देश के कारोबारी जगत का चर्चित चेहरा रहे दो कारोबारियों ने पिछले दिनों नये सिरे से अपनी कंपनियों को ऋणशोधन प्रक्रिया से निकालने का प्रयास किया। दिवालिया हो चुकी वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज के प्रवर्तक वेणुगोपाल धूत ने जहां कर्जदारों को 31,000 करोड़ रुपये चुकता करने की पेशकश की, वहीं दीवान हाउसिंग फाइनैंस कॉर्पोरेशन (डीएचएफएल) के कपिल वधावन ने कहा कि वह 10 परियोजनाओं में अपना अधिकार, टाइटल और हित छोडऩे को तैयार हैं। उन्होंने दावा किया कि इन सबका मूल्य तकरीबन 44,000 करोड़ रुपये है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा नियुक्त प्रशासक को जेल से लिखे पत्र में वधावन ने कहा कि इससे डीएचएफएल का समुचित और पूरा निस्तारण हो सकेगा और परिसंपत्तियों का समुचित मूल्य भी मिल सकेगा।
यह पेशकश विचित्र थी क्योंकि यह ऐसे लोगों से आई जिनकी प्रतिष्ठा को बीते कुछ महीनों में पहले ही काफी क्षति पहुंच चुकी है। आखिर कोई ऐसा व्यक्ति जो आज 44,000 करोड़ रुपये की निजी संपत्ति होने का दावा कर रहा है वह इतने समय तक कर्जदारों की राशि चुकाने में आनाकानी क्यों कर रहा था? धूत और वधावन दोनों को इस बात के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है कि उन्होंने अपनी कंपनियों, बैंकरों और कर्मचारियों को मुसीबत में डाला।
आश्चर्य की बात है कि उनके प्रस्तावों को कुछ समर्थक भी मिल गए हैं जिनका कहना है कि ‘फीनिक्सिंग’ का अवसर मिलना चाहिए यह वैध है। फीनिक्सिंग में प्रबंधन कंपनी को इसलिए निस्तारण या नकदीकरण के लिए पेश करता है ताकि उस कारोबार को दोबारा खरीदकर उसी क्षेत्र में एक नई ‘फीनिक्स’ कंपनी स्थापित कर सके। यह कंपनी पुरानी कंपनी के कर्ज से मुक्त रहती है।
इस व्यवस्था के समर्थकों का यह भी कहना है कि एस्सार समूह के रुइया परिवार को ऋणशोधन निस्तारण प्रक्रिया के दौरान एस्सार स्टील का कारोबार दोबारा खरीदने की इजाजत नहीं मिलना एक तरह से अनुचित था। उनका कहना है कि सरकार को केवल विधिक प्रक्रिया के धूत और वधावन के खिलाफ होने के कारण सरकार को वही गलती नहीं दोहरानी चाहिए। भारत में इस बारे में मिलेजुले विचार हैं कि प्रवर्तकों को अपनी कंपनी दोबारा खरीदने का मौका दिया जाना चाहिए अथवा नहीं। कुछ लोगों का कहना है कि ब्रिटेन जैसे देशों में इसकी सशर्त मंजूरी है, वहीं अन्य का कहना है कि ऐसा लेनदेन संबंधित पक्षों को यह अवसर देता है कि वे उन सूचनाओं का इस्तेमाल करें जो केवल उनके पास होती हैं और इससे उन्हें बेहतर सौदेबाजी का मौका मिलता है। यही बड़ी बहस है लेकिन क्या कोई देश ऐसे लोगों को यह अवसर देगा जिनकी विश्वसनीयता बहुत कम बची हो?
