राजनीतिक मौसम आ गया है। महंगाई दर भी खतरनाक स्तर पर है। ऐसे में स्पष्ट है कि हम अर्थव्यवस्था में आगामी कुछ महीनों में परिवर्तन देखेंगे।
यह कॉलम दरअसल आगामी वित्तमंत्री के लिए है, जिसका कार्यकाल आने वाला है। मेरा यह मानना है कि अगली बार जो भी पार्टी सत्ता संभाले, लेकिन इस विश्वास पर कतई आंच नहीं आएगी कि उदारीकरण को जारी रखने से ही मुल्क की अर्थव्यवस्था आगे और भी ऊंचाइयों को छूती रहेगी।
शायद इसे आप मेरी बेवकूफी से भरा उम्मीद ही कहेंगे कि देश का अगला वित्त मंत्री अभिमन्यु की तरह वीर होगा और अपनी अगली सरकार युधिष्ठिर की तरह बुध्दिमान होगी। लेकिन ऐसा हो सकता है। अगली सरकार के लिए मेरे द्वारा सुझाया गया नुस्खा यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की हिस्सेदारी जल्द से जल्द बेंच देनी चाहिए। यह कोई नया विचार नहीं है, लेकिन कोई भी ऐसा नहीं सोचता कि यह होने जा रहा है।
लेकिन हमें इसके निहितार्थ पर गौर करना चाहिए। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सरकार की हिस्सेदारी बाजार के वर्तमान भाव के मुताबिक करीब 168,000 करोड़ से 150,000 करोड़ रुपये है, जो सूचीबध्द हैं। और कुछ असूचीबध्द बैंकों की पूंजी में हिस्सेदारी अनुमान के मुताबिक 18,000 करोड़ रुपये है। अनुमान के मुताबिक अगर सरकार इसमें से 20 प्रतिशत हिस्सेदारी भी बेचती है तो उससे 120,000 करोड़ रुपये की आमदनी होगी!
स्वाभाविक है कि इस धनराशि का उपयोग सरकारी कर्जों की भरपाई के लिए किया जा सकता है, जिससे स्वाभाविक रूप से ब्याज दरें कम हो जाएंगी। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इससे सरकार में विकास की गतिविधियों पर खर्च करने के मामलों में लचीलापन आएगा। इतना ही सार्थक यह भी है कि जबसे सभी भारतीय बैंकिंग परिसंपत्तियों को बाजार में लाने का नियम आएगा, डेब्ट मार्केट की तरलता बढ़ जाएगी।
इसका परिणाम यह होगा कि पूरी अर्थव्यवस्था के ब्याज दरों में कमी आएगी। एक गंभीर और तरल मुद्रा बाजार, जिसमें जरूरतों के मुताबिक परिवर्तन हो सकता है, से खुद ही तमाम संभावनाओं के द्वार खुल जाएंगे। पर्सी मिस्त्री रिपोर्ट में यह कहा गया है। विकास की दर बढ़ेगी और इससे वर्तमान महंगाई दर पर भी लगाम लगेगी।
हम विकास दर को 10-12 प्रतिशत तक ले जाने के सपने को पूरा कर सकेंगे। हमारी तात्कालिक जरूरत है कि सार्वजनिक निजी हिस्सेदारी के माध्यम से अपनी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद को कनाडा और आस्ट्रेलिया के स्तर पर वर्तमान के 8 प्रतिशत से 12 प्रतिशत की ओर ले जा सकें।
यह सही है कि कोई भी चीज मुफ्त में नहीं मिलती। हमें इस तरह के क्रांतिकारी बदलाव के लिए परिसंपत्ति की जरूरत होगी। सबसे ज्यादा जरूरत राजनीतिक इच्छा शक्ति की है। इस समय सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 7 लाख कर्मचारी हैं। स्वाभाविक है कि वे इसके खिलाफ आवाज उठाएंगे। वामपंथी दल वित्तमंत्री को अभिमन्यु की हालत में ले जा सकते हैं। लेकिन बहादुरी के लिए राजनीति नहीं बल्कि अपनी इच्छाशक्ति की जरूरत है।
दूसरी बात और भी महत्वपूर्ण है। वह है मूल्यों की। इसका भी असर पड़ेगा। जैसा कि चाचा चंद्रा ने मुझे बताया था- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने ग्रामीण क्षेत्रों के विकास में अहम भूमिका निभाई है। बैंकों की मौजूदगी से आधारभूत ढांचे और रोजगार के क्षेत्र में बदलाव आया है और इससे ग्रामीण इलाकों की शाख बढ़ी है। स्पष्ट है कि निजी बैंक इन चीजों का ख्याल कम ही रखेंगे और वे लाभ पर केंद्रित रहेंगे।
इसका एक पहलू और भी है। अगर हम बैंकों के ग्रामीण इलाकों में चल रहे कार्यों में कमी पाते हैं तो हमारे पास एक रास्ता यह भी है कि छोटे शहरों में औद्योगिक विकास का सिलसिला शुरू कर दें। हम बैंकिंग एक्ट में भी संशोधन कर सकते हैं, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने वाले बैंकों को कर में छूट मिले जिससे गांवों में काम करने वाले बैंकों को इसके माध्यम से एक वित्त वर्ष में लाखों की आमदनी हो।
इसका मतलब यह हुआ कि जो बैंक गावों में अपनी शाखाएं संचालित कर रहे हों उनको कर न देना पड़े। सैध्दांतिक तौर पर भारतीय बैंक प्रणाली को पूरी तरह से करों में छूट मिलना चाहिए, जिससे उनका राजस्व बढ़े। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक जिनकी शाखाएं पहले से ही गांवों में मौजूद हैं वे अपनी अतिरिक्त शाखाएं बेच सकती हैं- जो कर मुक्त होना चाहते हैं- इससे एक मोटी रकम मिलेगी, जिससे देश की लंबे समय के लिए सेवा की जा सकती है।
इस तरह से सरकार को 120,000 करोड़ रुपये, जो ऊपर इंगित किया गया है, के अलावा आमदनी होगी। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि इस योजना से उन क्षेत्रों को फ्लो आफ क्रेडिट मिल सकेगा जहां जरूरत है। वास्तव में ग्रामीण परिसंपत्तियों की प्रतियोगिता से कार्पोरेण ऋणों के लिए शाख मिल सकेगी। मेरे विचार से जो अतिरिक्त आमदनी होगी, उससे बैंकिग क्षेत्र को हो रहे राजस्व के नुकसान की भरपाई की जा सकती है।
इसमें एक और पेंच है, जो मैं पाता हूं कि इससे वित्तीय क्षेत्र में कुशल कामगारों की मांग बढ़ेगी। इससे नया दौर आएगा, जिसमें एक बार फिर वेतन में बढ़ोतरी होगी। इससे जिंदगी और कठिन हो जाएगी। लेकिन यदि हमारे पास भुगतान करने के लिए ज्यादा पैसा है, तो हम अर्थव्यवस्था का अधिक आनंद ले सकते हैं।