राजनीतिक नीतियां प्रासंगिक नहीं
श्रवण कुमार ठाकुर
भोपाल
मुझे नहीं लगता है कि मंदी से निपटने में राजनीतिक दलों की आर्थिक नीतियों की कोई प्रासंगिकता है क्योंकि नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण ने सभी देशों की भौगोलिक सीमाओं को खत्म कर दिया है। विकासशील और अल्पविकसित देशों की आर्थिक नीतियों में विकसित देशों द्वारा मनमानी शर्तें थोपी जा रही हैं।
यही वजह है कि देश में कुटीर व लघु उद्योग मंदी से महामंदी में चले गए हैं। इतना ही नहीं हमारी देसी कंपनियां विदेशी कंपनियों के पैसे व ताकत के आगे आत्मसमर्पण करती नजर आ रही हैं। जाहिर है विकसित देशों की अर्थव्यवस्था यदि मंदी के चपेट में है तो हमारा देश इससे अछूता कैसे रहेगा।
बयानबाजी तक सिमटी हैं पार्टियां
अमित कुमार उपाध्याय
एडवोकेट, सदस्य कार्यकारिणी जनपद बार एसोसिएशन, बस्ती, उत्तर प्रदेश
यह दुर्भाग्य की बात है कि हमारे राजनीतिक दल बयानबाजियों तक ही सिमटे रहते हैं। वे जनता को लुभाने के लिए अपने विरोधी दल को कमजोर करने के लिए लच्छेदार बातें करते हैं लेकिन जब उन्हें अवसर मिलता है तो वायदे पूरा नहीं करते हैं।
बात जहां तक देश को मंदी से बचाने की है तो अभी तक किसी भी राजनीतिक दल में इस मुद्दे पर अपनी नीति स्पष्ट नहीं की है। इसीलिए इस संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। समय का तकाजा है कि राजनीतिक दल अपनी नीतियां स्पष्ट करें।
पूर्ण बहुमत प्राप्त पार्टी से होगा इलाज
निरंजन लाल अग्रवाल
रिटायर्ड बैंक अधिकारी, 1889, इंदिरा नगर, लखनऊ
स्वतंत्रता के बाद 60 वर्षों में अधिकतर केंद्र में कांग्रेस दल की सरकार रही है। अगर हम अपनी वर्तमान आर्थिक स्थिति का आकलन करें तो मंदी एवं महंगाई आदि विपरीत परिस्थितियों के बावजूद हमारी आर्थिक स्थिति अनेक देशों की तुलना में काफी सुदृढ़ है। इस समय हमारे देश पर वैश्विक मंदी का असर कम ही पड़ेगा।
केंद्रीय सरकार चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो, अगर वह पूर्ण बहुमत से बनी होगी तो ही वह आर्थिक नीतियों एवं अन्य नीतियों का कार्यान्वयन बिना किसी अडंग़े के कर सकती है और तभी सरकार देश को आर्थिक मंदी ऐसी परिस्थितियों से बचा सकती है।
किसी दल से नहीं है उम्मीद
कृष्ण कुमार उपाध्याय
वरिष्ठ अधिवक्ता, 8262 बैरिहवां, बस्ती, उत्तर प्रदेश
मेरी समझ से किसी भी दल की आर्थिक नीतियां देश को मंदी से बचा पाने में सक्षम नहीं हैं। आजादी से अब तक यह समस्या पहले कभी नहीं आई इसलिए इसके प्रति कोई गंभीरता नहीं रही। आज तो हालात आग लगने पर कुआं खोदने जैसी हो गई है फिर जब सारी दुनिया इस समस्या से त्राहि-त्राहि कर रही है तो हम भारतवासी दुनिया भर से बाहर तो हैं नहीं। किसी राजनीतिक दल से कोई उम्मीद नहीं है।
