दिसंबर 1984 से लेकर जून 2008 तक भारत में कई क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिले हैं। ये बदलाव सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हर स्तर पर हुए हैं।
तांगे को छोड़कर लोग अब मेट्रो की सवारी करने लगे हैं, टाइपराइटर से हटकर उनका रुझान लैपटॉप की ओर हो गया है। लेकिन ऐसे कई परिवर्तनों के बीच अगर कोई काम पूरा नहीं हो पाया है तो वह है 1984 में भोपाल गैस त्रासदी पीड़ितों के पुनर्वास का काम।
उद्योग जगत के साथ साथ केंद्र और राज्य सरकारों के लिए यह अधूरा काम अब भी कलंक की तरह ही है। बार बार उनसे यह सवाल पूछा जाता है कि आखिर गैस त्रासदी में पीड़ित लोगों के पुनर्वास का काम कब तक पूरा किया जाएगा। यह भी सवाल रह रह कर उठता है कि पुनर्वास के अलावा भी कई ऐसी समस्याएं हैं और कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर अब तब कोई जवाब नहीं ढूंढा गया है।
प्रधानमंत्री कार्यालय ने पिछले हफ्ते कहा था कि इन पीड़ितों के पुनर्वास कार्य में सरकार तेजी लाएगी और इसे जल्द से जल्द पूरा करने की कोशिश की जाएगी। सरकार ने भोपाल पीड़ितों के पुनर्वास के लिए एक कमीशन बैठाने पर सहमति जताई है। साथ ही यह भी आश्वासन दिया है कि उन्हें पीने का साफ पानी मुहैया हो, इसका भी इंतजाम किया जाएगा। इस दुर्घटना के बाद भूमिगत जल दूषित हो जाने से लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिल पा रहा है।
सरकार ने जो आश्वासन दिया है उसमें चिकित्सकीय शोध भी शामिल है जिससे यह पता लगाया जा सके कि इस त्रासदी में रिसने वाले रसायनों से आस पास के लोगों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ा है। दो दशक पहले यूनियन कार्बाइड जब इस देश को छोड़कर गई तो उस समय भी 9,000 टन विषाक्त रसायन जमीन के नीचे दबा पड़ा था। कंपनी ने देश से जाने से पहले यह बताना भी जरूरी नहीं समझा कि जिन हानिकारक रसायनों को वह देश में छोड़कर जा रही है, उसे क्या खतरा पैदा हो सकता है।
बल्कि कंपनी ने डाऊ केमिकल्स नाम की दूसरी कंपनी में खुद का विलय करा लिया ताकि भारत की अदालतों के शिकंजे से वह दूर रह सके। यहां तक कि कंपनी के किसी प्रतिनिधि ने भारतीय अदालत के सम्मन का जवाब देना भी जरूरी नहीं समझा। खुद अमेरिका भी यूनियन कार्बाइड के तात्कालिक प्रमुख के प्रत्यर्पण की भारत की अपील को खारिज कर चुका है।
पीड़ितों और कार्यकर्ताओं की मांग है कि कम से कम भारत सरकार उन कंपनी के उन प्रतिनिधियों के प्रत्यर्पण की अपील करे, जिन्हें उस घटना के बाद से भारतीय अदालतों की ओर से फरार घोषित किया जा चुका है। वहीं, इसके विपरीत सरकार ने रिलायंस इंडस्ट्रीज को यूनियन कार्बाइड के पेटेंट यूनिपोल तकनीक को खरीदने की इजाजत दे दी है। साथ ही डाऊ केमिकल्स को भी यह मंजूरी मिल गई है कि वह भारत में कीटनाशकों की बिक्री कर सके।
पीएमओ ने पहली बार कहा है कि वह इन मसलों पर 3 जून को जवाब देगी। गैस त्रासदी के 24 साल बीत जाने के बाद अब तक जो हाथ लगा है वह है तीन किश्तों में हर पीड़ित को 50,000 रुपये, वह भी केवल उन लोगों को जो पीड़ित के तौर पर अपनी पहचान साबित करने में सफल हो पाए हों। पर यह सवाल भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या जो लोग अपनी पहचान गैस त्रासदी पीड़ित के तौर पर दर्ज नहीं करा पाए हैं, क्या उन्हें मुआवजा नहीं मिलना चाहिए।
और उन लोगों का क्या जिन्होंने इन्हीं पीड़ितों की आड़ में गलत तरीके से मुआवजे की रकम हथिया ली है। भोपाल की कहानी इसलिए भी जुदा है क्योंकि पीड़ितों में से अधिकांश गरीब परिवारों के थे और ऐसे में उनका पक्ष कितने दम खम से रखा जाता, इसे बयां करने की जरूरत शायद नहीं है।
सतीनाथ सारंगी और कई युवा कामकाजी अगर अपना रोजगार छोड़कर भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए आंदोलन में शामिल नहीं हुए होते तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यूनियन कार्बाइड ने जो अपराध किया, उसका अध्याय बंद हो चुका होता। इस गुट में नित्यांनद जयरमन जैसे शोधकर्ता हैं जो लेखनी के जरिए ही अपनी रोजी रोटी चलाते थे, पर उन्होंने अब पीड़ितों की ओर से आवाज उठाने का जिम्मा ले लिया है।
डाऊ केमिकल्स की पूर्व कर्मचारी रचना ढींगरा भी इनमें से एक हैं जिन्होंने अपनी नौकरी बस इसलिए छोड़ दी ताकि वह गैस पीड़ितों के हक के लिए लड़ सकें। उत्तराखंड की छात्र नेता शालिनी शर्मा और पर्यावरण विशेषज्ञ मधुमनी दत्ता ने भी पीड़ित लोगों की आवाज दूर दूर तक फैलाने का बीड़ा अपने कंधों पर उठाया है। ऐसे कई मसले हैं जिनके बारे में आम लोगों को अब तक जानकारी ही नहीं है। इसी बात को आम लोगों तक पहुंचाने का काम इस गुट की ओर से किया जा रहा है।
सरकार ने भी इस दिशा में कदम में पहला कदम बढ़ाया है। कानून मंत्रालय ने कहा है कि डाऊ केमिकल्स को उस जहरीले कचरे का निपटारा करना होगा जो इस त्रासदी के बाद यूनियन कार्बाइड अपने पीछे इस देश में छोड़ गया था। यह कदम निश्चित तौर पर लोकतंत्र के प्रति लोगों के विश्वास को और मजबूत करता है। यही नहीं सरकार ने साथ ही डाऊ केमिकल्स की भारत में 1 अरब डॉलर के निवेश के प्रस्ताव को भी गारंटी देने से इनकार किया है। क्या यह 9 फीसदी जीडीपी दर वाले राष्ट्र का विश्वास है?