इन चीजों को ठीक करना सरकार या कारोबारी जगत के एजेंडे में नहीं नजर आ रहा। इसके बजाय केंद्र और कारोबारी जगत देश के शिथिल नियामकों का बचाव करते हैं। भारत केवल इस डर से कि मुक्त व्यापार में खलल न पड़े, घरेलू कंपनियों के दबाव में दूसरी पीढ़ी के सूचना प्रौद्योगिकी समझौते में भाग नहीं लेता है। वह यूरोप में भारतीय कंपनियों के लिए डाटा सुरक्षा की मांग तो करता है लेकिन देश में आधारभूत निजता अधिकारों के लिए कोई कानून तक नहीं है। इससे पता चलता है कि देश का निजी क्षेत्र कितना अदूरदर्शी है। जब तक वे सही नियमन पर जोर नहीं देंगे। वे कभी वैश्विक दिग्गज कंपनी नहीं बन सकेंगे।
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