देसी कारोबारियों के साथ महात्मा गांधी के अनुप्रयोग | कारोबारी मंत्र | | भूपेश भन्डारी / April 01, 2015 | | | | |
अरुंधती रॉय ने हाल में महात्मा गांधी को भारत का पहला 'कारोबारी एजेंट' बताया। रॉय ने 'पूंजीवादियों' को लेकर अपनी नापसंदगी कभी छिपाई नहीं है। भारत आपको आपके आर्थिक दर्शन की वकालत करने की पूरी आजादी देता है, इसलिए उसमें कुछ भी गलत नहीं। मगर बड़ा सवाल यही है कि क्या गांधी ने वास्तव में कारोबारियों के हितों को आगे बढ़ाया?
वाम झुकाव वाले नेताओं के उलट, गांधी उनसे निर्बाध रूप से घुल मिल जाया करते। बजाज और बिड़ला परिवारों से उनकी नजदीकी जगजाहिर थी। वह अक्सर लंबे अरसे के लिए उनके साथ रहा करते थे-यहां तक कि दिल्ली में बिड़ला हाउस के लॉन में ही उनका निधन हुआ। हमेशा एक व्यावहारिक शख्स रहे गांधी जानते थे कि आजादी की लड़ाई के लिए धन की जरूरत होगी और धन की आस में वह केवल कारोबारियों का रुख ही कर सकते थे। वर्ष 1935 में विवाह के बाद डीसीएम के भरत राम गांधी का आशीर्वाद लेने के लिए अपनी पत्नी के साथ उनके पास गए, जो उन दिनों दिल्ली में अछूतों की एक बस्ती में रह रहे थे। नवविवाहित युगल उनके पास पहुंचा तो चरखे पर कताई करते हुए गांधी ने कहा, 'क्या तुम जानते हो कि मांगने की मेरी आदत बहुत अदम्य है? मुझे गहने लेने में भी कोई गुरेज नहीं।Ó भरत राम की पत्नी शीला को संदेश का मर्म तुरंत समझ आ गया और उन्होंने अपनी सोने की चूडिय़ां उतारकर गांधी को अर्पित कर दीं।
उनके आलोचक कहते रहे हैं कि गांधी द्वारा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार ने भारतीय उद्योगों को बहुत ज्यादा लाभ पहुंचाया था, विशेषकर डीसीएम जैसी कपड़ा मिलों को। यह कहना मुश्किल है कि यह बहिष्कार का अपेक्षित परिणाम था।
कारोबारी बिरादरी में उनके कट्टïर समर्थक होने के बावजूद घनश्याम दास बिड़ला और लाला श्रीराम (भरत राम के पिता) जैसे लोगों की राय गांधी से काफी अलग थी। लाला श्रीराम ने स्वदेशी आंदोलन के दौरान कांग्रेस का समर्थन किया और उम्मीद रखी कि पार्टी भारतीय उद्योगों के लिए कुछ करेगी। इसके बजाय वह कांग्रेस के भीतर वामपंथियों के उभार और कारोबार के प्रति उनके नफरत भरे विचारों से सकते में आ गए। जब 1931 में गांधी ने फिक्की की सालाना बैठक का उद्घाटन किया तो लाला श्रीराम ने साफ शब्दों में कहा कि पार्टी ने उन्हें निराश किया है। उन्होंने कहा, 'हम भविष्य के लिए एक परंपरा का सुझाव देना चाहेंगे कि अर्थशास्त्र के दायरे में आने वाले सभी मामलों में अपना दृष्टिïकोण तैयार करने से पहले कांग्रेस हमें सुझाव देने की अनुमति दे और जरूरी हो तो हमारे सदस्यों के साथ चर्चा करे।Ó आज के दौर के उद्योगपति शायद ही अपने नेताओं से इस लहजे में बात करने की हिम्मत करेंगे।