मंदी में अच्छे-अच्छों की नीतियां बहीं
सुनील जैन ‘राना’
छत्ता जम्बू दास, सहारनपुर, उत्तर प्रदेश
देश में राष्ट्रीय दल दो ही हैं, कांग्रेस और भाजपा। बाकी तो सब मिलकर ‘दल-दल’ हैं। आर्थिक नीतियां कांग्रेस की भी ठीक है और भाजपा की भी। बाकी का तो भगवान ही मालिक। लेकिन जब-जब वैश्विक मंदी की बाढ़ आती है तो उसकी बहती में अच्छे-अच्छे देशों की नीतियां बह जाती हैं। हमारे देश में उद्योगों के फंडामेंटल्स मजबूत हैं, बैंकों की ऋण नीतियां ठीक हैं।
किसी भी दल पर भरोसा नहीं
डॉ. बी. के. वर्मा
गोटवा, बस्ती, उत्तर प्रदेश
इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जनता को किसी भी मुसीबत से बचाने के लिए कोई भी राजनीतिक दल कभी भी निष्ठा एवं नि:स्वार्थ भाव से सामने नहीं आता है। इस मंदी के दौर में भी हालात वैसे ही हैं इसलिए मुझे तो किसी भी राजनीतिक दल पर भरोसा नहीं है।
नीतियों का सामंजस्य न होना गंभीर
मिहिर मणि मिश्र
केशव नगर, सीतापुर रोड, लखनऊ
केंद्र और राज्य सरकार के मध्य आर्थिक नीतियों का सामंजस्य न होना गंभीर समस्या रही है। वैश्विक परिवेश में स्वावलंबन के अर्थशास्त्र की स्वीकृति को उपेक्षित कर आर्थिक नीतियों का निर्धारण करके कोई भी दल भारत को मंदी से बचा नहीं सकता है। स्वावलंबन के अर्थशास्त्र के पक्षधर, जो राज्यों से निष्पक्ष तालमेल रख सकें, स्पष्ट आर्थिक नीति बनाकर भारत को मंदी के चक्रवात से बचा सकते हैं।
किसी के पास नहीं है जादू की छड़ी
आमोद कुमार उपाध्याय
पत्रकार, डेबरी, संत कबीर नगर, उत्तर प्रदेश
जब से अमेरिका का वित्तीय बैंक दिवालिया हुआ है, तब से अब तक रोज अखबारों की सुर्खियां दुनियां भर की आर्थिक मंदी ही बनी हुई हैं। मंदी की जड़ें गहरी हैं। इसलिए कोई भी राजनीतिक दल हो किसी के पास जादू की छड़ी तो है नहीं इसलिए इसके दूर होने में समय लगेगा।
आयातित मॉडल नहीं करेगा इलाज
डॉ. एम. एस. सिद्दीकी
पूर्व विभागाध्यक्ष, अर्थशास्त्र, बद्री विशाल कॉलेज, फर्रूखाबाद, उत्तर प्रदेश
स्वतंत्रता के बाद हमने आर्थिक नियोजन में ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ की अवधारणा को स्वीकार किया था। परंतु 1991 से वैश्वीकरण का दौर प्रारंभ हुआ। हमने अपनी अर्थव्यवस्था को विश्व अर्थव्यवस्था से जोड़ना शुरू किया। विश्व में एकीकृत बाजार प्रणाली का उदय हुआ। इसी व्यवस्था के कारण ही देश की अर्थव्यवस्था भी मंदी की चपेट में आ गई।
परंतु मंदी का निराकरण किसी भी देश से आयातित मॉडल द्वारा संभव नहीं है। हमें मंदी का निदान अपनी परिस्थितियों के अनुसार निकालना होगा। बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश और विशालकाय बुनियादी ढांचागत परियोजनाएं मंदी को मारने के आजमाए हुए उपाय हैं।
समस्या की समझ नहीं, निदान कैसे!
