नई दिल्ली स्थित अपने आयुर्वेद केंद्र में सुधा अशोकन बैठी हुई हैं। दिल्ली में सुबह की तेज गर्मी है और शैलेश जैन रोहिणी में अपनी छोटी सी क्लिनिक में मरीजों को देखने में व्यस्त हैं। दो मरीज उनके कमरे में बैठे हुए हैं और बहुत से बाहर इंतजार कर रहे हैं। वह एक गुलाबी नोटपैड पर कुछ लिख रहे हैं। उनके पीछे की दीवार पर करीब एक दर्जन दवाउपयोगी पेड़-पौधों के चित्र हैं। करीब 45 साल की एक महिला पेट से संबंधित किसी बीमारी के लिए जैन को दिखाने आई हुई हैं। उनके साथ आया युवा व्यक्ति यह जानना चाहता है कि क्या डॉक्टर जैन उनके गिरते बालों का भी इलाज कर सकते हैं। जैन ने एक हर्बल तेल का नाम लिखा और कागज का यह पुर्जा उसे हाथ में पकड़ा दिया। वह नम्रतापूर्वक कहते हैं, 'इसे कम से कम दो सप्ताह तक लगाओ। अगर इससे मदद नहीं मिलती है तो फिर आना।' जैन पिछले सात वर्षों से आयुर्वेद के पेशे से जुड़े हुए हैं। उनकी छोटी सी क्लिनिक की फीस 300 रुपये है। इसके बाद वह कहते हैं, 'रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आयुुर्वेद सबसे अच्छा प्राकृतिक उपचार है।' पटेल नगर में गगनदीप सिंह की क्लिनिक की भी स्थिति है। क्लिनिक में भी रात 8 बजे भी लोगों की भीड़ लगी रहती है। उन्हें दिखाने के लिए गुडग़ांव तक के मरीज आते हैं। हालांकि क्लिनिक औपचारिक रूप से रात 9 बजे बंद हो जाता है, लेकिन आमतौर पर सिंह मरीजों को देखने के लिए अपने निर्धारित घंटों को बढ़ाते हैं। उनकी दवाएं मरीजों में काफी लोकप्रिय हैं। इन दवाओं में से ज्यादातर क्लिनिक में ही तैयार की जाती हैं। कैंसर, मिरगी, दमा और गठिया जैसी बीमारियों के सफल इलाज के लंबे-चौड़े वादों के कारण आयुर्वेद के बहुत से आलोचक भी हैं। लेकिन क्लिनिकों पर भीड़ से पता चलता है कि यह जनता में अब भी लोकप्रिय है। लेकिन क्या आयुर्वेद का भी वही हश्र हो सकता है, जो आज कुछ आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों का हो रहा है? इससे भी अहम बात यह है कि क्या हमारे पास इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि ये प्राकृतिक दवाएं प्रभावी हैं? देश में आयुर्वेदिक उत्पादों की सबसे बड़ी विनिर्माता कंपनी डाबर में स्वास्थ्य अनुसंधान के प्रमुख जेएलएन शास्त्री कहते हैं कि विज्ञान का इतिहास भलीभांति लिखा हुआ है। देश में 25,000 से ज्यादा प्राचीन पांडुलिपियां उपलब्ध हैं। वह कहते हैं कि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये दवाएं आधुनिक दवाओं की तुलना में बेहतर इलाज करती हैं। यह संपूर्ण स्वास्थ्य प्रणाली है, जो पूरे मानव शरीर में सामंजस्य स्थापित करती है। शास्त्री कहते हैं, 'आयुर्वेद स्वास्थ्य आधारित विज्ञान है, जिसमें कई घटक शामिल हैं।' आमतौर पर अन्य पेशेवर यह कहते हैं कि 6,000 वर्षों से पुरानी यह चिकित्सा पद्धति अपना वजूद नहीं बनाए रख पाएगी। इसकी वजह चाहे अशुद्ध विज्ञान हो या महज नीमहकीमी। आयुर्वेद, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध एवं होम्योपैथी (आयुष) मंत्रालय में आयुर्वेद पर संयुक्त सलाहकार डी सी कटोच तर्क देते हैं, 'पेनिसिलिन की खोज वर्ष 1928 तक नहीं हुई थी। क्या आप यह सोचते हैं कि इससे पहले लोगों का इलाज नहीं होता था?' वह चिकित्सा इतिहास में वैदिक शिक्षण का उल्लेख करते हुए कहते हैं, 'जब दुनिया को पेनिसिलिन का पता चला, उससे पहले लोगों का इलाज प्राकृतिक तरीकों से किया जाता था। फर्क केवल इतना है