भारत, एशिया और यूरोप सबकी निगाहें नए राष्ट्रपति पर टिकी हैं। चुनाव जीतने के बाद बराक ओबामा की पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस से पता चलता है कि ओबामा मध्यवर्ग को तरजीह देंगे।
इसके अलावा, ओबामा के सामने मुख्य रूप से तीन चुनौतियां- इराक, अफगानिस्तान और आर्थिक मंदी हैं। जाहिर है, इससे निपटने के लिए उनकी ओर से उठाए कदमों का असर दुनिया के अन्य देशों पर भी पड़ेगा।
जहां तक इराक और अफगानिस्तान की बात है, तो ओबामा वहां से सेना हटाने के पक्ष में हैं। इसके पीछे मकसद यह है कि सैन्य अभियानों में बेवजह काफी धन खर्च हो रहा है, जबकि इससे कुछ हाथ आता नहीं दिख रहा है। यानी ओबामा एक तीर से दो शिकार करना चाहते हैं। एक अमेरिका की छवि सुधार तो दूसरा सरकारी खर्चों में कटौती।
कौन से तीर हैं तरकश में
न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, फिलहाल ओबामा के खेमे में दो तरह की रणनीति पर चर्चा हो रही है। एक रणनीति बहुत से मोर्चों पर आक्रामकता के साथ जोरदार शुरुआत करने की है, तो दूसरी रणनीति ज्यादा परिणामवादी रवैए की वकालत करती है।
ओबामा भी एक राहत पैकेज देने के पक्ष में हैं जबकि पहले दिए गए 700 अरब डॉलर के पैकेज से ही वित्तीय घाटा बढने का खतरा है। यानी बाजार को रफ्तार देने की योजना है, लेकिन इससे स्थिति और विकट हो सकती है।
जलवायु संबंधी योजना की शुरुआत के तौर पर ओबामा वैकल्पिक ऊर्जा में निवेश बढ़ा सकते हैं। यानी कच्चे तेल पर निर्भरता कम कर ओबामा पैसे की बचत करने के पक्ष में दिखाई देते हैं। सैन्य खर्चों में कटौती कर सकते हैं। इसके साथ ही साथ रोजगार उपलब्ध कराने के लिए बाहर गए रोजगार को देश में लाने का प्रयास करेंगे। इससे भारत समेत अन्य एशियाई मुल्कों को थोड़ी परेशानी हो सकती है।
भारत के लिए नहीं जश्न!
भारत के संदर्भ में देखें, तो डेमोक्रेट से इसके रिश्ते पहले भी खास बेहतर नहीं रहे हैं। ऐसे में संकट की घड़ी में ओबामा का राष्ट्रपति चुना जाना निश्चय ही चिंता का सबब है और हमें जश्न मानने के बजाय उनकी रणनीतियों पर ध्यान देना चाहिए।
इतिहास गवाह है कि डेमोक्रेट राष्ट्रपति ऊपरी तौर पर भले ही भारत के साथ रहने का दिखावा करते हों, लेकिन जब बात उनके हित की आती है, तो बाकी सबको दरकिनार कर दिया जाता है।
बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है। बिल क्लिंटन का ही उदाहरण ले लीजिए। करगिल युद्ध के दौरान उन्होंने भारत का ही पक्ष लिया था, लेकिन जब भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया, तो क्लिंटन ने तमाम तरह के प्रतिबंध लगाने में जरा भी देर नहीं की।
इससे पहले 1969-75 की बात करें, तो उस समय भी डेमोक्रेट ही अमेरिकी सत्ता पर काबिज थे और जब भारत को गेहूं की किल्लत हुई, तो तत्कालीन राष्ट्रपति इस कवायद में जुटे रहे कि भारत उनके सामने गिड़गिड़ाते हुए हाथ फैलाए।
दूसरी ओर रिपब्लिकन की बात करें, तो जॉर्ज डब्ल्यू बुश के समय भारत-अमेरिकी संबंध की गाड़ी रफ्तार पकड़ती नजर आई। तमाम विरोधों के बावजूद बुश प्रशासन ने भारत के परमाणु करार किया। जहां तक बाजार की बात है, तो ओबामा पहले ही कह चुके हैं कि वे आउटसोर्सिंग के पक्ष में नहीं हैं और विदेशों की नौकरियों को अपने देश में लाएंगे।
ऐसा उनके लिए जरूरी भी हो गया है, क्योंकि अमेरिका में बेरोजगारी दर 8-9 फीसदी हो गई है। हालांकि यहां यह भी देखने वाली बात है कि उन्होंने अपनी टीम में वारेन बफेट जैसे बाजारवाद के समर्थक को शामिल किया है। ऐसे में बाजार पर पाबंदी लगाना उनके लिए बहुत आसान नहीं होगा, क्योंकि अब स्थितियां भी पहले से काफी बदल चुकी है।
इन बातों के अलावा, ओबामा स्वास्थ्य सेवा में सुधार के हिमायती हैं। इससे भारतीय दवा कंपनियों की बाछें खिल सकती हैं, क्योंकि जेनेरिक दवाओं में भारतीय कंपनियों का वहां सिक्का चलता है और ओबामा जेनरिक दवाओं के पक्ष में भी दिखते हैं। श्रम और पर्यावरण मानकों की बात करें तो ओबामा इसके पक्ष में हैं, जिससे भारत को थोड़ा नुकसान हो सकता है।