अभय प्रकाश त्रिपाठी
डाक अधीक्षक कार्यालय भवन, मालवीय रोड, बस्ती, उत्तर प्रदेश
अभी भी ज्यादातर लोगों की धारणा है कि मंदी का दौर आने से केवल शेयर बाजार से जुड़े लोग ही प्रभावित होंगे क्योंकि शेयर सूचकांकों की गिरावट आते ही समाचारपत्र और टीवी चैनल प्रमुखता से प्रकाशित व प्रसारित करते हैं जबकि आर्थिक मंदी के इस दौर में दुनिया का कोई भी आदमी अछूता नहीं रहेगा। इससे तो लगता है कि अभी तक उन्हें इस समस्या की पूरी तरह से समझ ही नहीं हो पाई है तो वे समाधान कैसे करेंगे? वैसे भी मंदी दूर होने में मेरी समझ में दस साल तो लगेगा ही।
यूपीए की नीतियां बचा सकती हैं
विकास कासट
व्यवसायी, 373, विवेक विहार, सोडाला, जयपुर
वैश्वीकरण के दौर में आज विश्व के सभी देशों की अर्थव्यवस्थाएं एक दूसरे से काफी हद तक जुड़ी होती हैं। ऐसे में वैश्विक कारणों से आने वाली मंदी से रक्षा करके देश को ही नहीं विश्व को भी यूपीए पार्टी की आर्थिक नीतियां बचा सकती हैं। किन्तु घरेलू कारणों से पैदा होने वाली मंदी से नई उभरने वाली जागो पार्टी की नीतियां ही देश को बचा सकती हैं।
सरकार और विपक्ष, दोनों खोखले
मुकेश मिश्रा
मिश्रा ब्रदर्स, गांधी नगर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
मंदी ने दुनिया भर के जनमानस को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि संकट के इस दौर से मुक्ति कैसे मिलेगी? क्योंकि मंदी के दौर से छुटकारा पाना आसान नहीं है। एक के बाद एक जितने भी उपाय भारत सरकार द्वारा अब तक किए गए सब नाकाम साबित हुए। विपक्षी दलों की कोई स्पष्ट राय ही इस संबंध में अब तक सामने नहीं आई है इसलिए किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है।
अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री से बेहतर कौन
तहेरा खानन
छात्रा, एमए (अर्थशास्त्र), 3ए ग्रीन वैली, जाकिरनगर, जमशेदपुर
जिस दल में एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री और एक सही उपाय निकालने वाला उचित मंत्री हो तो मंदी से बचने के लिए उचित निर्णय इनसे अच्छा और कौन ले सकता है। हमारी मजबूत आर्थिक नीतियों के ही कारण मंदी अपना असर काफी समय बाद और बहुत कम दिखा पाई है। इससे बचने के लिए सस्ती ऋण की उत्पादों, महंगाई में कमी, नौकरी बचाने आदि के हर प्रयास भी किए जा रहे हैं।
अब तो भगवान का ही भरोसा
श्रीमती समीर उपाध्याय
बैरिहवां, गांधी नगर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
देश के नेता कुछ राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव तथा आसन्न लोकसभा चुनाव में इतने व्यस्त हैं कि आर्थिक मंदी से छुटकारा पाने का तरीका ढूंढने या अपने दल की नीति स्पष्ट करने की जरूरत ही नहीं समझ रहे हैं। अब तो भगवान का ही भरोसा है।
कोई राजनीतिक दल नहीं सक्षम
श्रीकांत तिवारी
एडवोकेट, कलेक्ट्रेट परिसर, बस्ती, उत्तर प्रदेश