कि उस समय गुणïवत्ता मानक अलग होते थे।' इस क्षेत्र से जुड़े पेशेवरों का कहना है कि यह प्राचीन चिकित्सा पद्धति है, लेकिन यह आज भी उपयोगी है। दिल्ली के सफदरजंग एनक्लेव में पिछले 25 वर्षों से डॉ. सुधा आयुर्वेद केंद्र का संचालन कर रहीं सुधा अशोकन कहती हैं कि आयुर्वेद ही चिकित्सा पद्धति की ऐसी शाखा है जो आधुनिक जीवनशैली से जुड़ी बीमारियों से निजात दिलाने में मददगार साबित हो सकती है। अशोकन कहती हैं, 'हम इस बात की जांच करते हैं कि एक व्यक्ति के स्वास्थ्य को लंबे समय के लिए कैसे सुधारा जा सकता है।' वह कहती हैं, 'कार्यस्थल पर अत्यधिक दबाव के दौर में आयुर्वेद आपको अपने शरीर को संभालने में मदद करता है।' वह कहती हैं, 'स्पॉन्डिलाइटिस और गठिया के इलाज में केरल की मसाज मरीज को एलोपैथिक दवाओं के मुकाबले जल्दी ठीक होने में मदद करती है।' जीवनशैली से संबंधित रोग बढ़ रहे हैं, इसलिए आयुर्वेद को अपनाने वाले लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। आयुर्वेद में आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के मुकाबले साइड इफेक्ट कम हैं। अनुमानों के मुताबिक कुल भारतीय आयुर्वेद उद्योग करीब 8,000 करोड़ रुपये का है और यह हर साल 10 से 15 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। असंगठित क्षेत्र के छोटे विनिर्माताओं के अलावा संगठित क्षेत्र की बड़ी कंपनियों में डाबर, हिमालया और झंडू शामिल हैं। केरल जैसे राज्यों में आयुर्वेद उद्योग तेजी से फल-फूल रहा है और इनमें छोटे विनिर्माताओं की व्यापक उपस्थिति है। लेकिन अब इस चिकित्सा पद्धति की जांच हो रही है। हालांकि आयुर्वेद यह दावा करता है कि इस चिकित्सा पद्धति में मरीज के शरीर पर कोई दुष्प्रभाव नहीं होते हैं। लेकिन बहुत से शोधार्थियों ने आयुर्वेदिक दवाओं में मिलावट और भारी धातुओं मिश्रण दिखाया है। विभिन्न दवाओं में सीसे, पारे और आर्सेनिक की मौजूदगी की जांच हो रही है। यूएस सेंटर्स फॉर डिजिज कंट्रोल ऐंड प्रीवेंशन की 2012 की एक रिपोर्ट में आयुर्वेदिक दवा से विषाक्तता की बात कही गई थी। यह रिपोर्ट ऐसे मामले पर आधारित थी, जिसमें आयुर्वेदिक दवाएं लेने वाली गर्भवती महिला के रक्त में जहरीले पदार्थ पाए गए थे। एक सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ने नाम न प्रकाशित करने का आग्रह करते हुए कहा, 'हमने पाया है कि अगर आयुर्वेदिक दवाओं को सही खुराक के रूप में नहीं लिया गया तो इससे शरीर में बीमारी और विकराल रूप ले सकती है। कुछ दवाओं में धातुओं की मात्रा 50 फीसदी से ज्यादा होती है।' इसके अलावा आयुुर्वेद तभी प्रभावी है, जब बीमारी छोटी-मोटी होती है। लेकिन कैंसर और मिरगी जैसी बीमारियों के इलाज में इसके सक्षम होने का दावा करना गलत है। वह कहते हैं, 'ये दवाएं बीमारी को नियंत्रित कर सकती हैं, न कि इसका इलाज कर सकती हैं।' वर्तमान दावा भी इतना ही हास्यास्पद है कि आयुर्वेद पुत्र के जन्म की गारंटी दे सकता है। दिल्ली के एक त्वचा रोग विशेषज्ञ रोहित बत्रा भी कहते हैं, 'आयुर्वेदिक दवाएं लघु अवधि में फायदेमंद हो सकती हैं, लेकिन इनमें कुछ धातुएं होने से लंबी अवधि में इनका इस्तेमाल नुकसानदेह साबित हो सकता है।' शास्त्री इस तरह के दृष्टिकोण चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना है। कटोच का कहना है कि सरकार ने आयुर्वेदिक दवाओं के विनिर्माण के लिए मानक बनाए हैं, जिनका कड़ाई से पालन होना