भारत में हम कोरोना की दूसरी लहर से निपट रहे हैं और अर्थव्यवस्था की बेहतरी की बाट जोह रहे हैं। दूसरी ओर शेष विश्व में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं कम हो रही हैं और आर्थिक सुधार की प्रक्रिया तेज हो रही है। अमेरिका में मुद्रास्फीति को लेकर कुछ चिंताएं हैं। अल्पावधि में इस बात की काफी संभावना है कि ये कुछ ऐसी दिक्कतें हैं जिन्हें टाला नहीं जा सकता है और जो तब उत्पन्न होती हैं जब एक जटिल बाजार अर्थव्यवस्था वापसी का प्रयास कर रही होती है। एक बार हालात सामान्य हो जाने के बाद विकसित बाजारों में मुद्रास्फीति का सवाल और अहम हो जाएगा। जब विकसित देशों में ब्याज दरें बढऩे लगेंगी तो इसका असर भारत में परिसंपत्ति कीमतों और पूंजी प्रवाह पर होगा। ऐसे में नीति निर्माताओं के सामने एक नई पहेली होगी।
भारतीय वृहद आर्थिक स्थिति में आम परिवारों की मांग, सरकारी मांग और निजी निवेश की मांग को देखते हुए हालात कठिन नजर आ रहे हैं। निर्यात मांग जरूर बेहतर है। विश्व अर्थव्यवस्था में तेजी से सुधार हो रहा है क्योंकि अमीर देशों ने अपनी सरकारी क्षमता का पूरा इस्तेमाल करते हुए टीकाकरण शुरू किया है। अमेरिका में जबरदस्त सुधार नजर आ रहा है। ट्रंपवाद का राजनीतिक प्रभाव कम हुआ है और टीकाकरण व्यापक असर वाली राजकोषीय नीति ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। अमेरिका में मुद्रास्फीति के कुछ संकेतक यही सुझाते हैं कि मुद्रास्फीति में तेज सुधार हो सकता है। वहां इस बात को लेकर बहस हो रही है कि इससे कितनी दिक्कत आ सकती है। भारत में भी दूसरी लहर उतार पर है और स्वास्थ्य हालात में सुधार के साथ हम यही सोच रहे हैं कि अर्थव्यवस्था वापस पटरी पर कैसे आएगी?
आर्थिक गतिविधियां शुरू होने पर थोड़ी मुद्रास्फीति हो सकती है। आधुनिक बाजार अर्थव्यवस्था में कोई केंद्रीय नियोजक नहीं होता। कोई भी सरकार अपनी क्षमता का इस्तेमाल कर कंपनियों को बंद कर सकती है। परंतु वह अर्थव्यवस्था की वापसी को नियंत्रित नहीं कर सकती है। प्रत्येक कंपनी और प्रत्येक व्यक्तिअपने आर्थिक निर्णय लेता है। मिसाल के तौर पर पूरी क्षमता से काम शुरू करना और श्रमिकों की आपूर्ति आदि। ये सभी निर्णय विकेंद्रीकृत तरीके से किए जाते हैं: हर आर्थिक एजेंट व्यक्तिगत स्तर पर सोचता और निर्णय लेता है, वह यह काम दूसरों के साथ तालमेल करके करता है। कॉफी शॉप उपभोक्ताओं की मांग को देखते हुए ही दोबारा खोलने का निर्णय लेती हैं। कोई सरकार लोगों को यह नहीं बताती कि उन्हें क्या करना है और कॉफी शॉप तथा कॉफी बीन उत्पादकों के बीच इसे लेकर कोई तालमेल नहीं होता। जब कॉफी की दुकानें खुलती हैं तो कॉफी बीन उत्पादक शायद तैयार न हों। ऐसे में कॉफी बीन की कीमत बढ़ेगी।
अर्थव्यवस्था को दोबारा खोलने के निर्णय मूल्य व्यवस्था के साथ तालमेल में होते हैं। कीमतों से संकेत निकलते हैं जो कंपनियों को निर्देशित करते हैं कि कैसे और कब पूरी क्षमता से उत्पादन करना है। उत्पादन कीमतों का बढऩा जरूरी होती है, कंपनियों को यह लगना चाहिए कि संभावित मुनाफा बेहतर है और उत्पादन में बदलाव की तयशुदा लागत भी उचित है। केवल तभी कंपनियां यह निर्णय लेती हैं कि दोबारा काम शुरू करना है। अस्थायी मुद्रास्फीति एक ऐसा तत्त्व है जिसके जरिये विकेंद्रीकृत बाजार अर्थव्यवस्था वापस पटरी पर आती है। ऐसी स्थिति किसी भी आधुनिक केंद्रीय बैंक के लिए समस्या नहीं होती है। सभी आधुनिक केंद्रीय