बड़ी मुश्किल से सोमवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, हिंदुस्तानी उद्योग जगत के साथ बातचीत करने को तैयार हुए। लेकिन इस बैठक से सबसे ज्यादा फायदा खुद सिंह को ही हुआ है। बता रहे हैं ए.के. भट्टाचार्य
इंडिया इंक के बड़े-बड़े पुरोधाओं ने बिल्कुल उसी तरह से काम किया है, जिसकी उम्मीद उनसे किसी भी मुश्किल हालत में होती है। जैसे ही उन्हें यह भरोसा हो गया कि वैश्विक मंदी का असर हिंदुस्तानी अर्थव्यवस्था और उनके कारोबार पर होकर ही रहेगा, तो उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ मिलकर सरकारी मदद, फिर चाहे वह नीतिगत हो या आर्थिक, का आश्वासन हासिल करने की कवायद तेज कर दी।
अब अगर डॉ. सिंह उनसे मिलने के ज्यादा इच्छुक नहीं थे, तो इस पर किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए। आखिर वह ऐसी किसी बैठक के लिए क्यों इतनी आसानी से तैयार हो जाते, जहां उनके कार्यकाल को उद्योग जगत की मांगों की सूची के आधार पर अच्छा या बुरा करार दिया जाएगा? उद्योग जगत के पुरोधाओं की तरफ से आए नकारात्मक संकेत, आर्थिक हालत का बेड़ा गर्क कर सकते थे।
अगर उनकी तरफ से डॉ. सिंह की तारीफ हुई तो भी वामदलों को यह कहने का मौका मिल जाता कि प्रधानमंत्री उद्योगपतियों के इशारे पर काम कर रहे हैं। असल में पहले-पहल जब बड़े उद्योगपतियों और प्रधानमंत्री के बीच बैठक का प्रस्ताव आया, तो उसे सिरे से खारिज कर दिया गया था। बाद में, इस तरह की खबरें आईं कि जल्द ही प्रधानमंत्री की व्यापार और कारोबार परिषद की बैठक होने वाली है। लेकिन वह बैठक भी नहीं हो पाई।
इसलिए पिछले सोमवार को जब प्रधानमंत्री बड़े उद्योगपतियों से मिलने के लिए तैयार हुए तो अटकलों का बाजार गर्म हो गया। लोग इस बात पर काफी करीब से नजर जमाए बैठे हुए थे, उद्योग जगत के पुरोधा सरकार से आखिर कौन-कौन से आश्वासन हासिल करने में कामयाब होते हैं। लेकिन अंत में इस पूरे खेल में जीतने वाले के तौर पर कोई उभरा तो उसका नाम था, डॉ. मनमोहन सिंह।
उन्होंने उस बैठक में मंदी के देसी अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर के बारे में बात की। साथ ही, उन्होंने यह कहकर भी उद्योग जगत की दुखती रग पर मरहम लगाया कि उनकी सरकार इस मुसीबत से दो-दो हाथ करने के लिए पूरी तरह से तैयार है और इसे काबू से बाहर नहीं जाने देगी।
लेकिन मंदी की वजह से पैदा हो रही दिक्कतों से निपटने के लिए एक कमेटी का गठन करने के अलावा उन्होंने इस बारे में कुछ नहीं किया, जिससे पता चले कि सरकार क्या करने की सोच रही है। उल्टे प्रधानमंत्री ने ही हिंदुस्तानी उद्योग जगत के पुरोधाओं से ही कई सारे वादे हासिल कर लिए।
अपने शुरुआती भाषण में ही प्रधानमंत्री ने उद्योग जगत के बड़े नामों से बड़े स्तर पर छंटनी करने से बचने को कहा। इसका उद्योग जगत के पास कोई जवाब नहीं था, इसीलिए उन्हें मनमोहन सिंह से यह वादा करने को मजबूर होना पड़ा कि कम से कम अगली दो-तीन तिमाहियों में वे बड़े स्तर पर कर्मचारियों को बाहर का रास्ता नहीं दिखाएंगे।
शायद कारोबारियों को प्रधानमंत्री से ऐसी किसी सलाह की उम्मीद कतई नहीं थी। इसलिए जैसे ही प्रधानमंत्री ने यह सलाह दी, उनके पास उसे मानने के अलावा दूसरा रास्ता नहीं बचा था।