गांधी ने गरिमापूर्ण अंदाज में सुझाव स्वीकार कर लिया और वास्तव में उन्हें सुझाया कि फिक्की को एक कदम और आगे बढ़ाना चाहिए। उन्होंने कहा, 'मैं चाहता हूं कि आप अपनी कांग्रेस बनाइए और हम इच्छापूर्वक उसकी कमान आपको सौंप देंगे। यह काम आप बेहतर कर सकते हैं।Ó मगर उन्होंने अपनी शर्तें भी थोप दीं। 'अगर आप कमान संभालने का फैसला करते हैं, आप केवल एक शर्त पर ऐसा कर सकते हैं। आपको खुद को केवल गरीबों का संरक्षक और सेवक ही मानना चाहिए। आपका व्यापार अवश्य ही लाखों मेहनतकशों के फायदे के लिए नियंत्रित होना चाहिए और आप ईमानदारी से जो भी पाई कमाएं उसमें खुश रहना चाहिए।Ó
उसके बाद गांधी ने कारोबारियों के डर को यह कहकर दूर किया कि वह उनके बारे में वामपंथी नजरिये से इत्तफाक नहीं रखते। उन्होंने कहा, 'मैं एक पल के लिए यह नहीं मानता कि व्यावसायिक संपन्नता कड़ी ईमानदारी की परस्पर विरोधी है। मैं ऐसे कारोबारियों को जानता हूं जो विशुद्घ रूप से ईमानदार और अपने लेनदेन में एकदम सच्चे हैं। ऐसे में आपके लिए कांग्रेस की कमान संभालने का विकल्प आसानी से खुला हुआ है।Ó गांधी और बिड़ला में अक्सर और काफी कड़े मतभेद होते थे। हालांकि दोनों ही राष्टï्रवादी थे लेकिन एक व्यावहारिक कारोबारी होने के नाते बिड़ला गांधी के टकराववादी एजेंडे से असहज थे। उस दौर के सबसे बड़े नेता और उसके प्रमुख फाइनैंसर के बीच मतभेदों का फायदा उठाने के लिए साम्राज्यवादी सरकार ने 1932 में बिड़ला को नाइटहुड से सम्मानित करने का फैसला किया, जिसे लेने से बिड़ला ने इनकार कर दिया। मतभेद इतने गहरा गए कि जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत करने का वक्त आया तो उस वक्त बिड़ला हाउस में ठहरे गांधी वहां से अपना ठिकाना छोड़कर कांग्रेस दफ्तर में आकर रहने लगे, ताकि उनके मेजबान को कुछ शर्मिंदगी हो, जो द्वितीय विश्व युद्घ में जबरदस्त मुनाफा बना रहे थे। फिर बिड़ला को गांधी की खुशामद करनी पड़ी कि वह वापस उनके घर लौटें। इसमें कुछ भी ऐसा नहीं जो यह साबित करे कि गांधी अपने कारोबारी मित्रों के लिए काम कर रहे थे।
कम से कम अधिग्रहण के एक मामले में गांधी की भूमिका देखी गई, यह अधिग्रहण था मुकंद आयरन ऐंड स्टील वक्र्स का, जिसे 1939 में जमनालाल बजाज ने किया था। कंपनी के प्रवर्तक लाला मुकंद लाल गांधी समर्थक थे। उनकी कंपनी के दो संयंत्र थे, एक लाहौर में और दूसरा मुंबई में लेकिन लाल उन्हें मुनाफे में नहीं चला पा रहे थे। गांधी ने बजाज को सुझाव दिया और बजाज के पांचवें बेटे को बुलाया कि उन्हें इस कारोबार को खरीदना चाहिए। बजाज इनकार नहीं कर सके। उन्होंने अपने मित्र जीवनलाल मोतीचंद शाह को भी इस उपक्रम में साझेदार बना लिया, जो खुद एक गांधी समर्थक थे। इस तरह बजाज और शाह परिवार ने मुकंद पर नियंत्रण स्थापित किया।
कमलनयन बजाज (जमनालाल बजाज के बेटे) पर एक नई किताब के अनुसार गांधी विभिन्न ट्रस्टों से जुड़ा पैसा बजाज के मालिकाना हक वाले नागपुर बैंक में जमा कराते थे। वर्ष 1945 में बैंक में किसी तरह का संकट आ गया और गांधी को सुझाव दिया गया कि वह जमा रकम निकाल लें। मगर बजाज परिवार पर गांधी का इतना विश्वास था कि उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया।
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