ठीक एक साल पहले की बात है जब अर्जुन एन मूर्ति ने यह भविष्यवाणी की थी कि कच्चे तेल की कीमतें 150 डॉलर प्रति बैरल से 200 डॉलर प्रति बैरल के स्तर पर पहुंच जाएंगी।
और गोल्डमैन सैक्स की रिपोर्ट में कहा गया कि ऐसा ‘अत्यधिक सट्टेबाजी’ के कारण नहीं होगा। मूर्ति इस रिपोर्ट के मुख्य लेखक थे। उनके मुताबिक कीमतों में बढ़ोतरी सही अर्थों में मांग और आपूर्ति के संबंधों को प्रदर्शित कर रही थी क्योंकि बाजार में अतिरिक्त आपूर्ति के कोई भी संकेत नहीं मिल रहे थे।
मांग और आपूर्ति के इन्हीं बुनियादी कारकों का इस्तेमाल खाद्य उत्पादों की कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी की व्याख्या करने के लिए किया गया। ठीक तेल कीमतों की तर्ज पर करीब एक साल पहले ही अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने खाद्य वस्तुओं की कीमतों में हुई भारी बढ़ोतरी के लिए भारतीय मध्य वर्ग को जिम्मेदार ठहराया था।
बुश के मुताबिक भारत में खाद्य वस्तुओं की मांग बढ़ने के कारण ही कीमतें बढ़ रही थीं। इसके जवाब में विकासशील देशों ने इस बात का उल्लेख किया कि जैव ईंधन के रूप में कैसे खाद्यान्न की कीमतें तेल की ऊंची कीमतों के साथ जुड़ चुकी हैं। कच्चे तेल की ऊंची कीमत का अर्थ है कि जैव-ईंधन की मांग में बढ़ोतरी, जो खाद्यान्न की कीमत पर आएगा।
हालांकि 150 डॉलर प्रति बैरल के स्तर तक पहुंचने से पहले ही कच्चे तेल की कीमतों में तेजी का रुख बदल गया। कच्चे तेल की सर्वाधिक कीमत का रिकार्ड 11 जुलाई, 2008 को बना था। इस दिन कीमत 147 डॉलर प्रति बैरल के स्तर को छू गई। इसकी कीमतों में भारी गिरावट आई और 19 दिसंबर को 32 डॉलर प्रति बैरल का निचला स्तर दर्ज किया गया। तब से कच्चे तेल की कीमतें 40 डॉलर से लेकर 50 डॉलर प्रति बैरल के दायरे में हैं।
किसी ने भी इतनी तेज गिरावट की उम्मीद नहीं की थी। देश की सबसे बड़ी तेल उत्खनन और उत्पादन कंपनी तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम के प्रमुख आर एस शर्मा ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि उन्हें जरा भी उम्मीद नहीं थी कि कीमतें तीन अंकों के स्तर से नीचे आएंगी। जरा और पीछे चलते हैं। बात 1 दिसंबर 2006 की है और इस दिन गोल्डमैन सैक्स ने भविष्यवाणी की थी कि ‘हमें उम्मीद है कि 2007 में दुनिया को भारी मंदी का सामना करना पड़ेगा।’
इसमें अनुमान व्यक्त किया गया था कि अमेरिका की विकास दर में वर्ष दर वर्ष गिरावट दर्ज होगी लेकिन यह उम्मीद जताई गई कि यूरोप और ब्रिक देशों की अर्थव्यवस्थाओं और जापान में अच्छा विकास देखने को मिलेगा। इस आधार पर गोल्डमैन सैक्स ने अनुमान जताया कि वैश्विक आर्थिक विकास दर 2007 में 4.1 प्रतिशत और 2008 में 4.3 प्रतिशत रहेगी।
रिपोर्ट में कहा गया कि ‘मंदी इस मायने में अच्छी रहेगी क्योंकि इससे वैश्विक विकास का संतुलन अमेरिका से हट जाएगा, जिससे मौजूदा वैश्विक असंतुलन को कम करने में मदद मिलेगी और इससे विश्व अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत होगी।’ यह पूर्वानुमान हालांकि सब-प्राइम संकट के मुकाबले टिक नहीं सका और संकट ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया।
