सरकार द्वारा हाल ही में भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारियों को केंद्र में सेवा करने के लिए तलब करने पर जो विवाद छिड़ा वह वास्तव में एक गंभीर संकट की ओर इशारा करता है जहां केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के पास न केवल कमजोर अर्हता वाले कर्मचारी होंगे बल्कि उनके पास अपने साथ काम करने के लिए पर्याप्त लोग भी नहीं होंगे।
वास्तव में उनके पास सक्षम कर्मचारियों की कमी हो जाएगी और जो अपर्याप्त कर्मचारी बचेंगे उनमें भी अक्षम कर्मचारी ज्यादा होंगे। यह पहले ही हो चुका है। जैसा कि तमिलनाडु कैडर के पूर्व आईएएस अधिकारी बृजेश्वर सिंह कहते हैं कि कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के पास भविष्य की जरूरतों का अनुमान लगाने का कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं है। केवल अनुमान के आधार पर काम चल रहा है।
अनुमान लगाने में इस अक्षमता का एक उदाहरण सन 1962 या 1963 में देखने को मिला था। भारत इलेक्ट्रॉनिक्स ने छायाप्रति बनाने वाली एक मशीन का आविष्कार किया था। यह जीरॉक्स कॉपियर के आने के पहले की बात है। परंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसका इस्तेमाल करने से मना कर दिया। उन्होंने पूछा कि अगर इसका इस्तेमाल किया गया तो सरकारी टाइपिस्टों का क्या होगा। इसलिए उस नमूने का व्यावसायिक पैमाने पर इस्तेमाल नहीं किया जा सका। परंतु सरकार के पास यह अनुमान लगाने का कोई तरीका नहीं था कि अपनी भूमिका का विस्तार होने के साथ उसे कितने टाइपिस्ट की आवश्यकता पडऩे वाली है। ऐसे में सरकार ने जरूरत से ज्यादा टाइपिस्ट को काम पर रख लिया। नतीजा यह हुआ कि सरकार के सबसे कम उत्पादकता वाले स्तर पर जरूरत से ज्यादा कर्मचारी हो गए। हम आज भी इसकी कीमत चुका रहे हैं।
सन 1986 में जब राजीव गांधी ने प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल की दिशा में जमकर काम करना शुरू किया और समस्या और भी बिगड़ गई। इसके बाद सरकार ने जरूरत से ज्यादा कड़ाई बरती लेकिन यह काम वरिष्ठ कर्मचारियों के मामले में किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि सक्षम अधिकारियों की कमी हो गई जबकि अक्षम कर्मचारियों की भरमार हो गई।
ऐसा नहीं है कि यह केवल असैन्य कार्मिकों की समस्या हो। रक्षा सेवाएं भी अनुमान में इस चूक से अछूती नहीं हैं। तकनीक में सुधार के साथ हमें कितने सैनिकों की आवश्यकता है? या कितने नौसैनिकों या वायुसैनिकों की? या फिर कुछ और? क्या सरकार को इस बारे में कुछ पता है? इस बारे में आपको तभी पता चलेगा जब आप पेंशन बिल पर नजर डालेंगे। रक्षा बजट का 30 फीसदी हिस्सा पेंशन में जाता है। जाहिर सी बात है कि सरकार शत्रुओं से निपटने के लिए नयी तकनीकों पर ध्यान नहीं दे रही है।
इस बीच निजी क्षेत्र इसके उलट सिद्धांत पर चल रहा है। वहां अगर एक व्यक्ति कुछ घंटे अतिरिक्त काम करके किसी काम को पूरा कर सकता है तो उसके लिए दो लोगों को कभी नियुक्त नहीं किया जाता। इसके चलते अक्सर प्रमुख क्षेत्रों में आवश्यकता से कम कर्मचारी रह जाते हैं और अवसर गंवा दिए जाते हैं। ऐसे में आपके पास मशीनीकृत उत्पादन व्यवस्था हो सकती है लेकिन चूंकि आपके मानव संसाधन संबंधी कार्यों को कम प्राथमिकता दी जाती है इसलिए आपके पास कर्मचारियों का भी सही आवंटन नहीं होता। निश्चित तौर पर अगर मानव संसाधन विभाग को जरूरी संसाधन दिए जाएं तो भी अगर वह सही अनुमान लगाने की तकनीक का इस्तेमाल करे तो बहुत चकित करने वाली बात होगी।
बृजेश्वर सिंह कहते हैं कि डीओपीटी को मार्कोव विश्लेषण का इस्तेमाल करके यह अनुमान लगाना चाहिए कि कितने लोगों की आवश्यकता होगी। जब मैंने उनसे कहा कि मार्कोव प्रक्रिया को डीओपीटी को समझाना होगा तो उन्होंने कहा, ‘आप एक पत्रकार हैं, आप ही ऐसा कीजिए।’ तो आइए इसे देखते हैं।
इसे यह नाम रूसी गणितज्ञ आंद्रेई मार्कोव के नाम पर मिला है जिन्होंने 1906 में इसे प्रमाणित किया था। उसके बाद से ही लगातार इसका इस्तेमाल किया जाता है।
विकिपीडिया के हवाले से कहें तो मार्कोव विश्लेषण का इस्तेमाल ऐसे चर का मूल्य निकालने में किया जाता है जिसका अनुमानित मूल्य केवल वर्तमान स्थिति से प्रभावित हो, न कि किसी अन्य पूर्ववर्ती घटनाक्रम से। संक्षेप में कहें तो यह एक यादृच्छिक चर का अनुमान पेश करता है जो पूरी तरह उस चर के इर्दगिर्द की वर्तमान परिस्थितियों पर निर्भर करता है। बिना गणितीय जटिलताओं में गए कहा जा सकता है कि हम इसका इस्तेमाल किसी चर के भविष्य के व्यवहार का आकलन करने में कर सकते हैं जिसकी वर्तमान स्थिति या व्यवहार यादृच्छिक है, यानी जो किसी भी दिशा में जा सकता है।
कहने का अर्थ यह है कि चाहे मार्कोव विश्लेषण हो या कर्मियों की आवश्यकता का अनुमान लगाने का कोई और तरीका, सरकार आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करने के मामले में बहुत पीछे है। उसे इस दिशा में तेजी से प्रगति करनी होगी वरना वह गहरे संकट में फंस जाएगी।
