भारत में महामारी की विनाशकारी दूसरी लहर दिल्ली जैसे शहरों में कुछ हद तक कमजोर पड़ चुकी है। मई की शुरुआत से ही कोविड संक्रमण के नए मामलों में लगातार कमी आई है। इस दौरान जांचों की संख्या बढ़ती रही है और अब रोजाना 20 लाख से भी अधिक जांच हो रही रही हैं। लगभग सभी राज्यों में अब गिरावट दिख रही है। हालांकि हमें ध्यान रखना होगा कि पुष्ट मामलों की संख्या पहली लहर के चरम में सामने आए मामलों से अब भी अधिक है। लिहाजा पाबंदियों को फौरन हटाने के बारे में सोचना काफी गलत होगा। देश को जल्द खोलने की जगह सार्वजनिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं दिए जाने पर इसके पूरे आसार हैं कि तीसरी लहर भारत को उम्मीद से कहीं जल्द चपेट में ले लेगी। इस संदर्भ में हमें 2020-21 में भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि संबंधी आंकड़ों को गौर से देखना चाहिए। आंकड़े बताते हैं कि साल की चौथी तिमाही में अपेक्षा से कहीं अधिक तेजी से वृद्धि हुई। दूसरी लहर की गंभीरता और उस वृद्धि की वापसी की रफ्तार के बीच सीधा ताल्लुुक है। सरकार को ‘वी-आकृति वाली रिकवरी’ के बारे में बात करना उस समय तक बंद कर देना चाहिए जब तक कि वैज्ञानिक समुदाय से यह आश्वासन न मिले कि ‘सामान्य’ आर्थिक गतिविधि की बहाली और वायरस के प्रसार पर लगाम के बीच मेल है।
इस तरह दो बिंदुओं पर फौरन ध्यान देने की जरूरत है। पहला, केंद्र एवं राज्यों की सरकारों ने पिछले एक साल में शायद यह सबक सीखा है कि महामारी से संबंधित पाबंदियों से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले लोगों को राहत पहुंचाई जाए। बीते एक साल में इस संदर्भ में ‘एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड’ जैसे कुछ अहम कदम उठाए गए हैं। तत्काल ध्यान देने वाली बात है कि सरकार इन बदलावों के असर को तेजी से परखे। ज्यां द्रेज एवं अनमोल सोमांची द्वारा पिछले लॉकडाउन में खाद्य असुरक्षा को लेकर किए गए एक सर्वे से पता चला है कि 50 फीसदी से लेकर 80 फीसदी परिवार पहले की तुलना में कम खाना खा रहे थे। इस संकट से सरकार ने क्या सीखा है? खाद्य सुरक्षा के लिए किस तरह के अतिरिक्त इंतजाम किए जा सकते हैं? सरकार को इन सवालों के जवाब तलाशने चाहिए। दूसरा बिंदु यह है कि पाबंदियां केवल तभी हटाई जा सकती हैं जब टीकाकरण अभियान कामयाबी के एक पूर्व-निर्धारित स्तर तक पहुंच जाए। मॉनसून खत्म होने तक 30 करोड़ भारतीयों को टीका लगाने का लक्ष्य शायद हासिल हो जाए या फिर ऐसा नहीं भी हो। लेकिन अब यह जरूरी है कि टीकाकरण एवं अनलॉक के बीच संबंध का एक साफ खाका हो और यह मनमाने एवं अवैज्ञानिक निर्णय-निर्माण पर नहीं छोड़ा जा सकता है। ज्यादा टीके लगाने की राह में आने वाली किसी भी बाधा को दूर किया जाना चाहिए। ऐसे अवरोधों में कुछ टीका निर्माताओं की तरफ से उठाई गई सुरक्षा कवरेज की मांग भी शामिल है। अगंभीर मुकदमे