दुनिया में आर्थिक मंदी की शुरुआत से अब तक हम भगवान भरोसे बने हुए हैं। राजनीतिक दल ओछी बयानबाजियां करने के अलावा कुछ नहीं कर रहे हैं। हमारे प्रधानमंत्री एक प्रसिध्द अर्थशास्त्री रहे हैं लेकिन समस्या विश्वस्तरीय होने के कारण अब तक समाधान नहीं मिल सका है। कोई ऐसा राजनीतिक दल मुझे नजर नहीं आता है, जिससे आर्थिक मंदी से देश को बचाने की उम्मीद की जा सके।
कांग्रेस की नीतियों से बचा है भारत
भरत कुमार जैन
अध्यक्ष, फोरम ऑफ एग्रो इंडस्ट्रीज, मध्य प्रदेश
कांग्रेस की मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति के तहत पंचवर्षीय योजनाओं के द्वारा मूलभूत, ढांचागत उद्योगों की स्थापना, बड़े बांध बनाकर विद्युत उत्पादन और सिंचाई क्षमता में वृध्दि एवं कृषि विकास की नई-नई तकनीकों एवं अनुसंधानों के क्षमता में भारी विकास के कारण ही आज भारत आणविकशक्ति संपन्न राष्ट्र बनकर विश्व के प्रमुख राष्ट्रों में गिना जाने लगा है। भारत स्वयं के साधनों से आर्थिक मंदी में भी अपनी आर्थिक विकास दर को प्रगति की ओर बढ़ाने में सक्षम सिध्द हो रहा है।
दलों को बदलने होंगे अपने विचार
डॉ. जी.एल. पुणताम्बेकर
रीडर, डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर, मध्य प्रदेश
‘मंदी’ का संकट मूलत: पूंजीवाद के वर्तमान स्वरूप के प्रति डिगते विश्वास का संकट है, जिससे उबरने के लिए मजबूत वैचारिक पूंजी और उस पर अडिग आस्था वाली आर्थिक नीतियों की जरूरत है, जो आज किसी भी राजनीतिक दल में दिखाई नहीं देती। यदि देश के प्रमुख दल अपने पुराने वैचारिक आधारों को खंगालें और उनमें समयानुकूल संशोधन करे तो मंदी के भूत को भगाया जा सकता है।
पुरस्कृत पत्र
दल नहीं, विशेषज्ञ संभालें कमान
राजीव भटनागर
डिपो इंचार्ज, बिनानी सीमेंट लिमिटेड, मथुरा, उत्तर प्रदेश
किस दल की आर्थिक नीतियां देश को मंदी से बचा पाएंगी, अपने आप में ही अति हास्यास्पद प्रश्न है। आजादी के छ: दशक बाद भी देश में इस समस्या को विश्लेषित करने व हल करने के लिए कोई प्रभावशाली तरीका स्थापित नहीं हो पाया है।
इस घनघोर मंदी से बचने के लिए दलगत विचारों से ऊपर उठकर दूरगामी परिणाम तथा उपलब्ध संसाधनों के अधिकतम दोहन को ध्यान में रखकर स्थायी रूप से किसी समिति अथवा विभाग की स्थापना की जानी चाहिए। विभाग के सदस्य उद्योगपति, आर्थिक सलाहकार तथा वरिष्ठ आईएएस हों, जो विभिन्न क्षेत्रों के प्रभावशाली कार्यपालकों की सलाह और सुझावों के आधार पर अपनी नीति निर्धारित करें। तब शायद कोई प्रभावी और प्रायोगिक नीति बन पाएगी।
सर्वश्रेष्ठ पत्र
नीति तो वामपंथी ही कारगर होगी
सोहन सिंह भदौरिया
भदौरिया भवन, मुख्य डाकघर, बीकानेर, राजस्थान