पहले वीडियोकॉन की बात करते हैं। धूत, जो अक्सर अपनी जिजीविषा के लिए भगवद गीता को श्रेय देते हैं, ने इस बात का उदाहरण पेश किया है कि कैसे कंपनियों के विस्तार के लिए बेतहाशा कर्ज लिया जाए और फिर उसे चुकाने में नाकामी हाथ लगे। यह पहली कंपनी थी जिसे भारत में रंगीन टेलीविजन बनाने का लाइसेंस मिला था। धीरे-धीरे यह कंपनी उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक वस्तु बाजार के सबसे बड़े ब्रांड में से एक बन गई। परंतु सन 2000 के आरंभ में समूह ने अपने मूल कारोबार से परे जाकर तेल एवं गैस, दूरसंचार, खुदरा और डाइरेक्ट टु होम सेवाओं में प्रवेश करने का निर्णय लिया। इसके लिए जम कर कर्ज लिया गया लेकिन कंपनी की इस कर्ज को चुकाने की क्षमता कम होती गई। हालात खराब होने पर धूत ने अपनी कुछ परिसंपत्तियां बेचने का प्रयास किया लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी।
बड़ा झटका 2018 में लगा जब केंद्रीय जांच ब्यूरो ने धूत को भ्रष्टाचार, धोखाधड़ी और आईसीआईसीआई बैंक की तत्कालीन सीईओ चंदा कोछड़ और उनके पति से जुड़े एक मामले में आपराधिक षडयंत्र का आरोपी बनाया। आखिरकार वीडियोकॉन का मामला नैशनल कंपनी लॉ पंचाट (एनसीएलटी) के पास ऋणशोधन की प्रक्रिया के लिए पहुंचा क्योंकि समूह की विभिन्न कंपनियों के खिलाफ 85,000 करोड़ रुपये से अधिक के दावे एकत्रित हो चुके थे और समूह की विशुद्ध परिसंपत्तियां ऋणात्मक हो चुकी थीं।
वधावन का रिकॉर्ड तो और भी खराब है। आरबीआई द्वारा नियुक्त प्रशासक को लिखे पत्र में उन्होंने बाहरी ताकतों का जिक्र अवश्य किया है जो उन्हें और उनकी कंपनी को समाप्त करना चाहती हैं लेकिन तथ्य यही है कि आरबीआई ने डीएचएफएल को गत वर्ष नवंबर में ऋणशोधन प्रक्रिया के लिए एनसीएलटी के पास भेजा। ऐसा तब किया गया जब उसका कर्ज 80,000 करोड़ रुपये से अधिक हो चुका था। डीएचएफएल का पतन एक और केस स्टडी है जिसमें यह अध्ययन किया जा सकता है कि कैसे प्रवर्तक एक सफल कारोबार को बहुत जल्दी बहुत बड़ा बनाने के चक्कर में बरबाद कर सकते हैं। वधावन के खिलाफ कई आरोप हैं। ग्रांट थॉर्नटन की एक रिपोर्ट के अनुसार डीएचएफएल में वर्ष 2006-07 से 2018-19 के बीच सैकड़ों करोड़ रुपये मूल्य के धोखाधड़ी भरे लेनदेन किए गए। इसके अलावा प्रवर्तकों ने फंड को कुछ इस प्रकार इधर से उधर किया कि कर्जदारों ने डीएचएफएल के खाते को धोखेबाजी वाले खाते के रूप में श्रेणीबद्ध कर दिया।
प्रवर्तन निदेशालय का कहना है कि वधावन ने गैंगस्टरों के साथ अचल संपत्ति के सौदे किए और नियामक ने डीएचएफएएल के प्रवर्तकों को प्रतिभूति बाजार में कारोबार से रोक दिया क्योंकि उनके लेनदेन पर संशय था और वे कई साल से झूठे वित्तीय दस्तावेज दे रहे थे। बैंक डीएचएफएल से 40,000 करोड़ रुपये के कर्ज का मात्र एक हिस्सा वसूल कर सकते हैं क्योंकि वधावन ने अपने पत्र में जिन परिसंपत्तियों का जिक्र किया है उनमें से अधिकांश कथित रूप से दागी संपत्तियां हैं और जांच के दायरे में हैं। अहम सवाल तो यही है कि क्या ऐसे दागी अतीत वाले लोग जिन्होंने अपनी कंपनियों, कर्मचारियों कर्जदाताओं और अन्य अंशधारकों को डुबोया हो, उन्हें दूसरा मौका मिलना चाहिए?
