कार्यपालिका के पास इतनी ताकत है कि वह संसद में पारित हुए किसी भी कानून को ठंडे बस्ते में डाल सकती है।
सांसद सदन में विधेयकों को हरी झंडी दिखा सकते हैं, राष्ट्रपति कानूनों पर सहमति जता सकते हैं, लेकिन किसी भी कानून को लागू करने की कुंजी तो कार्यपालिका के ही हाथों में है। लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता है।
जब भी बड़े मसले सामने आते हैं, जैसे भोजन, शिक्षा या आवास की बात होती है, तो यह कुंजी पता नहीं कहां गुम हो जाती है। उस समय तो न्यायपालिका भी इन कानूनों को लागू कराने में खुद को लाचार महसूस करती है। कई बार सर्वोच्च न्यायालय में ऐसी याचिकाएं दायर की गई हैं, जिनमें सरकार को निर्देश देने की गुहार की गई है कि वह विधानों के बारे में अधिसूचना जारी करे।
लेकिन अदालत ने भी यह स्वीकार किया है कि इस मामले में वह पूरी तरह असमर्थ है। लेकिन अदालत की इस स्वीकारोक्ति के बावजूद एक के बाद एक याचिकाएं इस उम्मीद में दायर की जा रही हैं कि एक दिन सर्वोच्च न्यायालय एक दिन अपना इरादा बदल देगा और फैसले की घड़ी आने पर कुछ तो करेगा।
ऐसी ही एक याचिका चार साल से लंबित पड़ी हुई है। इस याचिका में एक समग्र खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने की प्रार्थना की गई है। न्यायपालिका के दबाव में आकर सरकार ने खाद्य मिलावट कानून, फल उत्पाद आदेश, दुग्ध एवं दुग्ध उत्पाद आदेश और अन्य कई नियमों और कानूनों की जगह लागू करने के लिए एक नए कानून का मसौदा तैयार किया।
संसद में 2006 में खाद्य सुरक्षा एवं मानक कानून पारित कर दिया गया। इस कानून का सबसे बड़ा असर कोला पेय बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर भी पड़ रहा है और गली कूंचों में फलों का रस बेचने वाले दुकानदारों पर भी। राष्ट्रपति की ओर से भी इस कानून को रजामंदी मिल चुकी है। लेकिन अभी तक इस कानून के बारे में पूरी तरह अधिसूचना जारी नहीं की गई है।
जब अदालत ने इस मामले में सरकार पर लगाम कसनी शुरू की, तो केंद्र ने कानून को अधिसूचित करने के लिए और मियाद देने की फरियाद कर दी। इतना ही होता, तो गनीमत थी, लेकिन अब स्वास्थ्य मंत्रालय ने अदालत से कहा है कि यह कानून 2009 के अंत में ही लागू किया जा सकता है, इससे पहले कानून लागू करने की कुव्वत उसके भीतर नहीं है।
एक और याचिका अदालत में आई है, जिसने एक पुराने कानून को लागू नहीं किए जाने का मसला उठाया है। दिलचस्प है कि यह कानून कोई ऐसा-वैसा कानून नहीं है, बल्कि संविधान संशोधन है। दिसंबर 2002 में संविधान में अनुच्छेद 21ए शामिल किया गया था। इस अनुच्छेद में 14 साल की उम्र तक के सभी बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी दी गई है।
कुछ अरसे पहले अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के बारे में अपने फैसले में संविधान पीठ ने कार्यपालिका में मौजूद इस खामी की ओर इशारा भी किया था। लेकिन सरकार ने इस दिशा में अब तक कोई कदम नहीं उठाया है। आखिरकार अब अदालत ने इस लेटलतीफी की वजह बताने के लिए केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है।
