किसी भी आम दिन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अदालत के 12 कमरों में बैठकर फैसला सुनाते हैं। हर कमरे में दो या तीन न्यायाधीशों की पीठ बनाई जाती है।
सारे न्यायाधीशों के पास बराबर न्यायिक शक्तियां होती हैं और उनके फैसले को उच्चतम न्यायालय का फैसला मानकर देश भर की अदालतें उसका अनुसरण करती हैं। पर वास्तविकता तो यह है कि हर दिन अलग अलग कमरों में अलग अलग पीठ के रूप में बैठने के कारण तालमेल बिठाना आसान नहीं होता है।
ऐसा कई बार होता है कि न्यायाधीशों की एक पीठ जो फैसला सुनाती है वह दूसरी पीठ से मेल नहीं खाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि कुछ न्यायाधीशों के विचार भी फैसलों में टकराव पैदा करते हैं। भारतीय संविधान का निर्माण करने वाले बुद्धिजीवियों को अमेरिकी उच्चतम न्यायालय के मॉडल की याद नहीं आई होगी जहां सभी न्यायाधीश सुनवाई के दौरान साथ बैठते हैं।
उच्च न्यायालय में पीठ का गठन और भी जटिल तरीके से होता है जहां कई बार एक पीठ में करीब 100 न्यायाधीश होते हैं। उच्चतम न्यायालय के फैसले की व्याख्या वे अलग अलग तरीके से कर सकते हैं और उन्हीं फैसलों का पालन करते हैं जो उन्हें सही लगता है।
इस तरह न्यायिक अनुशासनहीनता बढ़ती है। उच्चतम न्यायालय ने दो हफ्ते पहले आधिकारिक समापक बनाम दयानंद मामले में एक फैसला सुनाया था, जिसमें अदालत ने , 'न्यायिक अनुशासन की मौलिक अवधारणाओं को तोड़ने वाले मामलों में लगातार हो रही बढ़ोतरी पर नाराजगी जताई थी।'
अदालत ने कहा था, 'उच्च न्यायालय की पीठ कई बार तथ्यों में मामूली अंतर को देखते हुए ही बड़ी पीठों के फैसले को मानने से इनकार कर देती हैं।' सर्वोच्च न्यायालय ने कई ऐसे फैसलों को याद करते हुए कहा कि कई बार नियमों का सख्ती से पालन करने पर जोर दिया गया था, पर सब बेकार गया।
इस वजह से अदालत ने इस बार कड़े शब्दों में 100 पन्नों का फैसला सुनाया है:'संवैधानिक लोकाचारों के प्रति असम्मान दिखाना और अनुशासन का उल्लंघन करना, ये दोनों ही न्यायिक संस्थानों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करते हैं।
इस देश में पिछले 6 दशकों के दौरान अदालतों के प्रति लोगों का विश्वास पुख्ता होता गया है और इस तरह की अनुशासनहीनता इस प्रतिष्ठा को चोट पहुंचाती है। अगर बड़ी पीठ ही एक दूसरे से विरोधाभासी फैसले सुनाते रहेंगे तो इससे छोटे अदालतों के सामने बड़ी समस्या पैदा हो जाएगी कि वे किस फैसले को सही मानें और किसे गलत।
इससे न्यायिक प्रक्रिया को ही चोट पहुंचती है।' सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा, 'जिन लोगों पर प्रणाली के शासन की जिम्मेदारी सौंपी गयी है और जिन्होंने ये शपथ ली है कि वे संविधान के अनुरूप चलते हुए काम करेंगे, उन्हें ऐसे उदाहरण पेश करने चाहिए।
न्यायिक प्रणाली से जुड़े सभी सदस्यों को पूरी तन्मयता के साथ इस सिद्धांत का पालन करना चाहिए... अगर अदालत दूसरों को यह आदेश देता है कि वे संविधान के दायरे में रह कर काम करें और कानून का पालन करें तो खुद इनके लिए यह कैसे जायज हो सकता है कि ये संवैधानिक सिद्धांतों की अवहेलना करें।'
निश्चित तौर पर उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालयों के लिए इस फैसले के दौरान कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया है। पर ऐसा नहीं है कि गलतियां केवल उच्च न्यायालयों से ही होती हैं। सर्वोच्च न्यायालय को अपने फैसलों की समीक्षा भी करनी चाहिए और यह सोचना चाहिए कि क्या वे हमेशा गलतियों से दूर रहा है।
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम जीत बिष्ट मामले में पिछले साल उच्चतम न्यायालय के ही एक न्यायाधीश ने अपने एक सहयोगी न्यायाधीश द्वारा सुनाये गये पुराने फैसले की आलोचना की थी। हालांकि साथ बैठे न्यायाधीश ने इस आलोचना में उनका साथ नहीं दिया था।
तब उन्होंने अपने साथी न्यायाधीश के 'गलत' रवैये की आलोचना करते हुए अलग से एक फैसला सुनाया। उन्होंने फैसला सुनाया, 'इस अदालत की एक पीठ जो फैसला सुनाती है उसके खिलाफ दूसरी पीठ में सुनवाई नहीं की जाती है, खासतौर पर साझा पीठों के मामलों में।
ठीक इसी तरह एक ही मामले में दो न्यायाधीशों की राय बिल्कुल अलग होना भी सही नहीं है। अगर मामले अलग भी हों तो बड़ी पीठ के निर्देशों को पूरी तरह दरकिनार नहीं किया जाना चाहिये। हमें न्यायिक अनुशासन और साथी न्यायाधीशों के प्रति सम्मान को नहीं भूलना चाहिये।'
अब एक दूसरे मामले पर नजर डालते हैं। पिछले वर्ष सुनाये गये एक फैसले में उच्चतम न्यायालय की दो जजों की एक पीठ ने पांच जजों की संविधान पीठ के फैसले से उलट फैसला सुनाया था। दो जजों की इस पीठ ने यूपीएसईबी बनाम पूरन चंद मामले में सात जजों की पीठ का हवाला देते हुए अपना फैसला सुनाया।
अस्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति के मामले में फिलहाल कर्नाटक राज्य बनाम उमा देवी मामले में पांच जजों के इस फैसले को आदर्श माना जाता है। हालांकि वर्ष 1978 के मेनका गांधी मामले के दृष्टिगत इस फैसले में बहुत स्पष्टता नहीं थी।
अब उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि मेनका गांधी का मामला पूरन चंद मामले में प्रासंगिक नहीं है और इस कारण से उमा देवी मामले को ही नजीर के तौर पर माना जाना चाहिए। 'पूरन चंद मामले में सुनाया गया फैसला न तो उच्च न्यायालयों के लिए बाध्यकारी होना चाहिये और न ही संविधान पीठ द्वारा तैयार किये गये सिद्धांतों की अवहेलना करते हुए इन्हें आधार बनाना चाहिये।'
कानूनी पेशे में ऐसी स्थिति के लिए लैटिन भाषा में एक शब्द है- 'पर इनक्यूरियाम'। इसका अर्थ है भारी न्यायिक त्रुटि।