वर्ष 2008 के दौरान वैश्विक उत्पादन में 3.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक फंड के ताजा पूर्वानुमानों के मुताबिक इस साल वैश्विक विकास दर घटकर 1.3 प्रतिशत रह जाएगी। ऐसे में यह दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अब तक की सबसे बड़ी मंदी होगी। स्वाइन फ्लू के असर से हालात और भी बदतर होने के अनुमान हैं।
चलिए, भारत की ओर लौटते हैं। शेयर बाजार एक के बाद एक मील का पत्थर पार कर रहा था और जनवरी 2008 में सेंसेक्स ने 21,000 अंक के स्तर को छू लिया। सेंसेक्स को 20,000 से 21,000 का सफर तय करने में महज 49 दिन का समय लगा।
निवेशक पूछ रहे थे कि 30 शेयरों पर आधारित सूचकांक कब 30,000 के स्तर को पार करेगा। लेकिन तभी तकदीर ने पलटी खाई और सेंसेक्स चार अंकों के स्तर से नीचे आ गया और कल उसने 12,000 अंक के स्तर को एक बार फिर पार किया है।
कुछ ऐसा ही रुपये की विनिमय दर को लेकर जारी किए गए पूर्वानुमानों को लेकर भी देखा गया। इसलिए एचसीएल टेक्नोलॉजीस जैसी कंपनियों को जनवरी से मार्च के दौरान 200 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि उसने 41 रुपये प्रति डॉलर की दर से 1.3 अरब डॉलर हेज किए थे। मारुति सुजूकी इंडिया को 121 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।
उसने रुपये की मजबूती पर दांव लगाया था। भारतीय रिजर्व बैंक की संदर्भ दरों के मुताबिक एक साल पहले (5 मार्च को) एक डॉलर की कीमत 40.55 रुपये थी जबकि एक जनवरी को विनिमय दर बढ़कर 48.73 रुपये प्रति डॉलर हो गई। सोमवार को संदर्भ दर 49.68 रुपये थी। जहां तक जीडीपी विकास दर की बात है, प्रधानमंत्री द्वारा कहीं अधिक जोरदार लक्ष्यों की घोषणा की गई थी।
उन्होंने दो अंकों की विकास दर की बात कही। वर्ष 2004-05 के दौरान 7.5 प्रतिशत की विकास दर के मुकाबले 2005-06 में विकास दर बढ़कर 9.5 प्रतिशत हो गई और 2006-07 में यह 9.7 प्रतिशत दर्ज की गई। जब दो अंकों की विकास दर की भविष्यवाणी सच होती दिख रही थी, तभी गिरावट शुरू हो गई और बीते साल विकास दर सिकुड़कर 7.1 प्रतिशत रह गई।
चालू वित्त वर्ष के लिए बेहद आशावादी पूर्वानुमान 7 से 7.5 प्रतिशत के दायरे में हैं जबकि भारत के लिए सबसे कम अनुमान आईएमएफ ने 4.5 प्रतिशत का जताया है। पूर्वानुमानों की पवित्रता संदेह के घेरे में है, जबकि किसी भी सूचना को सार्वजनिक करने से पहले उसकी समीक्षा की जानी चाहिए।
ऐसे आशावादी बयान देते समय एक तरह की कठोर मानसिकता भी देखने को मिलती है जो उस बहुसंख्यक आवाज को दबा देती है जिसके सही होने की संभावना होती है। कई विश्लेषक तथा सलाहकार, और यहां तक कि वित्त मंत्री तेल कीमतों में आई तेजी को बुनियादी कारकों के जरिए सही ठहरा रहे थे।
ऐसे में गैर-विशेषज्ञों के लिए चुनौतीपूर्ण काम यह है कि वे सही विशेषज्ञ का चयन करें, और जरूरी नहीं है कि यह व्यक्ति बहुत शोर मचाने वाला हो।
