संचालन संबंधी अस्पष्टता शहरों और इनके पास बसे कस्बाई इलाकों के बीच के अंतर को बढ़ाती है। इससे शहरीकरण बिखरा हुआ और असंगठित नजर आता है। बता रहे हैं अमित कपूर और विवेक देवरॉय
सभी के विकास के लिए शहरीकरण के लाभ की बात हो तो इसकी प्रक्रिया को समझने के लिए कई चश्मों का इस्तेमाल किया जा सकता है। लोग शहरीकरण की गति को राष्ट्रीय, उपक्षेत्रीय अथवा क्षेत्रीय स्तर पर देख सकते हैं और उसे वैश्विक स्तर के समक्ष रखकर यह समझने का प्रयास कर सकते हैं कि भारत इस सफर में अपने समकक्ष देशों की तुलना में कितना आगे या पीछे है।
इस संदर्भ में हम इस बात से अवगत हैं कि भारत में शहरीकरण की रफ्तार तकरीबन 35 फीसदी है जबकि वैश्विक औसत 56 फीसदी के आसपास है। इसे देखने का एक और तरीका यह समझना है कि कैसे दुनिया भर में शहरीकरण के साथ अलग-अलग कारक जुड़े रहे हैं। किस देश में किस बात ने शहरीकरण को गति दी और ऐसा किस समय हुआ?
उदाहरण के लिए यूरोप में शहरीकरण का करीबी संबंध 18वीं सदी में हुई औद्योगिक क्रांति से है। इसकी शुरुआत यूनाइटेड किंगडम से हुई थी और बाद में समूचे यूरोप और विश्व भर में इसका अनुकरण किया गया। हमारे पास एक और तरीका यह समझने का भी है कि एक बार शहरीकरण शुरू होने के बाद क्या होता है। विशेषतौर पर हम अपने लोगों के लिए शहरों का नियोजन और संचालन किस प्रकार करते हैं।
शहरीकरण एक जीवंत शक्ति है जिसे कई कारकों से गति मिलती है और जो किसी क्षेत्र के विकास पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। रोजगार के अवसर, संसाधनों की बेहतर उपलब्धता, बढ़ती हुई आकांक्षाएं और सहज सुगम जीवन की आकांक्षा। ये सभी कारक काफी हद तक उस क्षेत्र में शासन की क्षमताओं पर निर्भर करते हैं।
इन शासन प्रणालियों को दो नजरियों से देखने की जरूरत है- एक तो यह कि शहर में किस प्रकार का प्रशासनिक ढांचा विकसित हो रहा है और इस प्रशासन द्वारा किस प्रकार की सेवाएं प्रदान की जा रही हैं। ये नजरिये उस समय और महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं जब हम विस्तारित शहरीकरण यानी उपशहरीकरण तथा अर्द्धग्रामीण-अर्द्धशहरी विकास आदि।
इसमें परिवहन के प्रबंधन (प्रति 10,000 लोगों पर कितनी बसें होनी चाहिए) से लेकर स्थानीय निकायों को मजबूत करना, समावेशी वित्तीय सेवाओं तक समुचित पहुंच (सहकारी बैंकों द्वारा) सुनिश्चित करना और शहरी स्वास्थ्य केंद्रों की मदद से स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराना शामिल है। हाल के समय में शासन प्रशासन की क्षमताओं ने भी संक्रामक बीमारियों का प्रसार रोकने में अहम भूमिका निभाई है।
इसके अलावा शहरीकरण के विचार की सीमाओं का भी विस्तार हो रहा है। अब जरूरत इस बात की है कि शहरी प्रशासन को मजबूत बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। अलग-अलग तरह के शहरीकरण केंद्र उभर रहे हैं जिनमें उपनगरीय इलाके, शहर और कस्बे शामिल हैं। इस विस्तार में शहरीकरण की गति के लिए सकारात्मकता देखी जा सकती है लेकिन अगर इसका नियमन नहीं किया गया तो विकास के लाभों का वितरण असमान हो जाएगा। इस असमान प्रसार का प्रबंधन और इसकी निगरानी करने के लिए इस क्षेत्र में मजबूत संचालन व्यवस्था की आवश्यकता थी।