दायर होने के बीच टीका निर्माता कंपनियों की यह मांग तर्कसंगत है और उसे पूरा किया जाना चाहिए। कोरोनावायरस की अधिक खतरनाक किस्म बी-1617-2 (जिसे अब डेल्टा संस्करण कहा जा रहा है) के खिलाफ ज्यादा कारगर माने जाने वाले एमआरएनए-आधारित टीके बूस्टर खुराक के तौर पर हासिल करना भी खासा अहम होगा। सरकार को यह मानना भी चाहिए कि टीके को लेकर लोगों की हिचक भी एक समस्या है। ऐसी हिचक को यह सुनिश्चित कर दूर किया जा सकता है कि टीके के बारे में सार्वजनिक सूचना अभियान चलाने के साथ अत्यधिक पारदर्शी एवं विज्ञान-आधारित नियमन हो।
कुछ सत्ताधारी नेताओं के साथ केंद्र सरकार के कुछ अफसरों ने भी ऑनलाइन युद्ध में भारत बायोटेक के बनाए टीके कोवैक्सीन को जल्दबाजी में मंजूरी दिए जाने को लेकर उठाए गए सवालों को ही टीका मुहैया कराने में हुई देरी के लिए जिम्मेदार बता दिया है। यह बेहद घटिया दलील है। सच तो इसके ठीक उलट है। कोवैक्सीन के तीसरे क्लिनिकल चरण के पर्याप्त आंकड़े सामने आए बगैर इस टीके को आपात उपयोग की मंजूरी देना ही असल समस्या थी।
टीके को लेकर लोगों में पैदा हुई हिचक के लिए सरकार ही जिम्मेदार है, विपक्ष में बैठे हुए लोग नहीं। विपक्षी नेताओं ने तो कोवैक्सीन को पहली बार मंजूरी दिए जाने पर एकदम सही सवाल उठाए थे। हमें पता है कि यह एक सियासी दांव है। टीके के बारे में बनी हिचक को लेकर अगर सरकार वाकई में गंभीर होती तो वह बिना परखे हुए छद्म-वैज्ञानिक उत्पादों के प्रचार-प्रसार से जुड़ी सार्वजनिक हस्तियों पर भी कार्रवाई करती। इन अपुष्ट उत्पादों के जरिये आधुनिक दवाओं एवं टीकों पर लगातार हमले किए जा रहे हैं।
सरकार को अब अपना ध्यान टीकाकरण केंद्र आने वाले लोगों को टीके मुहैया कराने की जगह सबसे असुरक्षित लोगों तक टीके पहुंचाने पर केंद्रित करना चाहिए। खासकर 60 साल से अधिक उम्र के लोगों को खोज-खोजकर टीका लगाना चाहिए। कुछ नेताओं एवं न्यायाधीशों की कुछ हालिया टिप्पणियों से लगता है कि टीका वितरण में युवा आबादी को प्राथमिकता दी जाए। इसके पीछे सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी कोई वाजिब दलील नहीं है क्योंकि बढ़ती उम्र के साथ मृत्यु दर भी तेजी से बढ़ती है। टीका कार्यक्रम के अगले चरण में 60 साल से अधिक उम्र के लोगों को टीका मुहैया कराने में प्राथमिकता देनी चाहिए और फिर 45 साल से ऊपर के लोगों को टीका लगाए जाए। इससे उलट उठने वाली आवाज के अवैज्ञानिक होने पर सरकार को नजरअंदाज कर देना चाहिए।
आखिरकार सरकार को कोविड-19 महामारी की उत्पत्ति के बारे में विधिवत जांच को लेकर तेज हो रही अंतरराष्ट्रीय मांग का भी साथ देना चाहिए। पिछले 6-8 महीनों में एकत्रित परिस्थितिजन्य साक्ष्यों ने उस आशंका को बल दिया है कि शायद यह खतरनाक वायरस किसी प्रयोगशाला की उपज है। ऐसे में वायरस की उत्पत्ति को लेकर गंभीर जांच जरूरी है। ऐसी जांच में भारत के प्रयास भी निहित हैं।
