दो सप्ताह बाद, सत्यम प्रकरण को चार अलग-अलग हिस्सों में बांटा जा सकता है। इनसे निपटने के लिए अलग-अलग नजरिए की जरूरत होगी।
उदाहरण के तौर पर मान लीजिए, नियामकों और जांच एजेंसियों को पूरी धोखाधड़ी से कैसे निपटना चाहिए जबकि पूरे मामले से नए निदेशक मंडल का मामूली सा या बिल्कुल भी संबंध नहीं है। इस आलेख में चार मुद्दों का जिक्र किया गया है और सुझाव दिए गए हैं कि प्रत्येक मामले में कैसी कार्रवाई करने की जरूरत है।
पहला मुद्दा है- प्रवर्तक बी रामलिंग राजू और उनके साथियों का आपराधिक व्यवहार, जो उन्होंने सूचीबद्ध कॉर्पोरेशन में धोखाधड़ी के जरिए अपने शेयरधारकों के साथ किया।
समाचार पत्रों में छप रही खबरों के मुताबिक इन राजू ने आपसी मिलीभगत के जरिए हजारों करोड़ रुपये सत्यम से निकाल कर अपनी प्रॉपर्टी व्यावसाय से जुड़ी पारिवारिक कंपनी मायटास में झोंक दिए।
संभव है कि कुछ और पारिवारिक कंपनियों में भी ऐसे गैरकानूनी और अनैतिक ढंग से सत्यम की पूंजी का निवेश किया गया हो। आखिरकार हमें धोखाधड़ी के मामले में राजू के कैसे अंजाम की उम्मीद करनी चाहिए? सरकार और उसकी एजेंसियों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि इस मामले को कार्रवाई करने की अक्षमता का एक और उदाहरण न बनने दिया जाए।
यदि राजू और उनके सहयोगी षड़यंत्रकारियों ने कंपनी को धोखा दिया है (जैसा कि लगता है, उन्होंने किया है) तो उन्हें जल्द से जल्द अधिकतम दीवानी और फौजदारी सजा मिलनी चाहिए।
निवेशक भारतीय जांच और कानूनी कार्रवाई में विलंब के एक और उदाहरण को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे, खासकर इस स्तर के अपराध के मामले में।
वे निगमित मामलों के मंत्रालय, सेबी, आंध्र प्रदेश पुलिस, धोखाधड़ी जांच विभाग के वरिष्ठ अधिकारी और सीआईडी के बीच अनावश्यक विवाद में उलझना नहीं चाहते हैं। इन एजेंसियों ने बेहतर सहयोग किया है, फिर भले ही यह इतिहास में सिर्फ एक बार ही क्यों न हुआ हो।
प्रेस को भी पूरे मामले में काफी चौकन्ना रहना होगा। जो लोग ऊंचे ओहदों पर बैठे हैं, वे कतई नहीं चाहेंगे कि सच्चाई सामने आए, खासकर जमीन के सौदों के मामलों में। हमें किसी भी कीमत पर पर्याप्त दबाव बनाना होगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ऐसे लोग जांच को प्रभावित न कर सकें।
अब दूसरे मुद्दे पर आते हैं। यह मामला सत्यम के ऑडिटरों के साथ जुड़ा हुआ है। कंपनी की आंतरिक ऑडिट स्वत: रिपोर्ट किसने तैयार की- कंपनी के मुख्य वित्तीय अधिकारी (सीएफओ) ने या फिर सीधे निदेशक मंडल की ऑडिट समिति ने?
क्या आंतरिक ऑडिटरों ने वित्तीय नियंत्रण और वित्तीय रिपोर्ट तैयार करने की प्रक्रिया में किसी गंभीर अनियमितता का पता लगाया था? यदि ऐसा हुआ था तो उन्होंने इसके बाद क्या कार्रवाई की?
हमें कानूनी ऑडिटर प्राइस वाटरहाउस की भूमिका का भी मूल्यांकन करना चाहिए, जिसने भारतीय जीएएपी के साथ ही अंतरराष्ट्रीय वित्तीय रिर्पोटिंग मानकों (आईएफआरएस) की कसौटी पर ऑडिट किया था।
क्या राजू ने 7 जनवरी को अपने अपराध को स्वीकार करते हुए जो पत्र जारी किया वह सच था? क्या 30 सितंबर, 2008 को नकदी और बैंक बैलेंस के तौर पर 5,040 करोड़ रुपये में कोई गड़बड़ी थी? और अगर थी, तो पकड़ में क्यों नहीं आई?
जैसा कि राजू ने खुद स्वीकार किया है कि क्या 30 सितंबर, 2008 को समाप्त तिमाही के दौरान आय और शुद्ध लाभ के आंकड़ों को बढ़ाकर दिखाया गया था? क्या ऐसी धोखाधड़ी तिमाही दर तिमाही की जाती रही?
संपेक्ष में कहें तो क्या कानूनी ऑडिटर विशेषकर इसके साझेदार श्रीनिवास तल्लौरी घोड़े बेचकर सो रहे थे? और क्या ये केवल एक चूक थी या फिर आपसी मिलीभगत के कारण ऐसा संभव हो सका?