भारत में हमें शहरी और ग्रामीण इलाकों के बीच घनी बसाहट वाले ऐसे कई केंद्र नजर आते हैं। इन्हें ऐसे इलाकों के रूप में चिह्नित किया जाता है जो ग्रामीण से शहरी बनने की ओर अग्रसर हैं और जहां इसके लिए जरूरी बदलाव हो रहे हैं। पेरी अर्बन एरिया कहे जाने वाले ये इलाके ऐसे होते हैं जहां प्रवासन की गति तेज होती है लेकिन वह फिर भी बड़े शहरी केंद्रों से अलग-थलग रहता है। ये इलाके अक्सर अवैध झुग्गी बस्तियों, टोले, झोपड़पट्टी या ऐसी बस्ती के रूप में उभरते हैं जिन्हें शहर का दर्जा तो नहीं होता लेकिन उनके गुण शहरों के होते हैं। ईस्ट-वेस्ट सेंटर ने पटना, गुवाहाटी, चंडीगढ़, अहमदाबाद और चेन्नई में ऐसे पीयूए पर अध्ययन किया। कहा गया कि इन शहरों का विस्तार उनकी क्षमता से अधिक हो चुका है और जहां पीयूए ने उन्हें पानी तथा जमीन जैसे संसाधनों का इस्तेमाल उद्योग धंधे लगाने में करने का अवसर दिया है वहीं बदले में इन क्षेत्रों की स्थित और खराब ही हुई है।
हमारा लक्ष्य शहरों और पीयूए के बीच के संबंधों की पड़ताल करना नहीं है बल्कि हम यह स्थापित करना चाहते हैं कि शासन संबंधी अस्पष्टता के कारण इन क्षेत्रों के बीच की खाई बढ़ती है। इसकी वजह से बहुत बिखरा हुआ और असंगठित शहरीकरण नजर आता है। भारत में अभी भी इस बात को लेकर स्पष्टता नहीं है कि आखिर शहरीकरण को किस प्रकार
परिभाषित किया जाए। यहां हमें एकदम निचले स्तर के शासन प्रशासन से जुड़े कानूनों पर निर्भर होना पड़ता है। राज्य दर राज्य जनांकीय और अन्य कारकों के आधार पर निर्धारित नगर निकायों के प्रकार भी महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए 74वें संशोधन अधिनियम (1992) के अनुसार तीन तरह की नगरपालिकाएं हैं। पहली ग्रामीण से शहरी इलाकों में बदल रहे क्षेत्रों के लिए नगर पंचायत, छोटे शहरी इलाकों के लिए नगर परिषद और बड़े शहरों के लिए नगर निगम। नगर पंचायतों के संविधान के मुताबिक ही पीयूए को मान्यता मिलती है। बहरहाल, इन इलाकों में अक्षमता, खराब फंडिंग और कल्याणकारी शासन के विचार से दूरी नजर आती है।
दुनिया भर में शहरीकरण का समान विस्तार नहीं हो रहा है और इसकी वजह से शहरों को वृद्धि और साझा समृद्धि हासिल करने में मुश्किल हो रही है। भारत में शहरों के विस्तार की गति की प्रमुख वजह बढ़ती आबादी रही है। बड़े शहरों में जमीन की कमी के चलते पीयूए पर यह दबाव बढ़ा है कि वे आबादी को समायोजित करें तथा रोजगार और सामान्य जीवन की उनकी आकांक्षाओं को भी पूरा करें। इन क्षेत्रों की अपेक्षाकृत कमजोर संचालन व्यवस्था को देखते हुए शहरी नीतियों को नए ढंग से तैयार करने की आवश्यकता है।
अभी ये नीतियां पूरी तरह पीयूए पर केंद्रित हैं अब आवश्यक है कि इनकी मदद से शहरों का स्थायी विस्तार किया जाए और इन क्षेत्रों का पूरा विकास हो सके। ऐसा तभी हो सकेगा जब हम यह स्वीकार करेंगे जब शासन के रवैये को शहरीकरण की बहस में शामिल करना होगा ताकि शहरीकरण की गति और उसकी दिशा निर्धारित की जा सके।
(कपूर स्टैनफर्ड यूनिवर्सिटी के व्याख्याता और देवरॉय भारत के प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन हैं)