एक अरब की आबादी वाले संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र की अधिकांश राजनीतिक पार्टियां उन अमेरिकी अनियंत्रित बाजार व्यवस्था की पक्षधर है जिसने भारत सहित अधिकांश देशों को आर्थिक मंदी में डुबोया है। मात्र वामपंथी पार्टियां ही ऐसी अर्थनीति रखती हैं, जो नियंत्रित बाजार और आर्थिक रूप से कमजोर तबके की क्रय शक्ति बढ़ाने की पक्षधर है। वर्तमान मंदी से भारत तभी बाहर आ सकता है जब सत्तारूढ़ गठबंधन वामपंथी अर्थनीतियां लागू करके किसानों, मजदूरों व बेरोजगारों की क्रय शक्ति को इतना बढ़ाएं कि वे माल खरीद सकें।
अवसरवादिता छोड़ें तो कुछ सोचें
कुलवेन्द्र सिंह मजहबी
मालवीय रोड, बस्ती, उत्तर प्रदेश
आज के दौर में लगभग सभी राजनीतिक दलों के नेता कुछ भी कहें, अवसरवादिता ने सबको एक रंग में रंग दिया है और रही बात इस मंदी से बचाने की तो यह बात ध्यान देने योग्य है कि आज जो आर्थिक मंदी का दौर चल रहा है, यह केवल भारत पर नहीं है बल्कि वह वैश्विक क्षितिज पर है। इससे तो दुनिया के वे देश भी बेहद प्रभावित हो गए हैं, जो आर्थिक रूप से समृध्दशाली है व अपनी ताकत के कारण हरदम दादागिरी करते नजर आते थे। मैं तो यही जानता हूं कि किसी भी दल की नीतियां मंदी से बचाने में सक्षम नहीं हैं।
ठीक तो काम कर रही है सरकार
डॉ. कमर इजहार
प्राध्यापक अर्थशास्त्र, शा. टी.आर.एस. आटोनॉमस एंड एक्सीलेंस कॉलेज, मप्र
वर्तमान में अमेरिका में सब प्राइम संकट के कारण व्यापक रूप से आर्थिक मंदी व्याप्त है। यद्यपि भारत भी इससे अछूता नहीं है। कंपनियां निरंतर अपने उत्पादन में कमी एवं कर्मचारियों की छंटनी करने के संकेत दे रही हैं। ऐसे समय में देश के प्रमुख अर्थशास्त्रियों (जिनमें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री पी. चिदंबरम, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोन्टेक सिंह अहलूवालिया, रिजर्व बैंक के गवर्नर आदि शामिल हैं) द्वारा काफी कुशलता के साथ देश को मंदी से बचाने के लिए हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं।
हर दल नजर आ रहा है असहाय
देवव्रत उपाध्याय
सीतापोर्टफोलियो मैनेजमेंट, रामेश्वरपुरी, गांधी नगर बस्ती, उप्र
आर्थिक मंदी ने दुनिया को नाजुक मोड़ पर खड़ा कर दिया है। इससे प्रतिदिन जटिलताएं बढ़ती ही जा रही हैं। एक तो पहले से ही बेरोजगारी भारत की बड़ी समस्या है, कंपनियों में की जा रही बड़े पैमाने पर छंटनी के बाद तो लोगों के सामने खुदकुशी के अलावा दूसरा विकल्प नजर नहीं आ रहा है। सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इस विपदा की घड़ी में जल्द से जल्द बेहतर समाधान निकाले, जिससे लोगों में आशा का संचार हो लेकिन देश में चल रही सरकार ही नहीं विपक्ष भी असहाय की मुद्रा में नजर आ रहा है।
बकौल विश्लेषक
सरकार कोई भी हो,नियंत्रण रखना पहली जिम्मेदारी
डॉ. अमित मित्रा
महासचिव, फिक्की
आज सत्ता में कोई भी पार्टी रहे, सबके लिए आर्थिक मुद्दा महत्वपूर्ण होता है। कोई भी सत्ताधारी पार्टी आर्थिक नीतियों को नजरअंदाज नहीं कर सकती है। वर्तमान सरकार भी महंगाई और तरलता संकट दूर करने के लिए काफी प्रयत्न कर रही है।