बैंकों के मुद्रास्फीति संबंधी लक्ष्य होते हैं और इस बात की संभावना रहती है कि उन्हें अल्पकालिक रूप से मुद्रास्फीति का सामना करना होगा। उदाहरण के लिए भारतीय मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने सन 2020 की विचित्र मुद्रास्फीति का निराकरण करके सही किया। कुछ ही महीनों में अर्थव्यवस्था को दोबारा खोलने से जुड़ी यह दिक्कत समाप्त हो जाएगी। जहां तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था का सवाल है: यदि अत्यधिक विस्तारवादी राजकोषीय और मौद्रिक नीति होती है तो क्या मुद्रास्फीति में इजाफा होगा? यदि ऐसा होता है तो अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व शायद नीतिगत संचार में तब्दीली करे।
उभरते बाजारों को पूंजी प्रवाह को ‘पुश’ और ‘पुल’ कारक आकार देते हैं। पुश कारक हैं कम ब्याज दरें और विकसित बाजारों में कम जोखिम। ये कारक विकसित बाजारों के संस्थागत निवेशकों को प्रेरित करते हैं कि वे उभरते बाजारों में अधिक जोखिम पर उपलब्ध उच्च दरों का लाभ उठाएं। पुल कारक का संबंध उभरते बाजारों की अर्थव्यवस्था और उनकी राजनीति से है: यानी स्थायी वृद्धि की संभावना और अंतरराष्ट्रीय पोर्टफोलियो से कम सह संबंध।
भारत में कुछ लोगों के लिए दुनिया के साथ अंत:संबंध का आंतरिकीकरण नहीं हुआ है। जब विदेशी निवेशक भारत में बेहतर प्रदर्शन को पृरस्कृत करते हैं और नाकामी को दंडित करते हैं तो हम रणनीतिक स्वायत्तता की कमी और कमतर प्रदर्शन की आजादी न होने की शिकायत करते हैं। जब उपरोक्त कारक भारत में पूंजी भेजते हैं तो हम सराहना करते हैं वहीं जब दूसरे कारकों के कारण पूंजी देश से बाहर जाती है तब हम शिकायत करते हैं कि वैश्वीकरण बुरा है। जब विश्व अर्थव्यवस्था उछाल पर होती है तो हम निर्यात करना चाहते हैं लेकिन वैश्विक व्यापार में ठहराव होने पर हम निर्यात निर्भरता की शिकायत करते हैं। विश्व अर्थव्यवस्था के साथ एकीकृत होने से अंतर्संबंधों का एक नया ढांचा तैयार होता है। हमें इन अंतर्संबंधों को अपनाना होगा और अन्य परिपक्व बाजार अर्थव्यवस्थाओं के समान व्यवहार करना होगा। जब अमेरिकी फेडरल रिजर्व दरें बढ़ाता है तो उभरते बाजारों में पूंजी कम होती है। कई बार दिक्कतें भी होती हैं। सन 2013 में जब फेडरल रिजर्व बैंक अपने रुख में बदलाव का समुचित संचार नहीं कर सका था तो वैश्विक स्तर पर उथलपुथल उत्पन्न हुई थी। उस अवधि में भारतीय रिजर्व बैंक के पास मुद्रास्फीतिक लक्ष्य तक नहीं था और उसने रुपये लक्षित करने का निर्णय लिया।उसने अल्प दर को 400 आधार अंक बढ़ाया ताकि पूंजी प्रवाह को विदेशी निवेशकों के लिए अधिक आकर्षक बनाया जा सके। इसका अर्थव्यवस्था पर बुरा असर हुआ।
अभी विश्व अर्थव्यवस्था वापसी कर रही है और देश के निर्यात में तेजी है। परंतु विश्व अर्थव्यवस्था में कुछ ऐसा घट रहा है जिस पर ध्यान देना आवश्यक है। हमें पांच सवालों पर ध्यान देना होगा। सन 2021 तक अमेरिका में मुद्रास्फीति की स्थिति कैसी होगी? क्या अमेरिकी फेड मुद्रास्फीति के उभार से चिंतित होगा? क्या वह अपनी संचार नीति का सफल प्रबंधन कर सकेगा खासकर जब बदलाव करना जरूरी हो? जब विकसित बाजारों के मुद्रास्फीति और ब्याज दर बदलते हैं तो यह भारत में परिसंपत्ति कीमतों और पूंजी प्रवाह को कैसे प्रभावित करेगा? आखिर में यह कि इन घटनाओं के बीच आरबीआई मुद्रास्फीति को लक्षित करने पर कैसे ध्यान केंद्रित करेगा?
(लेखक स्वतंत्र आर्थिक विश्लेषक हैं)
