एक महीने से भी कम समय के भीतर भारत में नई सरकार कार्यभार संभाल लेगी। यह सरकार ऐसे समय में कार्यभार संभालेगी जब घरेलू के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर परिस्थितियां कठिन हैं।
वैश्विक आर्थिक संकट की वजह से घरेलू मोर्चे पर सालाना आर्थिक विकास दर काफी कम हो गई है और यह 6 फीसदी से भी नीचे आ गई है (साल 2003-2008 के दौरान विकास दर 9 फीसदी के आसपास रही थी), रोजगार की वृध्दि दर ढीली-ढाली है, नक्सल प्रभावित इलाकों में और उत्तर-पूर्व इलाके में राजद्रोही चुनौतियां मजबूत हो रही हैं।
साथ ही पिछले कुछ सालों में सामान्य प्रशासन में गिरावट आई है और राज्यों के बीच, शहरी-ग्रामीण समुदाय के बीच और औपचारिक-अनौपचारिक सेक्टर के बीच आर्थिक विषमताएं असहज रूप से बढ़ी हैं। विदेशी मोर्चे पर भारत का सुरक्षात्मक वातावरण स्पष्ट रूप से एक साल पहले के मुकाबले खराब हुआ है क्योंकि पाकिस्तान में तालिबानी जिहादी शक्तियां चरम पर पहुंच गई हैं।
साथ ही ओबामा प्रशासन के तीन महीने के कार्यकाल के दौरान भारत-अमेरिकी रणनीतिक संबंध साफ तौर पर ठंडा पड़ा हुआ है और वैश्विक घटनाक्रम की बाबत अमेरिका-चीन के संयुक्त सरकार के उभरने के संकेत मिले हैं। (ओबामा या हिलेरी क्लिंटन ने अब तक भारत का दौरा नहीं किया है, हालांकि वे यूरोप, चीन, कोरिया, इंडोनेशिया और लैटिन अमेरिका का दौरा कर रहे हैं)।
ऐसे चुनौतीपूर्ण माहौल में अंतर्संबंध वाले राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा नीतियों की बाबत गंभीर, सुसंगत और मजबूत रुख अपनाने की दरकार है। ये चीजें अच्छी तरह स्थापित सरकार की दिलेरी का भी परीक्षण करेंगी। नई सरकार के सामने भी कमोबेश ऐसी ही विस्तृत चुनौतियां होंगी।
नई सरकार की मुख्य प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए? ऐसे मौके पर मैं सुरक्षा, विदेश नीति व प्रशासनिक मुद्दे को अलग रखते हुए अपने आपको कुछ तत्काल उठाए जाने वाले आर्थिक क्रियाकलाप तक सीमित कर रहा हूं। भारतीय अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र मुख्य रूप से नीतियों की बात कर रहे हैं। ऐसे में यहां 11वीं योजना में नीतिगत सिफारिशों की लंबी सूची को दोहराना ही होगा। पर मैं कुछ मुद्दों को ही चुन रहा हूं।
पहला, नई सरकार को तेजी से 2009-10 के लिए पूर्ण बजट बनाना होगा। संयुक्त रूप से 2008-09 के दौरान राजकोषीय घाटा दोगुना हो गया है और जीडीपी के 11 फीसदी के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है (केंद्र का 8 फीसदी, बजट से इतर आइटम इसमें शामिल हैं), लिहाजा नई सरकार को साल 2009-10 में केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे को उचित स्तर पर लाने के लिए काम करने की जरूरत होगी।
अंतरिम बजट में इसे जीडीपी के 5.5 फीसदी के स्तर पर बताया गया था, लेकिन तब वित्त मंत्री ने अस्थायी तौर पर उत्पाद कर में 4 फीसदी की कटौती को और आगे बढ़ा दिया था और बाद में 2 फीसदी की और कटौती कर दी थी, इस वजह से राजकोषीय घाटा इस स्तर को पार कर गया।
ऐसे में नीतियों में बदलाव के बिना (इसमें ताजा जनवादी कार्यक्रम शामिल नहीं हैं) केंद्र का राजकोषीय घाटा 6.5 फीसदी के स्तर पर रहने की संभावना है और संयुक्त घाटा जीडीपी के 10 फीसदी के स्तर पर होगा। मुमकिन है बता दिया जाए वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने की वजह से साल 2009-10 में इस तरह का राजकोषीय घाटा उचित ही है।
इसके विपरीत अशांतिकारक रूप से सरकारी उधारी कार्यक्रम (केंद्र और राज्य) को 5 लाख करोड़ रुपये तक सीमित रखना होगा ताकि साल की दूसरी छमाही में निजी निवेश फिर से शुरू हो सके। मेरा सुझाव है कि केंद्र को राजकोषीय घाटा जीडीपी के 5.5 फीसदी के स्तर पर रखना चाहिए और इसके लिए सेनवैट की वर्तमान 8 फीसदी की दर को 10 या 12 फीसदी कर दिया जाना चाहिए।
