राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा अगस्त के अंत में 2021-22 में पहली तिमाही के अनुमान पेश करने के बाद से इस बात को लेकर बहस चल रही है कि यह अंग्रेजी के वी अक्षर की आकृति का सुधार (तेज गिरावट के बाद तेजी से सुधार) है या नहीं। आंकड़ों पर एक नजर डालने से सवालों का जवाब मिलता है। इसमें एनएसओ के अनुसार 2019-20 की पहली तिमाही के बाद वास्तविक तिमाही जीडीपी (मुद्रास्फीति के समायोजन के बाद) और 2021-22 की दूसरी तिमाही के लिए मेरा अनुमान शामिल है। यह तीन वक्तव्यों का स्पष्ट समर्थन करता है। पहला, अप्रैल-जून 2020 की तेज गिरावट के बाद अगली तीन तिमाहियों में बेहतर सुधार के जरिये तिमाही जीडीपी पहले के स्तर पर पहुंच सका। तेज सुधार के बावजूद इसे वी आकृति का सुधार नहीं माना जाता। दूसरा, मार्च-जून 2021 में कोविड-19 महामारी की अत्यंत घातक दूसरी लहर के साथ जीडीपी में एक बार फिर गिरावट आई, हालांकि यह पिछले वर्ष जैसी नहीं थी लेकिन इसने सुधार को बेअसर कर दिया। तीसरी बात, उच्च तीव्रता वाले आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि 2021-22 की दूसरी तिमाही में एक और मजबूत सुधार देखने को मिल सकता है। इस विवरण के मुताबिक बनने वाली तस्वीर की आकृति अंग्रेजी के वी अक्षर के बजाय डब्ल्यू अक्षर से अधिक मेल खाती है। यदि कोविड की मजबूत तीसरी लहर के कारण जीडीपी में और गिरावट नहीं आती है तो अंतिम तौर पर यही स्थिति रहेगी।
हमारे सामने जो जानकारियां हैं उनके आधार पर इस बात पर व्यापक सहमति है कि 2021-22 के पूरे वर्ष में जीडीपी की वृद्धि 8 से 10 फीसदी के दायरे में रहेगी जो 2019-20 के वार्षिक जीडीपी के स्तर के बराबर या उससे कुछ अधिक होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि अर्थव्यवस्था को कोविड तथा लॉकडाउन के कारण 10 से 12 फीसदी की संभावित वृद्धि का नुकसान हुआ। लेकिन इससे भी अहम मुद्दा यह है कि मध्यम अवधि में यानी मान लें कि 2022-23 से 2026-27 के बीच आर्थिक वृद्धि को क्या होगा?
यहीं पर बहस तीखी हो जाती है। सरकारी विश्लेषकों समेत आशावादियों का मानना है कि हम दोबारा 7 फीसदी सालाना के आसपास की वार्षिक वृद्धि हासिल कर लेंगे। उनका मानना है कि हाल में उठाए गए नीतिगत कदम उनकी मदद करेंगे। मंदी का विचार रखने वाले मुझ जैसे स्वतंत्र विश्लेषकों को आशा है कि कोविड के झटके के दीर्घावधि प्रभाव, कोविड के आगमन के पहले शुरू हो चुकी मंदी और हालिया नीतिगत कदमों के प्रभाव पर शंका के कारण यह करीब 5 फीसदी रहेगी।
कोविड और लॉकडाउन के झटके ने चार ऐसे झटके दिए हैं जिनसे उबरने में लंबा समय लग सकता है। पहला है अर्थव्यवस्था का असंगठित, गैर कृषि क्षेत्र जो जीडीपी में करीब एक तिहाई का योगदान देता है और कुल रोजगार में जिसकी हिस्सेदारी 40 फीसदी है। इसमें हजारों छोटे, मझोले और सूक्ष्म उत्पादक शामिल हैं। कोविड और लॉकडाउन ने इस पर गहरा असर डाला। उनमें से अधिकांश के लिए उत्पादन और रोजगार दोनों ही मोर्चों पर सुधार कमजोर रहा है। कई ने तो काम करना बंद कर दिया है जिससे कृषि और कमतर सेवाओं में काम करने वाले तेजी से बढ़े हैं। पहले के आय और उत्पादन स्तर पर पहुंचना उनकेलिए दूर की कौड़ी हो सकती है। दूसरी बात, उनकी कमजोर आय का वृहद आर्थिक प्रभाव खपत को आने वाले कई वर्षों तक प्रभावित कर सकता है। यदि ऐसा होता है तो समग्र निवेश पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। तीसरी बात, सार्वजनिक वित्त दो वर्षों से कोविड से बुरी तरह प्रभावित है जिसके चलते राजकोषीय घाटा तेजी से बढ़ा है और सरकार का कर्ज-जीडीपी अनुपात भी करीब 90 फीसदी हो गया है। वैश्विक अनुभव बताते हैं कि ऐसी राजकोषीय कमजोरी सतत और मजबूत आर्थिक विकास के लिए अनुकूल नहीं है। चौथी बात, कोविड के कारण पहले से ही तनावग्रस्त वित्तीय तंत्र और अधिक प्रभावित हुआ है।
