मीडिया में आम तौर पर धूम-धड़ाके के साथ होने वाले प्रस्तुतिकरण के विपरीत इस बार के अंतरिम बजट को काफी कम महत्त्व मिला। हर कोई निराश था।
हालांकि इस बारे में कोई सटीक तर्क नहीं दिया जा सकता है कि ‘विशेषज्ञ’ नई योजनाओं के अभाव के कारण निराश हुए थे या फिर शेयर बाजारों के सूचकांकों की उल्टी चाल ने उन्हें निराश कर दिया। कई मायनों में प्रभारी मंत्री ने वही बातें कहीं जिनके बारे में पहले से ही पता चल चुका था।
आय और व्यय के बयानों ने इस बात की पुष्टि की कि राहत पैकेज दिए जाने की बहुत अधिक गुंजाइश नहीं है और अब किसी भी नए राहत पैकेज की घोषणा की जिम्मेदारी आगामी लोक सभा चुनावों के बाद सत्ता में आने वाली नई सरकार पर ही होगी।
यह कहना सही होगा कि अंतरिम बजट वित्त वर्ष 2009-10 के दौरान सरकार की आय और व्यय की योजना तैयार करने के बजाए वर्ष 2008-09 के दौरान सरकार के आय और व्यय के बयानों की घोषणा के नाम रहा है।
बजट ने राजस्व घाटे और वित्तीय घाटे में तेजी से बढ़ोतरी होने की आशंका की पुष्टि कर दी है, जो हम सभी को चिंतित करने वाली है। वित्त वर्ष 2008-09 के लिए सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले राजस्व घाटे के 4.4 प्रतिशत रहेने का अनुमान जताया गया है।
साथ ही इस दौरान वित्तीय घाटे के बढ़कर 6 प्रतिशत तक पहुंचने की बात कही गई है। बजट अनुमानों के मुताबिक इसे 2.5 प्रतिशत के स्तर पर होना चाहिए। इसमें हमें तेल और उर्वरक बॉन्ड के जरिए बढ़ने वाले बजटीय उत्तरदायित्व को भी जोड़ना होगा।
यह राशि करीब 95,942 करोड़ रुपये है, जो जीडीपी का करीब 1.8 प्रतिशत है। चूंकि जीएसडीपी वित्तीय घाटे के आधा प्रतिशत तक अतिरिक्त अनुमति दी जा रही है, जो जीडीपी का करीब 3 प्रतिशत है, इसलिए संचयी वित्तीय घाटा जीडीपी के 11 प्रतिशत तक पहुंच जाएगा। इसमें बजट से इतर देयताएं भी शामिल हैं।
आय और व्यय बयानों में संशोधन काफी प्रासंगिक है और इसकी उम्मीद पहले से ही जताई जा रही थी। तथ्य यह है कि चालू वित्त वर्ष के दौरान केंद्र सरकार के राजस्व अनुमानों में 59,766 करोड़ रुपये की कमी आई है और इसमें से केंद्र सरकार को उपलब्ध होने वाला राजस्व 41,180 करोड़ रुपये घटा है और राज्यों को अब पूर्व अनुमानों के मुकाबले 18,586 करोड़ रुपये कम मिलेंगे।
जीडीपी के अनुपात में, सकल कर राजस्व में आई कमी करीब 1.1 प्रतिशत है और केंद्र के हिस्से आने वाला कर राजस्व अब 0.8 प्रतिशत कम रह जाएगा। खर्च के मोर्चे पर, संशोधित अनुमान करीब 1,50,000 करोड़ रुपये अधिक हैं। यह आंकड़ा जीडीपी का करीब 2.7 प्रतिशत बैठता है।
सरकार के खर्च में भारी वृद्धि की यह राशि राजस्व व्यय के खाते में गई है। इस मद में सब्सिडी (जीडीपी का 1.1 प्रतिशत), वेतन में संशोधन, कर्ज माफी कार्यक्रम और भारत निर्माण योजना और अन्य प्रमुख कार्यक्रमों के लिए किया गया अतिरिक्त आवंटन शामिल हैं।
दरअसल, ये आंकड़े अक्टूबर और दिसंबर, 2008 में पेश की गईं अनुदान के लिए दो अनुपूरक मांगों को जोड़ कर तैयार किए गए हैं। हालांकि इन अतिरिक्त व्यय का महत्त्वपूर्ण हिस्सा यह है कि बजट अनुमानों में शामिल प्रावधानों के तहत, अतिरिक्त खर्च के कारण कुल मांग में बढ़ोतरी हुई है और इसे वित्तीय राहत मुहैया कराने की कोशिश के तौर पर भी देखा जा सकता है।
कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इस साल दी गई राहत काफी पर्याप्त रही है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि विभिन्न क्षेत्रों को भारी निराशा हुई होगी क्योंकि अंतरिम बजट में किसी तरह के नए राहत पैकेज की घोषणा नहीं की गई है।
इसकी एक बड़ी वजह यह है कि, भले ही औचित्य का सवाल रहा हो, लेकिन किसी भी अतिरिक्त राहत की घोषणा के लिए मुश्किल से ही कोई वित्तीय गुंजाइश थी। इस साल के लिए पेश किया गया अतिरिक्त नकद व्यय जीडीपी का करीब 2.8 प्रतिशत है।
करीब 2.7 प्रतिशत राशि राजस्व खातों से है, जिसका कुल मांग पर तत्काल असर पड़ेगा। हालांकि मुद्रास्फीति तत्काल कोई समस्या नहीं है, अतिरिक्त उधारी के कारण ब्याज दरें बढ़ सकती हैं और लोग निजी क्षेत्र में निवेश से दूरी बना सकते हैं।
अमेरिका या जापान (जहां शून्य प्रतिशत ब्याज दर होने के बावजूद अतिरिक्त निजी निवेश नहीं हो रहा है) के विपरीत भारत में ब्याज दरों में कमी के साथ ही निवेश मांग में बढ़ोतरी होने का अनुमान है। वक्त की मांग है कि निजी क्षेत्र के पुनरुद्धार के लिए दशाएं तैयार की जाएं और ऐसा उधारी बढ़ाकर जुटाए गए अतिरिक्त व्यय के जरिए ही किया जा सकता है।
इसके अलावा मौद्रिक नीतियों का रास्ता भी खुला हुआ है और अगर रेपो, रिवर्स रेपो और सीआरआर में कमी करने की जरुरत पड़ती है तो इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए रिजर्व बैंक के पास काफी गुंजाइश है।
ऐसे में जबकि एसएलआर में प्रावधान है कि बैंकों की 24 प्रतिशत मांग और समय से जुड़ी देयताएं सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश की जा सकती हैं, तो ऐसे में 5 प्रतिशत के सीआरआर की कोई जरूरत नहीं है।
नई सरकार चाहें जिसकी भी बने, वित्तीय राहत कार्यक्रम को तैयार करने एक बेहद चुनौतीपूर्ण काम होगा। इसके अलावा जब तक की नई सरकार सत्ता में नहीं आ जाती है तब तक, अगले चार महीनों के दौरान, व्यापक आर्थिक नीतियां मुख्यत: मौद्रिक नीतियों द्वारा ही निर्देशित होंगी।
हालांकि इस समय का इस्तेमाल प्रमुख राजनीतिक दल अपने पैकेज तैयार करने के लिए कर सकते हैं। अंतरिम बजट में मौजूदा कार्यक्रमों के लिए जीडीपी के अनुमात में 4 प्रतिशत के राजस्व घाटे और 5.5 प्रतिशत के वित्तीय घाटे का प्रावधान किया गया है।
कच्चे तेल की कीमतों में आई कमी से सरकार को अतिरिक्त समर्थन मिला है। कम से कम उसे तेल और उर्वरक के लिए बांड का प्रावधान तो नहीं करना पड़ेगा। इस कारण अगर नई सरकार राजस्व घाटे को चालू वित्त वर्ष के स्तर पर ही रखने का फैसला करती है तो उसे जीडीपी का 2.5 प्रतिशत अतिरिक्त व्यय नहीं करना पड़ेगा।
इसके अलावा, विभिन्न सरकारी विभागों को तत्काल अपनी कार्य योजना तैयार करने शुरू कर देना चाहिए। परियोजना को पूरा करने के लिए किए जाने वाले वाले खर्च की प्राथमिकताएं तय की जानी चाहिए।
इससे न सिर्फ कुल मांग को बढ़ावा मिलेगा बल्कि इसके जरिए ढांचागत क्षेत्र की बाधाओं को भी दूर किया जा सकेगा। निश्चित तौर सेर् नई सरकार के लिए इन चुनौतियों से निपटना आसान नहीं होगा, फिर भी उम्मीद है कि हम इन चुनौतियों को अवसर में बदल सकेंगे।