इसके अलावा मंदी के दौर में विकास दर को बनाए रखने की खातिर पूरी तरह वित्तीय राहत पर भरोसा करने के बजाय नई सरकार को सुधार के जरिए राहत देने पर ध्यान देना चाहिए ताकि निवेश का लक्ष्य फिर से जीवित हो सके। निश्चित रूप से एक और गठबंधन सरकार की संभावना है, लिहाजा सुधार का पैकेज जहां तक संभव हो सके, आदर्श रूप से तटस्थ होना चाहिए।
तीन मुख्य तत्वों पर ध्यान दिया जा सकता है, लेकिन इनमें से कोई भी नया नहीं है। पहला, सरकार को एक बार फिर वादा करना चाहिए कि पहले से घोषित तिथि अप्रैल 2010 से सामान एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू कर दिया जाएगा। इस पर दोनों गठबंधन राजग और संप्रग की सहमति है। इससे भारत में अप्रत्यक्ष कर में भारी सुधार होगा और अगर इसे ठीक से लागू किया गया तो विस्तृत रूप से उत्पादकता में उछाल के फायदे मिलेंगे।
दूसरा, जैसा कि उच्चस्तरीय तकनीकी कमेटियों ने सिफारिश की थी (क्रमश: रंगराजन और चतुर्वेदी की अगुवाई वाली) कि विश्व बाजार में तेल की कीमत 50 डॉलर प्रति बैरल पर है, लिहाजा यह सुनहरा मौका है कि पेट्रोल और डीजल की कीमत के लिए हम बाजार आधारित सिस्टम का रुख कर लें, साथ ही केरोसिन और एलपीजी की सब्सिडी भी कम करें।
सब्सिडी का भारी भरकम बोझ को कम करने से यह संदेश भी जाएगा कि ग्लोबल वार्मिंग के इस दौर में कार्बन की कीमत को लेकर भारत गंभीर है। तीसरा, हालांकि वित्तीय उदारीकरण के लक्ष्यों की प्राप्ति की कोशिशों में भले ही कुछ को नाराजगी हो सकती है लेकिन वित्तीय समावेशन के लक्ष्य अभी भी आकर्षक हैं।
भारत में उधार लेने वालों को संगठित और सतत रूप से ऋण मुहैया कराने के मामले में पब्लिक सेक्टर बैंक सबसे आगे हैं। ये बैंक पूंजी की कमी और कम से कम 51 फीसदी सरकारी हिस्सेदारी बनाए रखने की कानूनी जरूरतों से बंधे हुए हैं। ऐसे में बाजार से पूंजी उगाहने की खातिर सरकारी हिस्सेदारी को कम से कम 33 फीसदी के स्तर पर लाने के लिए साल 2000 में संशोधन प्रस्तावित किया गया था और नई सरकार को इस पर ध्यान देना होगा।
अगर भारत को सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर विकास करना है तो उसे शिक्षा और कौशल के विकास की बाबत सुधार पर ध्यान देना होगा। आज शिक्षा की बाबत मांग में कमी नहीं है, परेशानियां हैं तो आपूर्ति की तरफ से, चाहे वह प्राथमिक शिक्षा की बात हो या फिर उच्च शिक्षा की। कई क्षेत्रों में डिलिवरी की पुरानी व्यवस्थाएं अब काम की नहीं रहीं, लिहाजा तत्काल तेजी से सुधार की दरकार है।
यही वह क्षेत्र है जिसे सतत नीति सुधार का कम से कम फायदा मिला है। ज्ञान आयोग, योजना आयोग, उच्चस्तरीय कमिटी और गंभीर स्वयंसेवी संगठन मसलन प्रथम की तरफ से अच्छे प्रस्ताव की कमी नहीं है। अगर नई सरकार प्राथमिकता के आधार पर शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करे तो सामाजिक और आर्थिक विकास में तेजी आ सकती है और इसके राजनीतिक फायदे भी मिलेंगे।
भारत अपने समकक्ष विकासशील देशों के मुकाबले पारंपरिक ग्रामीण खेती में कम उत्पादकता से लेकर आधुनिक-शहरी-औद्योगिक सेवाओं के उच्च उत्पादकता के मामले में काफी पीछे है। कुछ चीजों के और बेहतर होने की दरकार है और इसमें भूमि, श्रम बाजार से लेकर आधारभूत संरचना से संबंधित मुख्य सेवाएं मसलन बिजली, सड़क, पानी आदि शामिल है।
शहरी विकास भी ऐसा तिरस्कृत क्षेत्र भी है जहां एकीकृत और संतुलित विकास की जरूरत है और इसमें नगर निगम के वित्त-प्रशासन के साथ-साथ सक्षम योजना और शहरी आधारभूत संरचना का प्रावधान शामिल है।
यहां आइडिया की कमी नहीं है, कमी है तो राजनीतिक इच्छा शक्ति और वादे की, जो सुधार से संबंधित है। नई सरकार लंबे समय से तिरस्कृत क्षेत्र और नीतियों पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकती है और विकास में तेजी ला सकती है।
(लेखक इक्रियर के मानद प्रोफेसर और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। ये विचार व्यक्तिगत हैं।)