आशावादी कहते हैं सरकार ने पिछले दो वर्षों में वृद्धि को बढ़ावा देने वाली कई पहल की हैं। मैं उनमें से कुछ को एक साथ रखकर प्रत्येक के समक्ष कोष्ठक में संक्षिप्त टिप्पणी करूंगा:
► सितंबर 2019 में किए गए बड़े पुनर्गठन/कॉर्पोरेट कराधान सुधार (शायद कोविड झटके को धन्यवाद देना चाहिए कि इसके कारण कंपनियों का मुनाफा बिना नए निवेश को गति दिए बढ़ा।)
► कृषि विपणन और वितरण के क्षेत्र में बड़े सुधार (राजनीतिक विरोध के कारण ये अभी स्थगित हैं)
► करीब 30 श्रम कानूनों को चार संहिताओं में पुनर्गठित कर संसद ने गत वर्ष पारित किया था (इनके क्रियान्वयन के लिए नियम बनने की प्रतीक्षा है। इन नियमों पर केंद्र और राज्य सरकारों का सहमत होना आवश्यक है)। साथ ही कुछ अहम बातें स्पष्ट की जानी हैं, मसलन राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन का स्तर अभी स्पष्ट होना है, अनावश्यक रूप से ऊंची दर गरीब क्षेत्रों में रोजगार दर को प्रभावित कर सकती है।
► हालिया बजट में गैर सामरिक सरकारी उपक्रमों के निजीकरण की जो प्रतिबद्धता जताई गई है (पूंजी बाजार के बेहतर होने के बावजूद इस दिशा में प्रगति धीमी रही है)
► ‘बैड बैंक’ और राष्ट्रीय परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनी लिमिटेड की स्थापना ताकि बैंकिंग तंत्र को फंसे कर्ज की समस्या से निजात दिलाई जा सके (यह अच्छी पहल है लेकिन अभी इसकी शुरुआत ही हुई है।)
► अप्रैल 2020 में सरकारी वित्त पोषण के साथ उत्पादन संबद्ध प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना शुरू की गई ताकि प्रमुख विनिर्माण क्षेत्रों तथा उनके निर्यात को गति दी जा सके (ऐसा चुनिंदा समर्थनदोधारी तलवार साबित हो सकता है)
► हाल ही में सरकारी क्षेत्र की परिसंपत्तियों के लिए 6 लाख करोड़ रुपये मूल्य की राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन की घोषणा की गई (इस कार्यक्रम की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि सरकारी और निजी क्षेत्र के बीच वाणिज्यिक साझेदारी कितनी प्रभावी हो सकती है, अतीत में हमें इस क्षेत्र में ज्यादा कामयाबी देखने को नहीं मिली है)।
नकारात्मक पक्ष की बात करें तो व्यापार नीति के अहम क्षेत्र में चौथाई सदी तक उच्च सीमा शुल्क में लगातार कमी के बाद 2019 में सरकार ने नीति बदल दी। इतना ही नहीं 2019 में एशिया के 15 अन्य देशों के साथ सात वर्षों की चर्चा के बाद सरकार अचानक क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) का संस्थापक सदस्य बनने से पीछे हट गई। इससे मजबूत व्यापारिक संबंध और मूल्य शृंखला में शामिल होने तथा जीवंत क्षेत्रीय व्यापारिक केंद्र बनने की संभावना पर असर पड़ा। ऐसे में निर्यात और आयात में स्थायी तथा तेज विकास की संभावना प्रभावित हुई है।
इन बातों को ध्यान में रखते हुए मुझे नहीं लगता है कि मुझे इस वर्ष फरवरी में प्रकट किए गए अपने विचारों को संशोधित करना चाहिए। उस वक्त मैंने कहा था कि मध्यम अवधि में हमारे लिए औसतन 5 फीसदी की वृद्धि दर पार करना कठिन होना चाहिए।
(लेखक इक्रियर के मानद प्रोफेसर और भारत सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। लेख्ख में व्यक्त विचार निजी हैं)