आप जिस तरह से चाहें, इसे देख सकते हैं। लेकिन असल में यह मनमोहन सिंह का मास्टरस्ट्रोक था। यह बात भी बिल्कुल सही है कि इस बैठक की मुख्य वजह आर्थिक संकट था।
सरकार को यह बताने की बिल्कुल जरूरत थी कि अगर आगे भी नीतिगत फैसले गलत साबित होते रहे, तो सरकार उनकी जरूर मदद करेगी। उद्योगों को भरोसा दिलाने की जरूरत थी। लेकिन प्रधानमंत्री के इस कदम से बड़े-बड़े उद्योगपति भी हैरत में पड़ गए कि उन्होंने इस आर्थिक एजेंडे के साथ-साथ राजनीतिक एजेंडा भी जोड़ रखा था।
वह राजनीतिक एजेंडा था, आर्थिक मंदी की वजह से इस बात को सुनिश्चत करना कि कांग्रेस के चुनावी भविष्य पर इसका असर न हो। साल के इन आखिरी दो महीनों में एक या दो नहीं, पूरे आधे दर्जन विधानसभाओं के लिए चुनाव होने हैं।
ऊपर से अगले साल की शुरुआत में आम चुनाव भी होने हैं। इसी वजह से सिर्फ महंगाई ही प्रधानमंत्री की चिंता की इकलौती वजह नहीं है। उन्हें मंदी की वजह से उद्योग और सेवा क्षेत्र में होने वाली बड़े स्तर के होने वाली छंटनी की भी चिंता सता रही थी।
महंगाई की दर में कमी तो वैसे ही दिखाई देने लगी है। इससे सरकार को राहत तो मिली, लेकिन जेट एयरवेज के अपने 1900 कर्मचारियों को रातोंरात निकाल देने की वजह से गठबंधन दलों की सांस फिर से अटक गई।
उन्हें इस बात का डर सताने लगा कि कहीं मंदी की वजह से होने वाली छंटनी की कीमत उन्हें चुनाव में चुकानी पड़ सकती है। अगर जेट ने अपने छंटनी के फैसले को वापस लिया, तो इसकी एक बड़ी वजह गठबंधन के नेताओं की तरफ से जबरदस्त दबाव भी था।
अगर जेट एयरवेज की तर्ज पर दूसरी कंपनियों ने भी छंटनी का फैसला कर लिया, तो इन विधानसभा चुनावों के साथ-साथ आम चुनाव में भी कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील सरकार (संप्रग) का बेड़ा गर्क होना तय है। वैसे, मौजूदा हालात को देखते हुए और छंटनी की पूरी उम्मीद है।
इसी चिंता ने मनमोहन सिंह को उद्योग जगत के बड़े नामों से मिलने से पहले जरूर काफी परेशान किया होगा। ऐसे हाल में इससे बढ़िया क्या होगा, अगर खुद उद्योग जगत कम से कम अगले कुछ महीनों तक छंटनी न करने का वादा करे।
मनमोहन सिंह को सोमवार को उद्योगपतियों के साथ हुई बैठक से कई सारे फायदे हुए हैं। उन्होंने बिल्कुल वही किया है, जो जबरदस्त आर्थिक संकट की इस घड़ी में एक जिम्मेदार प्रधानमंत्री को करना चाहिए था।
उन्होंने उद्योग जगत को इस बात का पूरा आश्वासन दिया कि सरकार अर्थव्यवस्था की नब्ज गर्म रखने के लिए हर मुमकिन कदम उठाएगी। इससे कारोबारियों का भरोसा बढ़ा है। साथ ही, उन्होंने बड़ी कंपनियों से कम से कम अगले छह महीने तक छंटनी नहीं करने का वादा भी ले लिया है।
यह कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी के लिए चुनावों में जाने से पहले तोहफे के माफिक है। एक तरफ महंगाई काबू में है, दूसरी ओर बड़ी तादाद में छंटनी का भी खतरा नहीं है। ऐसे हाल में कांग्रेस के चुनाव मैनेजरों के लिए चीजें थोड़ी आसान तो हुई ही हैं। लेकिन बड़ा सवाल अब भी वहीं का वहीं है। सोमवार को हुई बैठक से इंडिया इंक. को क्या फायदा हुआ है?