भारत का पर्यावरणीय आंदोलन बहुत हद तक अमीरों और गरीबों के बीच तथा मानव और प्रकृति के बीच अंतर्द्वंद्वों और जटिलताओं के प्रबंधन को लेकर है।
हालांकि ऐसा कई जगह पर है पर भारत के आंदोलन में मुख्य तौर पर एक अंतर है। इसी में भविष्य की उम्मीद छुपी हुई है। अमीर देशों में पर्यावरणीय आंदोलन की शुरुआत धन उगाहने के दौर के बाद और अपशिष्ट या कचरा पैदा करने के दौर में हुई।
इसलिए वहां कचरे के नियंत्रण की बात तो होती है लेकिन उनकी कचरा पैदा करने वाली व्यवस्था में ही परिवर्तन का तर्क देने की क्षमता नहीं है। हालांकि, भारत का पर्यावरणीय आंदोलन भारी असमानता और निर्धनता के बीच आगे बढ़ा है।
गरीबों के सापेक्ष इस पर्यावरणवाद में तब तक सवाल का सही जवाब नहीं ढूंढ़ा जा सकता और यह तब तक उलझता ही रहेगा जब तक सवाल को दुबारा सही तरह से समझा नहीं जाएगा। सबसे पहले हरित आंदोलन के जन्म और विकास को समझना होगा। इसकी शुरुआत 1970 के दशक के शुरुआती काल में हुई थी।
उस वक्त भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्वीडन के स्टॉकहोम में पर्यावरण पर हुए सम्मेलन में कहा था कि ‘गरीबी सबसे बड़ी प्रदूषक है’। पर इसी दौरान उत्तराखंड में हुए चिपको आंदोलन में शामिल महिलाओं ने दिखाया कि गरीब भी पर्यावरण की चिंता करते हैं।
पर्यावरण के फैशन बनने से एक साल पहले यानी 1974 में उत्तराखंड के चमोली जिले के रेणी गांव की महिलाओं ने लकड़हारों को पेड़ काटने से रोक दिया था। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो गरीब महिलाओं का ये आंदोलन संरक्षण आंदोलन जैसा तो
नहीं था लेकिन यह एक ऐसा आंदोलन था जिसके जरिए यह मांग सामने आई कि स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय समुदाय का ही अधिकार होना चाहिए। महिलाओं ने सबसे पहले पेड़ों पर अधिकार की मांग की। उनका मानना था कि यह उनके जीवन बसर का मूल आधार है। उनके आंदोलन से देश के लोगों के बीच यह संदेश गया कि शोषण पर आधारित अर्थव्यवस्था प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है, न कि गरीबी।
ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि ग्रामीण भारत के बड़े हिस्से में, अफ्रीका के बडे हिस्से और दुनिया के और कई क्षेत्रों की तरह, गरीबी का मतलब पैसे की कमी नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों तक पहुंच में कमी है। लाखों लोग ऐसी अर्थव्यवस्था में रहते हैं जिसमें जैव ईंधनों के जरिए गुजारा करना होता है।
ऐसी जगहों पर सकल राष्ट्रीय उत्पाद के बजाए सकल प्राकृतिक उत्पाद अहम होता है। पर्यावरण का बिगड़ना कोई विलासिता का मसला नहीं है बल्कि यह अस्तित्व का मामला है। इन मामलों में पर्यावरण प्रबंधन के बिना विकास संभव ही नहीं है।
बेहद गरीब लोगों के पर्यावरणीय आंदोलन में अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को बना-बनाया रास्ता नहीं सुझाया जा सकता है। इस पर्यावरणवाद में एक ही जवाब हो सकता है। वह यह कि अपनी जरूरतों को कम करने और आवश्यक जमीन के हरेक इंच की, खनिजों के हर टन की और पानी की हर बूंद की कार्यक्षमता को बढ़ाने के लिए हमें अपने रहन-सहन के तौर-तरीकों को बदलना होगा।
इससे नई व्यवस्था के लिए रास्ता तैयार होगा जिससे स्थानीय समुदायों तक फायदा पहुंचेगा। इससे वे लोग समान विकास के वास्ते अपने संसाधनों का उपयोग करने के लिए भी प्रेरित होंगे। ये विकास के नए रास्तों के निर्माण की राह बनाएगा। यह बात भी बिल्कुल स्पष्ट है कि तुलनात्मक तौर पर धनी लोगों का पर्यावरणीय आंदोलन अभी भी बड़ी समस्याओं के छोटे जवाब तलाश नहीं पाया है।
आज चीखने की बजाए हर कोई यह कह रहा है कि ऊर्जा दक्षता और कुछ नई तकनीक अपनाकर पर्यावरण की समस्या से निपटा जा सकता है। इसका संदेश साफ है कि जलवायु परिवर्तन के प्रबंधन से रहन-सहन और आर्थिक विकास पर कोई असर नहीं पड़ेगा। इससे दोनों हाथ में लड्डू वाली स्थिति बनेगी और हरित प्रौद्योगिकी समेत नए कारोबार का लाभ उठाया जा सकेगा।
उदाहरण के तौर पर जैव ईंधन को लिया जा सकता है। जमीन पर अनाज के बजाए ईंधन का उत्पादन किया जाएगा। इससे धनवानों की कार चलेगी। इस बात पर कोई चर्चा नहीं हो रही है कि कारों की बढ़ती संख्या को देखते हुए क्या जैव ईंधन से कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी। वैसे जैव ईंधनों की आलोचना हो रही है और इसे खाद्यान्न की कीमतों में बढ़ोतरी और जल संकट के लिए जिम्मेवार ठहराया जा रहा है।
अगली पीढ़ी की तकनीकी समाधानों में हाइब्रिड कार की बात चल रही है। ऐसा तब हो रहा है जब सारे आंकड़े यह बता रहे हैं कि हमें जितने बडे बदलाव की जरूरत है उसका यह एक छोटा हिस्सा है। कम कार्बन वाली अर्थव्यस्था के लक्ष्य को पाने के लिए तकनीकी बदलाव पर्याप्त नहीं है बल्कि आर्थिक एवं पारिस्थितिकीय संसाधनों के पुनर्वितरण की जरूरत है।
कहा जा सकता है कि बड़ी समस्या के लिए छोटे समाधान का समय अब पूरा हो गया है। पानी का उदाहरण लिया जा सकता है। भारत इस स्थिति में नहीं है वह पहले पानी को बर्बाद करे और फिर उसका संरक्षण करे। भारत को जल प्रबंधन की व्यवस्था तैयार करनी ही होगी। भारत को अपने जल संसाधनों को बढ़ाने के लिए पुरानी परंपरा से सबक लेते हुए लाखों स्थानीय और विकेंद्रित जल प्रबंधन संरचना तैयार करनी चाहिए।
भारत को वर्षा जल के संचयन की व्यवस्था करनी चाहिए। इससे यहां पानी का भंडार बढेगा। इसके साथ ही भारत को भविष्य को ध्यान में रखते हुए वैसी जल दक्षता वाली प्रौद्योगिकी में निवेश करना चाहिए। इसके जरिए पानी को रिसाइकिल करके दुबारा इस्तेमाल किया जा सकेगा।
गरीबों का पर्यावरणवाद हमें भविष्य का बेहद महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ा रहा है। वह यह कि विकास नए सिरे से इस तरह करना होगा कि यह सभी की पहुंच में रहे। पर यह धरती की कीमत पर नहीं हो। क्या हम सुन रहे हैं? क्या हम सीख रहे हैं?