अगर महंगाई पर ही गौर करें, तो तीन प्रमुख महंगाई प्रवृतियों पर थोड़ा अंकुश लग गया है। इसी वजह से इधर कुछ सप्ताह में महंगाई दरों में तेजी से गिरावट देखने को मिल रही है। ये जो तीन प्रमुख कारक हैं, वे हैं खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतें, ईंधनों की आसमान छूती कीमतें और जिंसों के मूल्य में बढ़ोतरी।
कीमतों में गिरावट के मद्देनजर ब्याज दरों में और कटौती की जाए और औद्योगिक क्षेत्र में हो रही गिरावट को कम करने के लिए मौद्रिक नीतियों को थोड़ा और आसान बनाया जाए। अगर महंगाई पर काबू कर लिया जाए, तो औद्योगिक विकास दर को बेहतर बनाने के लिए बनाई जाने वाली मौद्रिक नीतियों को अमली जामा पहनाना आसान हो जाता है।
महंगाई दर में जैसे ही गिरावट हुई, तो तेल की कीमतों में काफी कमी दिखने लगी। इस्पात की कीमतों में गिरावट देखने को मिल रही है और यह 7 फीसदी तक कम हो गई है। यह निश्चित तौर पर उद्योग जगत के लिए एक अच्छी खबर है। अब सरकार के लिए निर्मित सामग्री की कीमतों में कमी लाना एक बहुत बड़ी चुनौती है। चाहे कोई भी सरकार आए, उनके लिए इन चीजों पर नियंत्रण रखना पहली चुनौती और जिम्मेदारी होगी।
बातचीत: कुमार नरोत्तम
मौजूदा मर्ज में तो वामपंथी दवा ही कारगर होगी
भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
यह मंदी सिर्फ भारत की नहीं बल्कि वैश्विक है। यह कहने में गुरेज नहीं कि अमेरिका की बीमारी ने दुनियाभर के तमाम देशों को अपने चपेट में ले लिया है। अमेरिका में छाए सबप्राइम संकट और वित्तीय बैकों के धराशायी होने की वजह से इस वैश्विक आर्थिक मंदी की उपज हुई है।
अमेरिकी आर्थिक नीतियों का जो कोई भी देश अनुसरण कर रहा है, वो कमोबेश मंदी की जबरदस्त मार झेल रहा है। जबकि भारत की अर्थव्यवस्था में स्थायित्व बना हुआ है। अगर वैश्विक पटल पर इस आर्थिक मंदी को देखें तो पाएंगे कि यह ‘बीमारी’ वास्तव में एक दूसरे की अर्थव्यवस्था के जुड़े होने के कारण फैली है।
अभी तक भारत इसलिए भी बचा रहा है क्योंकि यहां के बैंकों को उस तरह खुला नहीं छोड़ा गया, जिस तरह अमेरिका के वित्तीय बैंकों को। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि जब से पूरी दुनिया में वैश्वीकरण की बयार चली है, विकासशील देशों पर विकसित देशों की आर्थिक नीति का रंग तेजी से चढ़ता जा रहा है।
ऐसे में यह कहावत बिलकुल सटीक बैठती है कि अगर अमेरिका को छींक भी आ जाएं तो दूसरे देश को जुकाम हो जाता है। बहरहाल, अभी की परिस्थितियों में तो वामपंथी पार्टी की आर्थिक नीतियां ही ज्यादा उचित लगती हैं, जो कि वैश्वीकरण का विरोध करती आईं हैं।
एक कहावत यह भी है कि जब बाहर आंधी-तूफान हो तो अपने घर की खिड़कियां-दरवाजों को बंद कर तूफान थमने का इंतजार करना चाहिए। सरकार को बुनियादी ढांचागत जरूरतों को मजबूत कर और रोजगार बढ़ाने चाहिए।
बातचीत: पवन कुमार सिन्हा
…और यह है अगला मुद्दा
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