बीते शुक्रवार को जब भारतीय नौसैनिक पोत (आईएनएस) विक्रांत नौसैनिक बेड़े में शामिल हुआ तो हम उन पांच देशों में शुमार हो गए जिनके पास एक से अधिक विमानवाहक पोत हैं। रूस से खरीदे गए 44,000 टन वजनी आईएनएस विक्रमादित्य के अलावा हमारे पास अब 45,000 टन वजनी आईएनएस विक्रांत भी है। चीन, इटली और ब्रिटेन के पास भी दो-दो विमानवाहक हैं। अमेरिकी नौसेना के 900 पाउंड गोरिल्ला ऑफ एयरक्राफ्ट कैरियर ऑपरेशंस में 11 विमानवाहक हैं। इनमें से प्रत्येक एक लाख टन का है।
हमारे दो विमानवाहक पोत सम्मानजनक सैन्य क्षमता वाले हैं लेकिन उनमें से एक ही युद्ध के लिए तैयार रहेगा। अमेरिकी नौसेना की मरीन ट्रैकर वेबसाइट के मुताबिक 29 अगस्त की स्थिति में केवल तीन अमेरिकी नौसैनिक विमानवाहक समूह सैन्य तैनाती पर थे। यानी अमेरिका की कुल क्षमता का बमुश्किल एक चौथाई।
अमेरिकी नौसेना के पास वास्प श्रेणी के सात लैंडिंग हेलीकॉप्टर डॉक्स (एलएचडी) हैं, यानी ऐसे जलथल से वार करने वाले पोत जिन पर एफ-22 ऑस्प्रेटिल्टरोटर एयरक्राफ्ट, सी हैरियर्स अथवा एफ-35 लाइटनिंग 2 वर्टिकल टेक ऑफ ऐंड लैंडिंग (वीटीओएल) लड़ाकू विमान और 2,000 से अधिक तैयार लड़ाकों वाले तैनात रह सकते हैं। अमेरिका के इन सात एलएचडी में से केवल चार तैनाती पर हैं।
दो विमानवाहक पोतों को परिचालन के वास्ते उपलब्ध रखने के लिए नौसेना में कम से कम तीन विमानवाहक पोत होने चाहिए क्योंकि अधिकांश समय इन तीनों में से कम से कम एक में रखरखाव हो रही होगी। नौसेना दो पोतों की तैनाती की जरूरत को सहज ढंग से रखती है: एक पूर्वी तट के लिए और दूसरा पश्चिमी तट के लिए। परंतु पिछले कुछ समय में नौसेना नेतृत्व ने तीसरे पोत की हिमायत शुरू कर दी है ताकि हिंद महासागर क्षेत्र में लंबी दूरी तक ताकत दिखाई जा सके। परंतु तीन विमानवाहक पोतों के संचालन के लिए चार पोतों का बेड़ा चाहिए। यानी नौसेना को दो और स्वदेशी विमानवाहक पोत चाहिए। इसके अलावा उसे अन्य विध्वंसक पोत, पनडुब्बियों आदि की जरूरत तो होगी ही।
इस बीच अधिकांश नौसेनाओं की तरह एक आंतरिक बहस यह भी है कि समुद्र पर नियंत्रण रखा जाए या शत्रु को समुद्री क्षेत्र पर काबिज होने से रोका जाए। समुद्री नियंत्रण में विमानवाहक पोतों की अहम भूमिका है जबकि दुश्मन को समुद्र इस्तेमाल न करने देने की नीति में पनडुब्बियों और युद्धपोतों की भूमिका है। एक बात तो तय है कि भारत को ऐसी ताकत बनने के लिए बहुत अधिक धनराशि व्यय करनी होगी। बहरहाल, विमानवाहक तथा बड़े युद्धपोत युद्धकाल के अलावा शांतिकाल में भी उपयोगी साबित होते हैं। उस दौर में उनका इस्तेमाल कूटनयिक ढंग से भी किया जाता है। इसके अलावा नौसैनिक शक्तियों के पास मानवीय सहायता और आपदा राहत मुहैया कराने की भी असीमित क्षमता होती है। हम देख चुके हैं कि 2004 में एशिया में आई सूनामी के बाद भारतीय नौसेना ने किस कदर राहत कार्य किए थे। इन कार्यों ने उसे व्यापक प्रतिष्ठा दिलायी थी। जिस तरह एक रणनीतिक परिवहन विमान बेड़े ने भारतीय वायु सेना को शांतिकाल और युद्ध दोनों समय काम करने की क्षमता दिलायी है उसी प्रकार बड़ा और सक्षम युद्धपोत बेड़ा भी ठीक यही काम कर सकता है। अमेरिकी कांग्रेस ने इस बात को स्पष्ट तरीके से चिह्नित किया। अमेरिकी के ताजा नैशनल डिफेंस ऑथराइजेशन ऐक्ट (वह कानून जिसके तहत विभिन्न मदों में सालाना रक्षा बजट एवं व्यय को स्पष्ट किया जाता है) ने पहली बार नौसेना को कानूनी और बजट अधिकार दिए हैं जो उसकी शांतिकालीन तथा युद्धक भूमिका स्पष्ट करते हैं। नया अमेरिकी फॉर्मूलेशन कहता है, ‘नौसेना को व्यवस्थित, प्रशिक्षित और ऐसी तैयारी से लैस होना चाहिए कि वह शांतिकाल में राष्ट्रीय सुरक्षा के हितों को बढ़ावा दे सके और अमेरिकी समृद्धि को आगे बढ़ा सके। इसके साथ ही वह समुद्र में किसी भी गतिविधि के लिए निरंतर तैयार रह सके।’ इसमें जो नए शब्द शामिल किए गये हैं वे शांतिकालीन और आर्थिक मिशनों पर जोर देते हैं। सभी नौसेनाएं खुलकर अपनी मौजूदगी का प्रदर्शन करती हैं। नया बना अमेरिकी कानून अमेरिकी नौसेना की युद्धक भूमिका को चिह्नित करता ही है, साथ ही उसे यह क्षमता भी प्रदान करता है कि वह शांतिपूर्ण समय में भी चौतरफा ढंग से अपनी भूमिका का निर्वाह कर सके।
हिंद महासागर क्षेत्र में भारत की सुरक्षा मुहैया कराने वाले तथा वैश्विक हितों की रक्षा करने वाले की भूमिका (सी लाइंस ऑफ कम्युनिकेशंस की रक्षा जो 70 फीसदी वैश्विक व्यापार का वाहक है) को देखते हुए नौसेना के सामने बड़ा प्रश्न यह है कि इस भूमिका को निभाते हुए उसे किन चुनौतियों से निपटना होगा? चीन को थामने के प्रयास में भारत के क्षेत्रीय साझेदार खासकर अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर चाहेंगे कि भारतीय नौसेना हिंद महासागर क्षेत्र पर पूरी पकड़ बनाकर रखे जबकि अन्य साझेदार चीन की नौसेना को दक्षिण चीन सागर में सीमित करने का प्रयास करेंगे। ऐसा करना आसान नहीं होगा। खासकर यह देखते हुए कि चीन की नौसेना काफी विशाल है और दालियान में चीन के युद्धपोत निर्माता यार्ड में चार-पांच बड़े विध्वंसक एक साथ ही निर्मित किए जा रहे हैं।
इतना ही नहीं दूसरे विमानवाहक पोत की तैनाती चाहे जितनी संतोषप्रद हो लेकिन इससे चीन के साथ लगने वाली 3,499 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर हमारी आशंकाएं कतई दूर नहीं होती हैं। चीन की सेना द्वारा 2020 की गर्मियों में कई बार वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किए जाने के बाद आज भी कई जगहें ऐसी हैं जिन्हें खाली कराया जाना है। चीन ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि भारत का सामरिक ध्यान वास्तविक नियंत्रण रेखा पर ही केंद्रित रहे न कि हिंद महासागर क्षेत्र पर। चीन के साथ सीमा विवाद सुलझा नहीं है और 1962 में हम एक जंग भी हार चुके हैं। जाहिर है चीन के पास सैन्य बढ़त है और यह भारत के लिए प्राथमिक चिंता का विषय है। इस बीच हिंद महासागर जहां भारत वास्तव में आसानी से दबदबा बना सकता है, उस पर उतना अधिक ध्यान नहीं दिया जा पा रहा है।
चूंकि भारत क्वाड समूह का इकलौता ऐसा देश है जिसकी जमीनी सीमा चीन से मिलती है तो ऐसे में वास्तविक नियंत्रण रेखा को लेकर उसकी चिंताओं को अन्य साझेदार देश भलीभांति नहीं समझ पा रहे हैं। अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया का मानना है कि हिंद महासागर क्षेत्र में भारत का दावा उच्च हिमालयी क्षेत्र से कहीं अधिक है। उनका कहना है कि भारत को प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए क्योंकि उसकी आर्थिक समृद्धि इस बात पर निर्भर करती है कि वह हिंद महासागर क्षेत्र में व्यापारिक संचार मार्गों को खुला रखे। भारतीय नौसेना ने अपने दूसरे विमानवाहक पोत को अपना लिया है लेकिन इस बीच चिंता की एक वजह बरकरार है और यह कि भारत अभी भी इस बात को लेकर स्पष्ट नहीं है कि उसे अपना ध्यान और संसाधन किधर लगाने चाहिए?