विदेश मंत्री एस जयशंकर ने दो मसलों पर हुई आलोचना पर तीखी प्रतिक्रिया देकर देश में लोगों को प्रसन्न कर दिया है। पहली आलोचना भारत द्वारा रूस से तेल खरीद बढ़ाने की थी तो दूसरी मानवाधिकार के हालात की। पहली प्रतिक्रिया में उन्होंने प्रश्नकर्ता से कहा कि भारत ने रूस से एक महीने में जितना तेल आयात किया उतना यूरोप ने एक दिन में कर लिया। यह सटीक जवाब था।
दूसरी प्रतिक्रिया थोड़ा ठहरकर आई और वह विशुद्ध बयानबाजी थी। आश्चर्य नहीं कि देश में लोगों ने इसे और अधिक सराहा। अमेरिका के विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने भारत में मानवाधिकार की स्थिति को लेकर अमेरिका की चिंता का हल्का जिक्र किया। दशकों के कूटनीतिक प्रशिक्षण ने जयशंकर को तत्काल प्रतिक्रिया देने से रोक दिया क्योंकि उक्त आयोजन सामरिक एकजुटता दिखाने पर केंद्रित था और अगर वह ऐसा करते तो इससे गलत संदेश जाता।
बाद में एक आयोजन में अपनी प्रतिक्रिया में उन्होंने कहा कि उस वार्ता में मानवाधिकार पर चर्चा नहीं हुई। उन्होंने यह भी कहा कि भारत भी कई बार अमेरिका में मानवाधिकार की हालत पर ङ्क्षचतित होता है। खासतौर पर तब जब भारतीय मूल के लोग प्रभावित होते हैं। देश में इससे कुछ ऐसा संदेश गया, ‘देखा अमेरिका को सुना दिया’। आखिरकार भारत के पास एक ऐसा मंत्री है जो आत्मविश्वास से भरा हुआ है। ये सब बातें ठीक हैं लेकिन क्या सर्वोच्च स्तर की अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को टेलीविजन बहस की तरह बरता जाना चाहिए? यह भी सच है कि जब भी अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों पर हमले हुए, जैसे हाल ही में सिखों पर, तब भारत ने आवाज उठाई है। परंतु हाल में भारत ने अपने बचाव में जो किया और इसे लेकर जो जोश पैदा हुआ है, उसमें मूल मुद्दा खो गया है। पहली बात, यह मित्रों के बीच की बातचीत थी और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में मित्रता में एक दूसरे की आलोचना शामिल होती है, बशर्ते कि आप पाकिस्तान, रूस, इस्लामिक देशों के संगठन या चीन न हों।
भारत और अमेरिका के बीच बहस दशकों से चली आ रही है। सन 1950 के दशक के आरंभ में नेहरू ने आइजनहॉवर को चीन, कोरिया और वामपंथ को लेकर संदेश दिया था। अपने कार्यकाल के आरंभ में जब राजीव गांधी वॉशिंगटन जाकर रीगन से मिले थे तो शिखर बैठक के बाद की बैठक में एक दिलचस्प घटना घटी। कहा जाता है कि राजीव गांधी ने कुछ भुने हुए बादाम उठाए और कहा कि उन्हें ये पसंद आए। इस पर रीगन ने कहा कि ये उनके राज्य कैलिफोर्निया से हैं और राजीव उन्हें भारत में ये बादाम कब बेचने देंगे? यह बहस अब तक पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है।
मानवाधिकार से लेकर व्यापार तक और अफगानिस्तान पर लगे प्रतिबंधों तक भारत और अमेरिका असहमत रहे हैं। यह असहमति करगिल के बाद के रणनीतिक मैत्री के दौर में भी जारी रही। एक दशक पहले लड़ाई इस बात पर थी कि अमेरिका पाकिस्तान को लगातार सैन्य हथियार दे रहा है। उस वक्त यानी 2010 में हवा से हवा में मार करने वाली अमराम मिसाइल की खेप पाकिस्तानी एफ-16 विमानों के लिए भेजी गई थी। या हाल ही में भारत द्वारा रूसी एस-400 प्रणाली की खरीद में भी ऐसा हुआ। लेकिन मित्र अपने मतभेदों से निपटना भी जानते हैं।
मानवाधिकार का मुद्दा भारत और पश्चिम के रिश्तों में तीन दशक से यानी 1991 में कश्मीर में अशांति के समय से ही एक कांटा बना हुआ है। पी.वी. नरसिंह राव की सरकार ने इसका कड़ाई से मुकाबला किया, वैसे ही जैसे उसने पंजाब में आतंकवाद का। पश्चिमी मानवाधिकार संगठनों ने बहुत बड़ा अभियान छेड़ा। शीतयुद्ध में अपनी जीत की शुरुआती चमक में उन्होंने अपनी सरकारों पर भी दबाव बनाया। भारत का वैश्विक कद भी आज जैसा नहीं था। ऐसे में राव ने कड़ाई से और चतुराई के साथ प्रतिक्रिया दी। उन्होंने आलोचना पर आक्रामक होते हुए कहा: हम एक लोकतंत्र हैं, हमारे यहां मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता स्वतंत्र हैं। उन्होंने पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित और पश्चिम समर्थित मानवाधिकार संबंधी उस प्रस्ताव को खारिज कराया जो भारत के खिलाफ था। उन्होंने वह प्रतिबंध भी हटवाया जो उस समय के राज्यपाल जगमोहन ने विदेशी मीडिया के कश्मीर जाने पर लगा रखा था। राव ने न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना की। जब हमारे पास मानवाधिकार संगठन हैं तो भला हमें विदेशी संगठनों की क्या आवश्यकता? अब तस्वीर अलग है। परंतु अगर अमेरिका जो सन 1990 के दशक,खासकर बिल क्लिंटन के पहले कार्यकाल की शत्रुता के बजाय अब मित्रवत होकर भी मानवाधिकार की बात कर रहा है तो उसका संदर्भ कश्मीर या पंजाब से नहीं है। वो मामले तो कब के निपट चुके। बल्कि उनका इशारा देश के अल्पसंख्यकों और खासतौर पर मुसलमानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और मोदी के आलोचकों के साथ व्यवहार से है। हालांकि अमेरिकी विचार प्रक्रिया में ईसाई भी शामिल हैं।
अपनी प्रतिक्रिया में जयशंकर ने कहा कि भारत बाइडन प्रशासन की वोट बैंक की मजबूरी समझता है। अमेरिका में बड़ी तादाद में मुस्लिम समुदाय डेमोक्रेट्स को वोट देता है। इसके अलावा पार्टी के भीतर का प्रगतिशील धड़ा मुस्लिम मतदाताओं और उनके हितों को लेकर प्रतिबद्ध है। ऐसे में उनका जवाब बताता है कि उनका संकेत किस ओर है। परंतु क्या हमारे व्यापक राष्ट्र हित, हमारे देश का कद, हमारी वैश्विक प्रतिष्ठा और हमारा नैतिक प्राधिकार आदि सब बहस से तय होंगे?
