विकास पर कोई असर नहीं
नीलोत्पल बसु
वरिष्ठ नेता, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी
देखिए एक बात तो तय है कि हमारे देश में मिलीजुली यानी गठबंधन सरकार ही बनने वाली है। यह सवाल ही नहीं पैदा होता है कि कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी या फिर राष्ट्रीय स्तर की कोई अन्य पार्टी पूर्ण बहुमत लेकर आएगी और अकेले सरकार बनाएगी।
बीते कुछ दशकों को देखें तो आम चुनाव में गठबंधन सरकारें ही बनती आई हैं। आगे भी गठबंधन सरकार ही बनेगी। मेरा स्पष्ट मानना है कि गठबंधन की सरकार बनने से देश की विकास दर पर कोई असर नहीं पड़ेगा। मसलन, देश की अर्थव्यवस्था पर गठबंधन सरकार का कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ने वाला है।
गठबंधन की सरकार हमारे देश के विकास के लिए किस तरह जरूरी है, इसे आप इस तरह समझ सकते हैं। यह तो जगजाहिर है कि अमेरिका और यूरोप के कई देशों में वित्तीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। इसकी एक मुख्य वजह उदारीकरण और खुले बाजार की नीति है। भारत पर अभी भी वैश्विक आर्थिक मंदी की आंच बहुत ज्यादा नहीं पड़ी है। यहां के बैंक अभी भी बचे हुए हैं।
पिछले चार सालों से गठबंधन सरकार उदारीकरण की नीतियों को भारत पर लागू करने की पुरजोर कोशिश कर रही थी। लेकिन हमारी वामपंथी पार्टी ने सरकार की नीतियों का प्रतिकार किया। मंदी का थोड़ा बहुत असर इसलिए भी देखने को मिल रहा है क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था निर्यात पर बहुत ज्यादा निर्भर है और साथ ही दुनिया के अन्य देशों से हमारे व्यापारिक संबंध कायम हैं।
लेकिन अमेरिका में जिस तरह वित्तीय संकट देखने को मिला है, वैसा अभी तक हमारे देश में नहीं हुआ है। अगर हमारी अर्थव्यवस्था वित्तीय सकंट के कालचक्र में नहीं फंसी है तो उसकी एक मुख्य वजह गठबंधन की सरकार ही है। यह गठबंधन की सरकार ही है जो सरकार की किसी भी नीति को सही तरीके से कार्यान्वयन करती है।
क्या सही है और क्या गलत, उसे देखती है और जांचती-परखती है। अब अमेरिका को ले लीजिए वहां की सत्ता पर किसी एक दल का ही शासन रहता है। ऐसे में वहां किसी भी नीति को लागू करने के लिए सरकार में अंतर्द्वंद्व नहीं होता है। सही हो या गलत, सरकार जो चाहती है वही करती है। लेकिन हमारे यहां गठबंधन सरकार होने की वजह से सभी पार्टियों की राय-विचार से ही कोई फैसला किया जाता है।
गठबंधन सरकार से देश की विकास दर पर सकारात्मक असर ही पड़ेगा। हम लोग शुरू से ही बोलते आए हैं कि अगर हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर को बढ़ाना है तो सरकार को सार्वजनिक निवेश पर जोर देना होगा। इसके अलावा, सरकार को चाहिए कि वे अंदरूनी मांग को पुनर्जीवित करें। इसमें कोई शक नहीं कि सरकार इन नीतियों को लागू कर मंदी के इस दौर से बच सकती है।
देश की विकास दर को बढ़ाने के लिए सरकार को चाहिए कि वे आम जनता की क्रयशक्ति को बढ़ाए। आम जन की क्रयशक्ति बढ़ने से अंदरूनी मांग में भी बढ़ोतरी होगी और हम मंदी के दौर से बाहर निकल सकेंगे। मेरा स्पष्ट मानना है कि गैर-कांग्रेस व गैर-भाजपा के खिलाफ हम जिन पार्टियों को इकट्ठा करने की कोशिश कर रहे हैं, वे ही इस आम चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें लेकर आएंगी।
चुनाव के बाद और भी कई पार्टियां हमारे संगठन के साथ जुड़ेंगी। देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए हम लोग चार-पांच प्रश्नों को सामने रखकर अपना अभियान चला रहे हैं। पहला, जनपक्षीय आर्थिक नीति। दूसरा, स्वतंत्र विदेश नीति। तीसरा, हमारी धर्मनिरपेक्षता को और पुख्ता बनाना होगा। चौथा, संघीय ढांचे को मजबूती देना होगा।
पांचवां, उदारीकरण की वजह से पैदा हुई आर्थिक और सामाजिक विषमता की खाई को कम करना होगा। अगर हमें आर्थिक विकास को गति देनी है तो देश की नीतियों को नई दिशा प्रदान करनी होगी। हम इन सभी प्रश्नों को हल कर विकास दर को बढ़ा सकते हैं।
