आपमें से कई लोगों को 1992 की शुरुआत की तो याद होगी ही, जब सेंसेक्स ने तेज उड़ान भरनी शुरू की थी।
15 जनवरी, 1992 को सेंसेक्स सिर्फ 2000 अंकों पर था, जबकि मार्च के अंत तक आते-आते यह 4000 अंक के पहाड़ पर खड़ा मुस्कुरा रहा था। लेकिन यही वह वक्त था, जब हर्षद मेहता के शेयर घोटाले ने बाजार की अचानक ही चूलें तक हिला दीं।
जल्द ही, बाजार बिकवाली के समुद्र में गोते लगाते नजर आने लगा था। कुछ दिनों में वह वापस वहीं पहुंच गया, जहां से उसने शुरुआत की थी। इस शेयर घोटाले की वजह से तो पहले से ही राजनीतिक संकट में फंसी पी.वी. नरसिंह राव सरकार की मुश्किलें और भी बढ़ गई थीं।
जब इस घोटाले की जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय कमेटी (जेपीसी) बैठी, तब तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह को हर तरफ से हमलों का सामना करना पड़ रहा था। उनके आलोचकों का यह कहना था कि मनमोहन सिंह ने पूंजी बाजार पर नकेल कसने के लिए जरूरी कदम नहीं उठाए, जिसका नतीजा मुल्क को उस घोटाले के रूप में झेलना पड़ा।
ध्यान रहे कि तब तक मनमोहन सिंह अपने आप में एक बड़ी शख्सियत बन चुके थे। वजह न केवल उनकी बेदाग छवि थी, बल्कि मुल्क को 1990 के उस भयानक आर्थिक संकट से बाहर निकलाने में उनकी जबरदस्त भूमिका भी थी। लेकिन मुसीबत के वक्त ये बातें काम न आईं। उनकी टांग खींचने में मशगूल लोगों में विरोधी दलों के नेताओं के साथ-साथ खुद सरकार में मौजूद लोग भी थे।
वे सभी इस घोटाले के मद्देनजर वित्त मंत्री के इस्तीफे की जोर-शोर से मांग कर रहे थे। लेकिन मनमोहन सिंह न सिर्फ एक अच्छे-खासे अर्थशास्त्री हैं, बल्कि वे एक कुशल प्रशासक भी हैं। उन्होंने अपनी दसियों सालों की सरकारी नौकरी के दौरान काफी कुछ सीखा है। इसलिए उन्हें अच्छी तरह से पता है कि सरकारी फाइलों का सामना कैसे किया जाता है।
जब जेपीसी ने जांच की शुरुआत की, तो उसे हर्षद मेहता से जुड़ी हर सरकारी फाइल पर मनमोहन सिंह के हाथों से लिखा नोट मिला। उन सभी नोट में लिखी बातें साफ दिखा रही थीं कि मनमोहन सिंह उस मुद्दे को लेकर कितने परेशान थे और कैसे उन्होंने इस बारे में बार-बार जल्द से जल्द कदम उठाने के लिए कहा था। वे एक ऐसे मंत्री थे, जिन्होंने कभी भी सही कदम उठाने की सिफारिश करने से गुरेज नहीं किया। ऐसी हालत में जेपीसी उनके खिलाफ कोई भी कदम कैसे उठा सकती थी?
इस वजह से तो जेपीसी में मौजूद मनमोहन सिंह के विरोधियों की हालत इतनी बुरी हो चुकी थी। लाख कोशिशों के बाद उन्हें एक ऐसी चीज मिली, जिसकी मदद से वे मनमोहन सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल सकते थे। 1992 के शुरुआती दौर में जब सेंसेक्स एक के बाद एक बुलंदियों को छू रहा था, तब मनमोहन सिंह से संसद में पूछा गया था कि क्या बंबई स्टॉक एक्सचेंज के सूचकांक में आ रहे तेज बदलावों से वह परेशान हैं?