अब आप मेरे ही विचारों में विरोधाभास की ओर इशारा कर सकते हैं क्योंकि महज तीन सप्ताह पहले मैंने कहा था कि गंभीर सामरिक नीतियां नैतिकता को नहीं बल्कि अपने हितों को ध्यान में रखकर बनती हैं।
यह विरोधाभासी नहीं है क्योंकि भाजपा, उसके प्रधानमंत्री और सरकार तथा वैचारिक गुरु आरएसएस जो भारत को विश्वगुरु के रूप में देखना चाहते हैं। ठीक बुद्ध या कृष्ण के तर्ज पर या आधुनिक उदाहरण लें तो स्वामी विवेकानंद या श्री अरविंदो के तर्ज पर। हमें दुनिया को उपदेश देना पसंद है। हम प्राय: यही कहते हैं कि हमसे सीखो कैसे इतनी बड़ी विविधतापूर्ण आबादी एक मजबूत लोकतंत्र में एक साथ रहती है। हमारा दावा है कि हमें लोकतंत्र पर उपदेश देने का अधिकार है क्योंकि हम सबसे पुराने लोकतंत्र हैं। वैशाली गणराज्य इसका उदाहरण है। हमारे यहां विविधता है क्योंकि हमने अमेरिकियों की तरह जनजातियों का संहार नहीं किया और हमारे यहां समता है क्योंकि हमारे यहां दास प्रथा नहीं रही और नस्ल के आधार पर तो कतई नहीं।
क्या हमारा वर्तमान हमारी शानदार परंपरा की पुष्टि करता है? अगर हम आलोचना का जवाब तुनकमिजाज सवालों से देने लगे तो क्या हम नैतिकता का दावा कर पाएंगे? हमारे समर्थक चाहे प्रसन्न हों लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम अपने भीतर झांकने की क्षमता खो दें। या मित्रों की बात सुनना बंद कर दें।
पिछले दिनों भारत से ऐसी तमाम खबरें और तस्वीरें बाहर गयीं जिनमें रामनवमी के भड़काऊ जुलूस निकाले जा रहे थे और मुस्लिमों को ताने मारे जा रहे थे, बुलडोजर भी ज्यादातर उनकी ही संपत्ति को निशाना बना रहे थे, 20 करोड़ की आबादी को यूं अलग-थलग करने की तस्वीरें लोकतांत्रिक विश्व के अखबारों के पहले पन्ने और टेलीविजन स्क्रीन पर हैं।
इस मामले में हमारे अधिकांश मित्र झूठे दिखते हैं। सीएए-एनआरसी अभियान की तरह जल्दी ही इन मामलों में भी बांगलादेश, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात तक हमारे मुस्लिम मित्र देश असहज होंगे। अब वक्त आ गया है कि गलती सुधारी जाए।
पुनश्च: आप भारतीय कूटनयिकों पर भरोसा कर सकते हैं कि वे बहस में किसी को भी पछाड़ सकते हैं। खासकर अंग्रेजी भाषा में। सन 1985 में मणिशंकर अय्यर उस प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा थे जो दोहरे इस्तेमाल वाली तकनीक के हस्तांतरण संबंधी वार्ता के लिए अमेरिका गया था। अमेरिकियों ने एक खास शब्द बदल दिया। जब भारतीय पक्ष ने आपत्ति की तो एक अमेरिकी ने कहा कि बदलाव करने वाला व्यक्ति हार्वर्ड से है इसलिए वह गलत नहीं होगा। इस पर मणिशंकर अय्यर ने कहा कि उसने कैंब्रिज मास (मास का शाब्दिक अर्थ लीजिए या इसे मैसाचुसेट्स मानिए) से पढ़ाई की होगी तो मैं कैंब्रिज इलीट से हूं। अंग्रेजी भाषा के बारे में जो मैं कहूं वही सही होगा। अमेरिकी व्यक्ति को निरुत्तर होना पड़ा।