फिलहाल, ऑडिट से संबंधित जांच को लेकर मुझे बहुत उम्मीद नहीं है। पहली बात तो यह है कि बहुत संभव है कि सत्यम द्वारा अधिकतर कागजात नष्ट कर दिये गए होंगे।
जांचकर्ताओं को राजू के भाई और कंपनी के मुख्य वित्तीय अधिकारी (श्रीनिवास वाडलामणि) और वित्त विभाग के अन्य अधिकारी तथा प्राइस वाटरहाउस पर शिकंजा कसना चाहिए।
इन लोगों के साथ वित्तीय तथा फोरेंसिक जांच में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसी कुशलता भारत में और खासकर हमारी जांच एजेंसियों में कम है।
उदाहरण के तौर पर पुराने आंकड़े बताते हैं कि इंस्टीटयूट ऑफ इंडियन चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया (आईसीएआई) अपने घोटालेबाज सदस्यों की जांच को लेकर बहुत ज्यादा गंभीर रही है।
मौजूदा घटना में आईसीएआई का यह रुख बदल सकता है। हमें सुनिश्चित करना होगा कि ऐसा ही हो। तीसरा मुद्दा सत्यम के बोर्ड में शामिल उन स्वतंत्र निदेशकों से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने या तो इस्तीफा दे दिया है या फिर उनकी जगह नए लोगों को बोर्ड में शामिल कर लिया गया है।
उन्होंने सत्यम और मायटास के बीच 1.6 अरब डॉलर के प्रस्तावित लेनदेन को चुपचाप कैसे स्वीकार कर लिया? किसी ने क्यों नहीं सोचा कि प्रस्ताव अनुचित है? बिानेस स्टैंडर्ड में 18 जनवरी की हेडलाइन (सत्यम के निदेशकों ने सवाल किया लेकिन बस यूं ही) दुर्भाग्यवश सही निकली।
बोर्ड की 16 दिसंबर, 2008 को हुई बैठक के विवरणों से पता चलता है कि एक भी निदेशक ने इतने बड़े लेनदेन को लेकर किसी तरह की असहमति नहीं दिखाई जबकि यह लेनदेन एक ऐसे प्रबंधन द्वारा प्रस्तावित किया गया था जिसके प्रवर्तकों ने कथित तौर पर कंपनी की करीब 8.74 प्रतिशत इक्विटी पर कब्जा कर लिया था।
उन्होंने 1.6 अरब डॉलर ऐसी कंपनियों में स्थानांतरित कर दिए जिसमें प्रवर्तकों, उनके परिवार वालों और संबंधियों की 36.6 प्रतिशत हिस्सेदारी थी। बैठक के दौरान मूल्यांकन और बाहरी निदेशकों के सामने इस बात की सम्मोहक प्रस्तुति की गई कि यह सौदा कैसे कंपनी के मूल्य में और इजाफा करेगा।
किसी भी स्वतंत्र निदेशक से यह नहीं कहा कि ‘मैं ऐसे भारी लेनदेन के पक्ष में नहीं हूं। मैं इसके पक्ष में नहीं हूं, आप क्या कहते हैं।’ किसी भी सूचीबद्ध कंपनी (इसमें सत्यम की प्रतिस्पर्धी इन्फोसिस शामिल है) के बोर्ड में शामिल स्वतंत्र निदेशक के तौर पर मैं मानता हूं कि हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए कि हम अपनी जिम्मेदारियों के साथ कैसे न्याय कर सकते हैं।
यह सही है कि हम सबको एक ही तराजू में नहीं तौल सकते हैं, लेकिन यह भी सही है कि हमें कठिन परिश्रम करना चाहिए। स्वतंत्र निदेशक शेयरधारकों द्वारा उनके हितों की रक्षा के लिए नियुक्त किए गए प्रहरी हैं। वे प्रबंधन के सहयोगी तो हो सकते हैं लेकिन यार-दोस्त नहीं।
यदि प्रबंधन कोई ऐसा सुझाव देता है जो कंपनी की कीमत या प्रतिष्ठा को क्षति पहुंचाता हो या फिर प्रस्ताव अल्पांश शेयरधारकों के हितों के लिए नुकसानदेह हो, तो उनकी जिम्मेदारी है कि विरोध करें। स्वतंत्र निदेशकों को केवल इस तरह परिभाषित किया जा सकता है: जहां भी जरूरत हो प्रबंधन के खिलाफ खड़े हो जाइए।
यह समय है कि हम मूलभूत सिद्धान्तों की ओर वापस लौंटें और अपने बोर्ड स्तरीय कार्पोरेट प्रशासन सिद्धान्तों और आचार संहिता का एक बार फिर आकलन करें। चौथा मुद्दा सत्यम के नए बोर्ड से संबंधित है। इसे जल्द से जल्द नए सीईओ और सीएफओ की नियुक्ति करनी चाहिए।
परिचालन जारी रखने के लिए फंड जुटाने चाहिए, ग्राहकों की सत्यम की गुणवत्ता और सेवा मुहैया कराने की क्षमता के बारे में आश्वस्त करना चाहिए। ग्राहकों को इस बात का भी भरोसा दिलाना चाहिए कि पूरे प्रकरण का खामियाजा उन्हें नहीं भुगतना पड़ेगा।
प्रतिस्पर्धी कंपनियों को कारोबार हड़पने से रोकना होगा, कर्मचारियों की चिंताओं को दूर करना होगा, वित्तीय हालात और कानूनी देनदारियों की वास्तविक समझ पैदा करनी होगी और कंपनी की रियल एस्टेट इकाइयों के लिए अच्छे खरीदारों की तलाश करनी होगी।
ये कुछ ऐसे मानक हैं जिनकी कसौटी पर नए बोर्ड को परखा जाएगा। ये चार अलग अलग मसले हैं। इन पर हमें अलग अलग नजरिए और कार्रवाई की अपेक्षा है। इन बातों को स्पष्ट रूप से समझना होगा और नतीजों की निगरानी करनी होगी।