उन्होंने जवाब में कहा था, ‘एक वित्त मंत्री के तौर पर सेंसेक्स में रोजाना आ रहे बदलावों की वजह से मैं अपनी नींद में खलल नहीं डाल सकता।’ इस बयान के लिए किसी ने भी उन्हें तब दोषी नहीं माना था। हकीकत भी तो यही है कि एक ऐसे देश का वित्त मंत्री शेयर बाजार की उठा-पटक की चिंता क्यों करे, जहां केवल मुट्ठी भर लोग ही शेयर बाजारों में निवेश करते हैं।
ऐसे मुल्क के वित्त मंत्री को तो अगर परेशान होना ही है, तो वह महंगाई, मंदी या फिर शेयर बाजारों और बैंकिंग सिस्टम की बुनियादी खामियों के बारे में परेशान होगा। लेकिन जेपीसी में मौजूद उनके विरोधियों ने संसद में दिए उनके बयान को उनके खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल करना जारी रखा।
जेपीसी ने अपनी रिपोर्ट का जो मसौदा तैयार किया, उसमें एक लाइन थी, जिसका मतलब यह था कि शेयर बाजार में आ रहे तेज बदलावों के बावजूद वित्त मंत्री ने अपनी नींद में खलल डालना सही नहीं समझा। जेपीसी में शामिल कांग्रेस ने सदस्यों ने आखिरी रिपोर्ट में से इस लाइन को हटाने के लिए अपना पूरा जोर लगा दिया था।
इस मामले पर उनके जोर लगाने के पीछे भी अच्छी-खासी वजह थी। दरअसल, मनमोहन सिंह ने साफ कर दिया था कि अगर जेपीसी ने उन्हें दोषी पाया तो वह तुरंत अपना इस्तीफा प्रधानमंत्री को सौंप देंगे। जेपीसी की सिफारिशों से उन्हें काफी झटका लगा था।
उन्होंने मुझसे एक इंटरव्यू के दौरान कहा था, ‘मुझे पूरा भरोसा है कि इतिहास मुझे एक ऐसे वित्त मंत्री के रूप में कतई याद नहीं रखेगा, जो मुश्किलों के दौरान सो रहा था।’ हकीकत तो यह है कि उन्होंने अपना इस्तीफा दे भी दिया था, लेकिन पी.वी. नरसिंह राव ने उन्हें अपनी सरकार में बने रहने के लिए मना लिया।
आज इस लंबी कहानी को याद करना, इस बात को समझने के लिए काफी जरूरी है कि आज के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, शेयर बाजार में आज कल मची उठा-पटक के बारे में कुछ भी क्यों नहीं कह रहे? असल में, काफी पूछताछ करने के बावजूद मनमोहन सिंह हमेशा से ही स्टॉक मार्केट के बारे में कहने से बचते रहे हैं। उस दिन भी उन्होंने कुछ नहीं कहा था, जब संप्रग के सत्ता संभालने के कुछ ही दिनों के बाद सेंसेक्स सीधे 800 अंक गिर पड़ा था।
पिछले दिनों में आर्थिक मंदी के थपेड़ों की वजह से बड़े-बड़े पेड़ों के गिरने के बावजूद भी मनमोहन सिंह शांत ही रहे। हालांकि, उन्होंने वित्त मंत्री पी. चिंदबरम और रिजर्व बैंक के गवर्नर को उन कदमों को उठाने की पूरी छूट दी, जिससे बाजार में पूंजी का प्रवाह बढ़ाया जा सके। सोमवार को भी संसद में दिए उनके बयान में सेंसेक्स का नाम तक नहीं आया।
वैसे, मनमोहन सिंह की सेंसेक्स पर बयान देने से बचने की एक और वजह है। संप्रग सरकार के लिए शेयर बाजार आम आदमी से जुड़ा कोई मुद्दा कतई नहीं हो सकता है। एक प्रधानमंत्री के तौर पर आज भी उनकी पहली प्राथमिकता विकास, महंगाई और ग्रामीण इलाकों में रोजगार है। ऐसे वक्त में जब कांग्रेस अगले आम चुनावों की तैयारी में लगी हुई है, ये मुद्दे सरकार के लिए ज्यादा अहम हैं।
सेंसेक्स में गिरावट का असर तो शहरी इलाकों के भी काफी कम लोगों पर पड़ता है। लेकिन महंगाई का असर तो मुल्क के लाखों-करोड़ों लोगों पर पड़ता है। इसलिए सेंसेक्स को नजरअंदाज करना उनके लिए राजनीतिक तौर पर महंगा साबित नहीं हो सकता। दूसरी ओर, महंगाई की वजह से उनकी सरकार की लुटिया जरूर डूब सकती है। मनमोहन सिंह इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ हैं।