चाहिए। उन्होंने मुझे भारत के आयुर्वेद औषधकोश की एक लाल प्रतिलिपि दिखाई। यह ड्रग्स ऐंड कॉस्टेमेटिक्स ऐक्ट के अंतर्गत आता है और इसे पहली बार 1983 में बनाया गया था। उन्होंने कहा, 'बाजार में उपलब्ध प्रत्येक आयुर्वेदिक दवा के लिए इन मानकों का पालन किया जाना जरूरी है। उदाहरण के लिए दिल्ली में बनी दवाओं की राज्य का दवा नियंत्रण विभाग जांच करता है। देश के अन्य सभी राज्यों में भी ऐसी ही विभाग हैं। हालांकि कटोच ने यह बात स्वीकार करते हैं कि इन मानकों का पालन एक समस्या बनी हुई है। इसके अलावा ये मानक निजी पेशेवरों पर लागू नहीं होते हैं।' कटोच कहते हैं, 'हम संभवतया इस पर नजर नहीं रख सकते कि कोई व्यक्ति किस दवा का विनिर्माण कर रहा है और निजी स्तर पर बेच रहा है। उपयोगकर्ताओं को ऐसी दवाओं को लेकर सतर्क रहना चाहिए।' संभवतया यही वजह है कि सरकार सभी स्तरों पर आयुर्वेद को मानकीकृत करने की कोशिश कर रही है। इसकी पहल देश के उन विश्वविद्यालयों में एकसमान बीएएमएस ( बैचलर ऑफ आयुर्वेदिक मेडिसिन ऐंड सर्जरी) पाठ्यक्रम शुरू कर की गई है, जो आयुर्वेदिक पाठ्यक्रम मुहैया कराते हैं। इस समय भारत में ऐसे 260 से ज्यादा कॉलेज हैं। कटोच का कहना है कि आगे इस संख्या में बढ़ोतरी होगी। पहले आमतौर पर आयुर्वेदिक फिजिशियन की विïश्वसनीयता पर सवाल उठाए जाते थे। लेकिन एकसमान पाठ्यक्रम लागू होने से यह समस्या दूर होने की संभावना है। कटोच कहते हैं कि वैसे डॉक्टरों की मांग है, जो जयपुर के नैशनल इंस्टीट््यूट ऑफ आयुर्वेद जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से स्नातक होते हैं। वह कहते हैं, 'लोग आयुर्वेद की ओर लौट रहे हैं और इस क्षेत्र में पर्याप्त डॉक्टर नहीं हैं। इसलिए नौकरी एक समस्या नहीं है।' केरल स्थित आयुर्वेद मेडिकल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जी विनोद कुमार का मानना है कि सरकार को ज्यादा प्रयास करने की जरूरत है, विशेष रूप से शोध कार्यों के लिए ज्यादा धनराशि आवंटित की जानी चाहिए। कुमार कहते हैं, 'उन्होंने एक मंत्रालय बनाया है, लेकिन आयुर्वेद को लोकप्रिय बनाने के लिए धनराशि खर्च करने की जररूरत है।' कुमार ने कहा, 'नए दवाउपयोगी पेड़-पौधों की खोज के बिना आयुर्वेद खत्म हो जाएगा।' लेकिन आयुर्वेदिक दवाओं को लेकर सबसे बड़ी चिंता उनका प्रभावी होना है। पिछले 20 वर्षों के दौरान पश्चिम में चिकित्सा परीक्षणों से यह दिखाया गया है कि आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धतियां अतार्किक हैं और पुरानी हैं और ये दवाएं मुश्किल से ही वांछित असर दिखाती हैं। हालांकि शास्त्री को भरोसा है कि आयुर्वेद अगले 40 वर्षों में आधुनिक दवाओं से आगे निकल जाएगा। उन्होंने कहा, 'आधुनिक दवाओं का रिडेक्टिव प्रभाव होता है, जबकि आयुर्वेद आनुभविक प्रभाव पर केंद्रित है। यही वजह है कि बहुत से लोग आयुर्वेद को अपना रहे हैं।' कुछ लोगों के इनकार करने के बावजूद पिछले एक दशक में आयुर्वेद ने भारत और विदेश में स्वीकार्यता हासिल की है। पूरे भारत में 24 उपचार केंद्रों वाले कैराली आयुर्वेदिक समूह के निदेशक अभिलाष रमेश कहते हैं कि उनके यहां आने वाले ज्यादातर लोग यूरोप और पश्चिम एशिया के होते हैं। वह कहते हैं, 'लोगों ने अपने जीवन में आयुर्वेद के सिद्धांतों को स्वीकार किया है और अब वे आयुर्वेदिक जीवनशैली से ज्यादा परिचित हैं। आयुष मंत्रालय के गठन से भी भारतीय मानसिकता में बदलाव आया है।'
