चीनी स्टॉक पर सीलिंग लगाने और आयात को उदार बनाने का सरकारी फैसला ठीक नहीं है (क्योंकि घरेलू आपूर्ति की स्थिति ठीक है) और इसके लिए समय भी सही नहीं है (क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतों में मजबूती बनी हुई है और भारत के मुकाबले ऊंची है)।
घरेलू बाजार में चीनी की कीमत में नरमी लाने के लक्ष्य से चीनी आयात का फैसला किया गया है लेकिन ऐसे आयात से पहले से दबाव में चल रहे चीनी उद्योग का रास्ता और मुश्किल भरा हो जाएगा, जब तक कि गन्ना उत्पादकों को कोई मूर्त लाभ मुहैया न कराया जाए।
वास्तव में गन्ने का बुआई क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है क्योंकि किसान इस फसल में दिलचस्पी नहीं ले रहे। कम कीमतें और इस सीजन में चीनी के कम उत्पादन के चलते चीनी मिलों द्वारा गन्ने का समय पर भुगतान सीमित हो जाएगा और इस वजह से बकाया राशि में बढ़ोतरी होगी। ऐसे में किसानों की मुश्किलें बढ़ेंगी।
चीनी की अर्थव्यवस्था में वर्तमान गिरावट से दबाव बढ़ेगा और इससे आयात अवश्यंभावी हो जाएगा। वैश्विक चीनी बाजार में भारत के प्रवेश की संभावना भर से ही चीनी की कीमतें 20 फीसदी तक चढ़ चुकी हैं। पूरे साल कदम उठाने में गड़बड़ियां देखी गईं।
चीनी से संबंधित नीति निर्माता चीनी उत्पादन में होने वाली गिरावट का आकलन करने में नाकाम रहे, बावजूद इसके सीजन की शुरुआत में ही गन्ने के उत्पादन क्षेत्र में कमी आने की हर किसी को जानकारी थी। उन्हें पूरा भरोसा था कि चीनी का उत्पादन 220-230 लाख टन की सालाना मांग की पूर्ति कर देगा और 100 लाख टन के शुरुआती स्टॉक के चलते पर्याप्त मात्रा में चीनी का स्टॉक बनाए रखेगा।
लेकिन 165 लाख टन के चीनी उत्पादन के सरकारी आकलन के बावजूद चीनी की किल्लत का कोई खतरा नहीं है। कम उत्पादन के बावजूद साल 2008-09 में 265 लाख टन चीनी उपलब्ध होगी, जो कि अनुमानित मांग को पूरा करने के लिए न सिर्फ पर्याप्त है बल्कि इसमें से कुछ स्टॉक अगले सीजन में भी ले जाया जा सकता है।
ऐसे मौके पर शून्य शूल्क पर कच्ची चीनी के आयात को प्रोत्साहित करने से चीनी के स्टॉक में बढ़ोतरी होगी, कीमतें घटेंगी और किसान दूसरी फसल की ओर जाएंगे। (कच्ची चीनी के आयातकों को तीन साल के अंदर रिफाइंड चीनी की उतनी ही मात्रा निर्यात करनी होगी)।
किसी भी मामले को देखें तो चीनी की कीमत की बाबत आधिकारिक चिंता सही नहीं है। दो तिहाई चीनी कन्फेक्शनरी मार्केट और कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली कंपनियां खरीदती हैं, यानी ये औद्योगिक उपभोक्ता हैं जिन्हें कीमतों की बाबत सुरक्षा की दरकार नहीं है। बाकी खपत खुदरा ग्राहकों के बीच होती है और इनमें से सिर्फ 10 फीसदी सब्सिडी वाली कीमत पर गरीबों को बेची जाती है।
किसी भी परिवार के बजट में चीनी की खपत काफी कम मात्रा में होती है, लिहाजा इसकी कीमत के प्रति सरकार की संवेदनशीलता समझ से परे है। असली वजह थोक मूल्य सूचकांक में पुराना पड़ चुका भार हो सकता है जो महंगाई की ऊंची दरों के होने पर चिंता को बढ़ावा देती थी।
फिलहाल ऐसा कोई मामला नहीं है, ऐसे में यह समझना मुश्किल है कि क्यों चीनी की कीमत को पर्याप्त रूप से संवेदनशील मुद्दा मानते हुए अतार्किक रूप से चीनी आयात का फैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा।