(बातचीत: पवन कुमार सिन्हा)
धीमा पड़ेगा विकास का पहिया
राजीव सिंघल
उपाध्यक्ष, भारत मर्चेंट चैंबर
अभी तक के चुनावी रुझानों को देखकर तो यही लगता है कि देश में एक बार फिर से मिली जुली सरकार बनने वाली है। मिली जुली सरकार बनने से देश की विकास दर पर असर जरूर पड़ने वाला है।
खिचड़ी सरकार से न सिर्फ आर्थिक बल्कि सामाजिक, शैक्षणिक और सामरिक विकास भी प्रभावित होता है। इसकी मुख्य वजह क्षेत्रीय पार्टियों के अपने मुद्दे होते हैं। क्षेत्रीय दल भाषा, क्षेत्र, जाति और धर्म के आधार पर अपनी पार्टी को खड़ा करते हैं और इसी आधार पर लोगों से वोट मांगते हैं।
ये दल खुद तो कभी सरकार बना नहीं सकते हैं क्योंकि सरकार बनाने के लिए जितने सदस्यों की जरूरत होती है, उतने सदस्य ये दल चुनाव मैदान में भी नहीं उतारते हैं। ऐसे में जब छोटे छोटे दल मिलकर सरकार बनाते हैं तो उनके राजनीतिक एंजेंडे और सोच में अंतर होता है। जिससे टकराव होना लाजिमी हो जाता है।
पूरे देश की बात न सोचकर ये दल क्षेत्र विशेष की बात करते हैं जिससे पूरे देश का विकास तो नहीं हो सकता है। यह कोई कयास नहीं है बल्कि देशवासियों का अनुभव भी है कि मिली जुली सरकार उतना काम नहीं कर पाती है, जितना किसी एक दल की सरकार काम कर सकती है। दरअसल हमारे देश में इस समय सिर्फ दो मुख्य राष्ट्रीय राजनीतिक दल हैं।
दोनों को दूसरे दलों की तुलना में सीटें भी ज्यादा मिलने वाली हैं लेकिन सत्ता में काबिज होने के जादुई आंकड़े तक पहुंचने से दूर ही रहने वाले हैं। मजबूरी में क्षेत्रीय और छोटे राजनीतिक दलों का सहारा लेना पड़ता है। इतिहास गवाह है कि छोटे-छोटे दलों से मिलकर बनने वाली सरकार विकास काम में कम एक दूसरे को अंदर बाहर करने में ज्यादा समय खर्च करती है।
भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने पहली बार देश में मिली जुली सरकार का कार्यकाल पूरा करने का रिकॉर्ड तो बना दिया लेकिन पांच साल तक कभी ममता तो कभी जयललिता के गुस्से का शिकार होते रहे। यही हाल कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का रहा।
लगभग हर मुद्दे पर वामदल सरकार को लाल निशान दिखाकर डराते रहे, देश पांच साल तक लाल सलाम और आर्थिक उदारीकरण की नोकझोंक को सहता रहा और दोबारा मिली जुली सरकार में भी यहीं होने वाला है। मिली जुली सरकार का नेतृत्व करने वाला दल हमेशा दबाव में बना रहता है।
वह कोई भी फैसला नहीं ले पाता है क्योंकि किसी न किसी दल को अपने राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए सरकार के कदमों का विरोध करना ही रहता है। कई बार ऐसा देखने को मिलता है जब विपक्षी दल किसी मुद्दे पर चुप होते हैं या देश हित का हवाला देकर सरकार के साथ खड़े होते हैं तब भी सरकार में शामिल कोई न कोई दल उसका विरोध करता दिखाई दे जाता है।
अमेरिका सहित कई विकसित देश आर्थिक मंदी की चपेट में आ चुके हैं, भारत भी आर्थिक परेशानियों की गिरफ्त में आ सकता है हालांकि अभी तक हमारे यहां हालात उतने खराब नहीं हैं, जितने दूसरे देशों में है। लेकिन मिली जुली सरकार यदि सत्ता में आती है तो इसका विकास दर पर बेशक विपरीत असर पड़ने ही वाला है क्योंकि देश में हमेशा राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बना रहेगा।
ऐसे में कारोबार को सही दिशा नहीं मिल पाती है क्योंकि आज जो योजना सरकार लागू करती है उसका कारोबारियों के बीच भरोसा नहीं होता कि यह योजना कब तक चलने वाली है, सरकार गिरते ही योजनाएं भी बंद हो जाती हैं और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के चलते यदि सरकार एक-दो साल में गिर गई और देश को दोबारा चुनाव का समाना करना पड़ा तो चुनाव में होने वाले खर्च को भारतीय अर्थव्यवस्था इतनी जल्दी सहन नहीं कर पाएगी। कुल मिलाकर आर्थिक तंगी के इस दौर में देश को मिलने वाली मिली जुली सरकार विकास की रफ्तार को और भी धीमा करने में ही मददगार साबित होगी।
(बातचीत: सुशील मिश्र)