अमेरिका में तीसरी तिमाही में उत्पादन गिरने के साथ ही अब अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की आखिरी बहस ज्यादा से ज्यादा आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित होने लगी है।
टैक्सों में कटौती, वित्त व्यवस्था पर नियंत्रण और शिक्षा तथा स्वास्थ्य को सरकारी सहायता जैसे मुद्दों पर आधारित यह चर्चा अब दक्षिणपंथ और वामपंथ की बहस में बदलती लग रही है। इस बहस में वामपंथ की जीत होती नजर आ रही है, जिसका प्रतिनिधित्व ओबामा कर रहे हैं।
ऐसी हालत में वॉल स्ट्रीट के एक बॉन्ड ट्रेडर की डायरी के कुछ हिस्से काफी मजेदार हैं। उस कारोबारी ने अपनी डायरी में लिखा है कि, ‘अभी कुछ ही दिन पहले मैंने फाइनैंशियल टाइम्स की लुसी केलावे को अपनी दिक्कतों के बारे में विस्तार से बताया। एक पार्टी में मुझसे पूछा गया कि मैं क्या करता हूं? मैंने जवाब दिया कि मैं एक इनवेस्टमेंट बैंकर हूं।
उसके बाद लोगों ने मुझे ऐसी नजरों से घूरा, जैसे उन्होंने किसी बलात्कारी को देख लिया हो। लुसी के मुताबिक ऐसे हालात में मेरा जवाब होना चाहिए था कि मैं सरकार के लिए काम करता हूं। एक तरीके से वह सच ही तो कह रही थी। मेरी कंपनी के कुछ हिस्से को सरकार ने तो खरीद ही लिया है। इन बातों को छोड़ भी दें, तो हकीकत यही है कि मुझे बीते दशकों की बहुत याद सताती है।
वे भी क्या दिन थे? उन दिनों हम सच में दुनिया के सुल्तान हुआ करते थे। उन दिनों अर्थव्यवस्था, वित्त बाजारों के इशारों पर नाचा करती थी। हमारी वजह से ही तो अमेरिका के कुल मुनाफे में सिर्फ 10 फीसदी का योगदान देने वाली वित्तीय सेवा कंपनियों की हिस्सेदारी 40 फीसदी हो गई।
साथ ही, हमने लोगों को यह भी अच्छी तरह से समझा दिया था कि लालच बुरी नहीं, बल्कि अच्छी बला है। उन सालों में बस दो बार हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। लेकिन भला हो ग्रीनस्पैन भाई साहब का, जिनकी वजह से हमें उस दिक्कत का सामना करने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई।’
‘तो क्या इस बार हालात पहले की तरह नहीं रहे? हमने कई सबप्राइम कर्ज लेने वालों की मदद की है। मुझे फक्र है कि मैंने सीडीओ और एलॉगिर्थम्स का इस्तेमाल कर जोखिम को तय करने में एक अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन आज उन्हीं लोगों को उनके घरों से धक्के मारकर बाहर निकाला जा रहा है।
साथ ही, अर्थव्यवस्था की हवा मंदी ने निकाल रखी है। इस बात के लिए लोग-बाग हमें और ग्रीनस्पैन साहब को जी भर कर गालियां दे रहे हैं। अगर आप मुझसे पूछें तो यह सरासर गलत बात है। मैथेमैटिकल मॉडलों के गलत साबित होने के लिए हमें कैसे दोषी ठहराया जा सकता है?
अगर ब्रोकरों और बैंकरों की जबरदस्त मार्केटिंग की वजह से कर्ज चुकाने की हैसियत नहीं रखने वालों ने भी लोन ले लिया, तो हम कहां गलत हैं? क्या उन्होंने ‘कैवेट इम्पेटर (ग्राहक सावधान रहें)’ की कहावत नहीं सुनी हैं? जिंदगी कितनी हसीन होती, अगर डेरिवेटिव्स के साथ जोखिम नहीं जुड़े होते या फिर उन बेरोजगारों को उनके घरों से बाहर नहीं निकाला जाता?’
