निजी और सरकारी दोनों क्षेत्रों के ताजातरीन आंकड़े यह बताते हैं कि देश की श्रम शक्ति घोर संकट में है। इसी संकट के कारण 2017-18 की तुलना में आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के ताजा संस्करण में कृषि क्षेत्र में श्रमिकों की तादाद बढ़ी है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है।
यह बात उन प्रमाणों के अनुरूप ही है जो हमें शहरी गरीबों की परेशानियों के रूप में नजर आ रहे हैं। महामारी के आगमन के बाद पहले से त्रस्त शहरी गरीबों की हालत और खराब हुई है। संसद की श्रम संबंधी स्थायी समिति द्वारा हाल ही में सदन को सौंपी गई रिपोर्ट की ताजा अनुशंसाओं को इसी संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। समिति का कहना है कि ‘शहरी गरीबों की समस्याओं पर सरकार ने जरूरी ध्यान नहीं दिया’ और इसलिए ‘महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की तरह शहरी श्रमिकों के लिए भी रोजगार गारंटी योजना लागू करना जरूरी है।’
‘शहरी नरेगा’ की यह मांग नई नहीं है लेकिन यह पहला मौका है जब इसे ऐसा समर्थन मिला है। बल्कि केंद्र सरकार ने तो गत वर्ष महामारी के आगमन के वक्त ही इस संभावना का अध्ययन कर लिया था और उसने स्पष्ट राय जानने के लिए संबंधित राज्यों के अफसरशाहों के साथ बैठक भी की थी। विभिन्न रिपोर्ट के मुताबिक यह अनुमान लगाया गया कि यह राजकोषीय और प्रबंधन दोनों दृष्टि से बड़ा बोझ होगा और विभिन्न क्षेत्रों पर भी इसका गहरा असर होगा।
यह सही है कि देश के ग्रामीण और शहरी इलाकों में श्रमिकों के काम की प्रकृति में काफी अंतर है और इसलिए शहरी इलाकों में इस्तेमाल के लिए नरेगा का अनुसरण करना आसान नहीं है। उदाहरण के लिए ग्रामीण रोजगार अक्सर मौसमी हो सकता है। यानी 100 दिन के मौसमी मेहनताने को समय-समय पर दिया जा सकता है जब बुआई नहीं हो रही हो या फसल कटाई का मौसम न हो। शहरी रोजगार में यह विशेषता नहीं होती। यह भी सही है कि शहरी इलाकों में जो लोग महामारी के कारण संकट में आए उनमें से कई ऐसे काम में लगे रहे होंगे जिसमें शारीरिक श्रम की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे में शहरी रोजगार गारंटी योजना के लिए शायद पर्याप्त भागीदार भी न मिलें।
यदि ऐसा होता भी है तो भी मूल बात यह है कि देश में कल्याण योजनाएं बनाने में बड़ी खामी मौजूद है यह सत्य है। उनमें से कई तो विशिष्ट क्षेत्रों से संबद्ध हैं और खासतौर पर गांवों से। ऐसे में प्रवासी श्रमिक शहरों और कस्बों में आते हैं और यहां उन्हें आजीविका के क्षेत्र में तगड़ी अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है। महामारी के दौरान ‘एक देश एक राशन कार्ड’ की मांग उठी थी जिससे पता चलता है कि कल्याण योजनाओं को इस प्रकार तैयार किया जाना चाहिए कि उन्हें हर जगह इस्तेमाल किया जा सके।
इसके अलावा अनिश्चितता के अन्य स्रोत भी हैं जिन्हें लेकर कदम उठाना जरूरी है। सस्ते आवास की कमी दूर करना इसी सिलसिले की एक कड़ी है। यदि दैनिक वेतनभोगियों को बेघर होने से बचे रहने के लिए निरंतर काम की जरूरत होगी तो वे किसी भी संकट के समय शहरों में बने नहीं रह पाएंगे। फिर चाहे संकट व्यक्तिगत हो या कोविड की पहली या दूसरी लहर जैसा सार्वजनिक। कुछ राज्यों में पहले ही शहरी वेतन समर्थन कार्यक्रम को लेकर प्रयोग शुरू कर दिए गए हैं। इनसे सबक लिया जाना चाहिए और नए प्रायोगिक कार्यक्रम शुरू करके यह आकलन किया जाना चाहिए कि कैसे शहरी सुरक्षा ढांचा तैयार और क्रियान्वित किया जा सकता है। आखिर में नरेगा की तरह एक शहरी सुरक्षा ढांचा भी स्थायी हल नहीं हो सकता। ढांचागत हल मसलन कौशल उन्नयन और आजीवन सीखने की प्रक्रिया के माध्यम से ही सबकी अनिश्चितता का पूर्ण अंत किया जा सकता है।