सामान्यत: किसी भी कार्पोरेट ढांचे में अगर कोई व्यक्ति या संस्था इक्विटी के माध्यम से सीधे या कर्ज की गारंटी के माध्यम से परोक्ष रूप से परियोजना के लिए फंड देती है, तो उस पर नियंत्रण उसी का होता है।
बेहतर प्रबंधन करने वाले उद्यमी आमतौर पर संगठन का प्रबंधन करने के लिए- अगर वे खुद कम हिस्सेदारी रखते हैं, छोटे शेयरधारकों को साथ लेकर चलते हैं। सामान्य नियम यह है कि अगर कंपनी में आपकी हिस्सेदारी 51 प्रतिशत है, तो उसका नियंत्रण आपके हाथ में होता है।
कंपनी में 51 प्रतिशत का शेयरधारक प्रबंध निदेशक की नियुक्ति करता है और अन्य सदस्यों के माध्यम से वह बेहतर फैसले लेने की स्थिति में रहता है। यही कारण है कि वामपंथी दल बार-बार सरकार पर दबाव बनाते हैं कि सार्वजनिक उपक्रमों में सरकार की इक्विटी 51 प्रतिशत से कम नहीं होनी चाहिए।
यही कारण है कि इस बात पर थोड़ा सा आश्चर्य होता है कि नई कोलकाता मेट्रो परियोजना के संयुक्त उपक्रम में कैबिनेट ने 50:50 प्रतिशत हिस्सेदारी वाली परियोजना को स्वीकृति दी।
करदाताओं के फंड से चालू होने वाली परियोजना के बारे में वामपंथी यह कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि परियोजना की जिम्मेदारी न तो केंद्र सरकार पर है, जिसकी इस परियोजना में तीन-चौथाई हिस्सेदारी है (20 प्रतिशत इक्विटी के माध्यम से और 51 प्रतिशत उस कर्ज की गारंटी के रूप में जो जापान बैंक से लिया जाना है तथा कुछ करों के माध्यम से) न ही राज्य सरकार की है, जिसका शेष योगदान है (20 प्रतिशत इक्विटी के माध्यम से और तीन प्रतिशत उस जमीन के मूल्य के रूप में, जिस पर परियोजना चालू होगी तथा कुछ करों के माध्यम से)?
कानून बहुत स्पष्ट है, इस परियोजना का निरीक्षण प्रशासनिक मंत्रालय के माध्यम से किया जाएगा या लोक लेखा समिति या सार्वजनिक उद्यम विभाग विभाग द्वारा, जिसमें सरकार की हिस्सेदारी 51 प्रतिशत होगी। इसकी अनुपस्थिति में क्या होगा? कंपनी का संचालन कैसे होगा? समझौते के मुताबिक निदेशक मंडल में दोनों शेयरधारकों के बराबर बराबर सदस्य होंगे, राज्य सरकार प्रबंध निदेशक की नियुक्ति करेगी।
इस तरह से परियोजना पर राज्य सरकार का नियंत्रण होगा, लेकिन जो एजेंसियां (मंत्रालय, राज्य सतर्कता परिषद और लोक लेखा समिति आदि) सार्वजनिक उपक्रमों की निगरानी करती हैं, उनका कोई अधिकार नहीं होगा। इस तरह से सरकार द्वारा दिशानिर्देशों का पालन तो होगा, कि किस तरह से टेंडर आमंत्रित किया जाए, वेतन किस तरह से निर्धारित किया जाए आदि-आदि, लेकिन नई मेट्रो परियोजना में इनमें से किसी भी कानून का पालन किया जाना अनिवार्य नहीं है।
ये फैसले किस तरह से लिए जाएं, यह प्रबंधन के बेहतर इरादों पर निर्भर करेगा। जेआईबीसी के पास जरूरत के मुताबिक पैसा है और उम्मीद की जा रही है कि जापानी फर्म के लिए यह लाभकारी व्यवसाय देगा। सरकार पूरे तंत्र का निरीक्षण करेगी, उदाहरण के लिए शायद यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि ठेके देने में किसी तरह का पक्षपात नहीं होगा।
हालांकि इसकी परिणति खराब होने की ही उम्मीद की जा सकती है। उदाहरण के लिए उस स्थिति में क्या होगा, अगर शेयरधारकों के बीच किराया बढ़ाने को लेकर सहमति न बन पाए? किसे मत देने का अधिकार होगा? किसी को नहीं। अगर आप सोचते हैं कि ऐसा नहीं होगा तो मारुति उद्योग और सरकार के 50:50 की हिस्सेदारी वाली परियोजना को उदाहरण के रूप में देख सकते हैं कि किस तरह से बाद में दोनों तमाम मुद्दों को लेकर भिड़ गए थे।
ऐसा तब हुआ था जब हुंडई के रूप में नया खिलाड़ी बाजार में आया और भिडंत के चलते कंपनी कोई नए मॉडल नहीं ला सकी। लेकिन यहीं पर दिल्ली मेट्रो रेल कार्पोरेशन भी है, जो बेहतर प्रदर्शन कर रहा है। इस पर भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं लगे और कम गुणवत्ता की खरीद आदि को लेकर कोई विवाद भी नहीं हुआ। यह आंशिक सत्य है क्योंकि यहां पर शेयरधारकों में भिन्नता है और यह जानकारी नहीं है कि इसका परियोजना पर क्या प्रभाव पड़ रहा है।
डीएमआरसी अपने लक्ष्यों से बहुत पीछे है, ऐसे में संभावना है कि किराये में बढ़ोतरी की जाए। बहरहाल, डीएमआरसी के प्रबंध निदेशक ई. श्रीधरन का व्यक्तित्व बहुत बड़ा है और व्यक्तिगत रूप से वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि डीएमआरसी का संचालन प्रभावी तरीके से होगा। आप यह सुनिश्चित नहीं कर सकते कि हर मेट्रो परियोजना का प्रमुख श्रीधरन का क्लोन ही होगा। इस तरह से सही ढांचा बहुत जरूरी है।
इस बात के लिए तर्क किया जा सकता है कि पीएसयू किस तरह से तैयार किया गया। दरअसल यह तर्क दिया गया कि राजस्थान और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों ने राज्य हाईवे के निर्माण के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर फर्म आईएल ऐंड एफएस के साथ 50:50 प्रतिशत का संयुक्त उपक्रम बनाया है। लेकिन इसमें यह भी ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि इन परियोजनाओं में दोनों साझेदारों की समान इक्विटी है।
अब इसमें क्या गलत है अगर सरकार एनएचएआई माडल्स में सरकार पैसे लगाती है और निजी क्षेत्रों को बोली लगाने के लिए आमंत्रित करती है? आश्चर्यजनक रूप से यह काम एनडीए सरकार के कार्यकाल में किया गया, जिसमें मंत्री ने एनएचएआई को काम करने की अनुमति दे दी थी।
कारण कुछ भी हो, राज्य सरकारें चाहती हैं कि परियोजनाओं के नियंत्रण का ज्यादा हिस्सा उनके हाथ में रहे। केंद्र यह बेहतर ढंग से कर सकता है कि किसी दूसरे को पैसा देने के बजाय इस तरह से काम किए जाएं और परियोजना का नियंत्रण राज्यों के हाथों में सौंप दिया जाए। इस तरह से कम से कम एक ही व्यक्ति जवाबदेह होगा।