‘कई बार मैं सोचता हूं कि शायद कार्ल मार्क्स ने सही ही कहा था। कई बार मैं भी सोचता हूं कि पूंजीवादी मुल्कों में कई बार लोग-बाग बिना उत्पादन को बढ़ाए हुए ही ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की जुगत में लग जाते हैं। कई बार मेरे भी दिमाग में यह बात आती है कि मैं समाज का भला करने वाले ऐसे कौन सा काम करने में जुटा हुआ हूं, जो मुझे इतने पैसे मिल रहे हैं।
आपको यकीन नहीं होगा, लेकिन मैंने अपनी महंगी पोर्श कार को इस्तेमाल करना बंद कर दिया है। अब मैं लेक्सस में ही ऑफिस जाता हूं, जो मेरी कारों के काफिले की सबसे सस्ती कार है। वैसे, 18 अक्टूबर को फाइनैंशियल टाइम्स में छपे जॉन प्लेंडर के लेख ‘शट ऑउट’ को पढ़कर काफी बेहतर महसूस कर रहा हूं। अब मुझे भरोसा हो गया है कि मेरे पेशे का मकसद काफी बड़ा है। हम लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों को नियंत्रित करने से कम मुश्किल काम नहीं करते। इसलिए हमें इतना भारी वेतन पाने का पूरा हक है।’
‘प्लेंडर ने बिल्कुल सच कहा है कि यह एक ऐसा युग था, जहां शेयर बाजार में काम करने वाले कारोबारियों को बॉन्ड मार्केट पर नजर रखने वालों के तौर पर जाना जाता था। इस दौर में इन कारोबारियों ने महंगाई पर काबू पर रखने की खातिर सरकारी घाटों की भरपाई करने से साफ इनकार कर दिया। हकीकत तो यह है भाई साहब कि हम हमेशा काफी देख समझ कर ही चीजों पर नजर रखते थे।
मिसाल के तौर पर हमने बुश को मोटे राजकोषीय घाटे के लिए कभी कुछ नहीं कहा। आखिर उस घाटे की वजह भी तो हम जैसे लोगों को टैक्स में मिली मोटी-ताजी छूट थी। साथ ही, वह दुनिया भर में लोकतंत्र और वित्तीय पूंजीवाद को भी तो फैला रहे थे। हमने वित्तीय व्यवस्था को उन एशियाई लोगों से भी बचाकर रखा, जिनकी कई आदतें काफी अजीब थीं।
उनमें काफी सारे पैसे जमा करने की बहुत ही बुरी आदत है। इसीलिए हम बॉन्ड ट्रेडरों ने आगे आकर एशिया की मोटी जमापूंजी को सोखने का जिम्मा उठा और इसमें काफी हदतक कामयाब भी हो गए। मुझे उस दिन का इंतजार है, जब यह संकट खत्म होगा और मैं अपनी पोर्श फिर से चलाऊंगा।’
‘अनुमानों की मानें तो आज ओबामा की जीत पक्की है। लेकिन क्या सचमुच उनके साथ इतने लोग हैं? दरअसल, शायद गोरे खुद को रंगभेदी और नस्लभेदी के तौर पर नहीं दिखलाना चाहते। शायद, वे वोटिंग बूथ के अंदर जाकर उनका फैसला बदल जाए।
साथ ही, रिपब्लिकन पार्टी की तरफ से उप राष्ट्रपति की उम्मीदवार पालिन तो गर्भपात का विरोध करने वाले ईसाई कट्टरपंथियों की पसंदीदा हैं। उन कट्टरपंथियों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि पालिन की बेटी शादी से पहली ही मां बन चुकी हैं। कभी सोचा है, अगर ओबामा की बेटी के साथ होता तो कितना हंगामा होता?’