दिल्ली किराया नियंत्रण कानून 1995 में पारित किया गया था और इसे सभी राज्यों के लिए आदर्श बताया गया था। इस कानून को राष्ट्रपति की ओर भी फौरन हरी झंडी मिल गई। लेकिन राजधानी में किराये पर व्यावसायिक गतिविधियां चलाने वालों ने आंदोलन शुरू कर दिया। आंदोलन होते ही इस कानून को भी ठंडे बस्ते में भेज दिया गया।
जब यह मामला सर्वोच्च न्यायालय के सामने लाया गया, तो उसने भी कॉमन कॉज बनाम भारत सरकार के मामले में साफ तौर पर कहा कि जब जानबूझकर देर की जा रही हो, तो वह भी कुछ नहीं कर सकता। इस मामले में पक्ष बने समाज सेवी संगठन कॉमन कॉज का सबसे पहला और बड़ा तर्क यही था कि कोई भी कानून एक बार अगर पारित हो जाता है और राष्ट्रपति की मंजूरी भी उसे मिल जाती है, तो वह स्वत: ही लागू हो जाता है।
जनरल क्लॉज कानून की धारा 5 कहती है, ‘यदि केंद्र सरकार के किसी कानून को लागू करने के लिए कोई खास दिन नहीं चुना गया है, तो वह उसी दिन स्वत: लागू हो जाएगा, जिस दिन उसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिलती है।’ इस प्रावधान में किसी भी कानून को लागू करने के लिए कोई उतावली नहीं दिखाई गई है। इसके बजाय एक नश्तर दिया गया है, जिससे कार्यपालिका की लेटलतीफी का भी इलाज हो सकता है।
तकरीबन सभी विधेयकों में एक प्रावधान होता है, जिसमें साफ तौर पर कहा जाता है कि कानून उस दिन से प्रभावी माना जाएगा, जिस दिन अधिसूचना के जरिये उसे आधिकारिक राजपत्र यानी गजट में शामिल किया जाएगा। इस एक जुमले की वजह से कानून को लागू करने का पूरा अधिकार कार्यपालिका के हाथ में आ जाता है।
आलम यह है कि अदालतें भी इस सिलसिले में अधिसूचना जारी करने के लिए सरकार को फरमान नहीं सुना सकती हैं। असमंजस की इसी स्थिति से जूझते हुए संविधान पीठ ने ए के रॉय बनाम भारत सरकार (1982) मामले में मशविरा दिया था कि इस तरह का गतिरोध पैदा होने पर मामला संसद में उठाया जाना चाहिए।
पीठ ने कहा था, ‘कार्यपालिका संसद के प्रति जवाबदेह है और यदि संसद को लगता है कि किसी भी प्रावधान को लागू नहीं करके कार्यपालिका ने उसके विश्वास को ठेस पहुंचाई है, तो संसद कार्यपालिका पर भी लगाम लगा सकती है। यह तो अजीबोगरीब होगा कि कार्यपालिका के निकम्मेपन को संसद भी मंजूरी दे दे और हम रिट जारी करके अपना असंतोष और गुस्सा जाहिर करते रहें।’
इस तरह अदालत ने बड़ी सफाई के साथ मामला विधायिका के पाले में सरका दिया। गौर करने की बात यह भी है कि तमाम वकील भारत में विधि मंत्री बनते रहे हैं, लेकिन अधिवक्ता कानून की धारा 30 तीन दशकों से लागू होने की बाट ही जोह रही है।
जब एक वकील इस धारा को लागू करने का अनुरोध लेकर सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, तो अल्तमश रीन बनाम भारत सरकार (1988) मामले में उसकी याचिका को खारिज कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने 2002 में भारत सरकार बनाम श्री गजानन ट्रस्ट मामले में एक बार फिर अपना रुख दोहरा दिया। इसमें औद्योगिक विवाद कानून में उस संशोधन की बात थी, जिसे दो दशकों से लटकाया गया है।
ऐसे हालत में तो मर्ज की बस कुछ ही दवा हैं। किसी भी अधिसूचना को जारी करवाने के लिए जनता की ओर से दबाव बनाया जा सकता है, मामले को विधायिका के सामने उठाया जा सकता है और अदालतें सरकार से जवाब मांग सकती हैं और लेटलतीफी को सही साबित करने में सरकार को वाकई दिक्कत आएगी।