भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (सीसीआई) ने निजी इक्विटी निवेशकों के शेयरधारक एवं निवेश समझौतों के अध्ययन की मंशा जताई है ताकि नियंत्रण को बेहतर तरीके से अंजाम देने के बारे में बाजार की वास्तविकताएं समझी जा सकें। इस मंशा ने निजी इक्विटी उद्योग में ऐसा डर पैदा कर दिया है कि निजी निवेश समझौतों में बारीक वाणिज्यिक भेदों को समझने में राज्य कुछ अधिक ही संलिप्त हो रहा है।
लेकिन ये आशंकाएं सही नहीं हैं। सच यह है कि ऐसी आशंका ही बाजार व्यवस्था के अनभिज्ञ नियमन की वजह होती है। न केवल सीसीआई बल्कि हरेक नियामक को अपने नियमन वाले क्षेत्र से संबंधित वाणिज्यिक समझौतों के अध्ययन पर ऊर्जा लगानी चाहिए। इन समझौतों में दर्ज विवरणों के बारे में समझ न होने से कई तरह की नीतिगत भूलें होती हैं और बेढंगे प्रवर्तन होते हैं।
सीसीआई किसी क्षेत्र का नियामक नहीं है और न ही उसके पास लाइसेंस देने की शक्ति है। हालांकि लाइसेंस देने की शक्तियां रखने वाले क्षेत्रीय नियामकों में भी अपने बाजारों में वाणिज्यिक करारों से अवगत होने की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है। जब वे वाणिज्यिक करारों का हिस्सा बनते हैं तो उनमें करारों में शामिल किए जाने वाले बिंदुओं को लेकर ब्योरा देने की प्रवृत्ति देखी जाती है। जरूरत बाजार की हकीकत समझने की है जो महज करार में बस लिपिबद्ध होकर ही रह जाती हैं। इसे दर्जनों शेयर खरीद समझौतों एवं व्यवस्था इंतजामों को समझकर ही किया जा सकता है। किसी क्षेत्र में अंजाम दिए जाने वाले विलय एवं अधिग्रहण प्रस्ताव, इससे जुड़े जोखिम और इन जोखिमों से निपटने के लिए संबंधित पक्षों द्वारा अंजाम दी जाने वाली गतिविधियों के बारे में समझ पैदा करनी जरूरी है।
भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) एक शेयर दलाल एवं उसके ग्राहक के बीच होने वाले करार में शामिल होने वाले बिंदुओं पर नजर रखता है। या फिर एक म्युचुअल फंड संचालित करने वाली ट्रस्टी कंपनी एवं परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी के बीच होने वाले करार में कौन-सी चीजें शामिल होनी चाहिए? हालांकि विलय एवं अधिग्रहण प्रस्तावों से जुड़े लेनदेन में होने वाले तमाम तरह के करारों को पढऩे में संलिप्त न होने तक सेबी अपने नीतिगत परिप्रेक्ष्य एवं उसके प्रवर्तन में असंबद्ध बना रहेगा। यही बात स्टॉक एक्सचेंजों के मामले में भी लागू होती है।
स्टॉक एक्सचेंजों की भी तरफ से सूचीबद्ध कंपनियों से जिस तरह की जानकारियां मांगी जाती हैं, उन्हें देखकर यही लगता है कि नियमन व्यवस्था का नाता विलय एवं अधिग्रहण से संबंधित परंपरागत करारों में शामिल बिंदुओं से इतर हैं। हाल ही में एक अंडरटेकिंग के तौर पर अपना समूचा कारोबार बेच देने वाली एक सूचीबद्ध कंपनी से स्टॉक एक्सचेंज ने यह सवाल पूछा कि उसके बिक्री करार में परंपरागत प्रावधानों की मौजूदगी को क्या सामान्य माना जाएगा? कारोबारी कंपनी के लिए प्रतिनिधित्व एवं वारंटी के प्रावधान से लेकर अघोषित जोखिम एवं नुकसान को लेकर दिए गए मुआवजे तक पर सवाल पूछने से यह जाहिर है कि नियामकीय व्यवस्था विलय एवं अधिग्रहण लेनदेन में परंपरागत वाणिज्यिक प्रावधानों को लेकर अनभिज्ञ है।
इससे भी खराब बात यह है कि नियामक ने क्षतिपूर्ति राशि को सीमित करने वाले प्रावधान की संकल्पना इस क्षतिपूर्ति व्यवस्था के तहत किए जाने वाले भुगतान से जुड़ी भावी देनदारी को पूरा करने के लिए फंड अलग रखने की जरूरत के तौर पर की थी। स्टॉक एक्सचेंज के इस तर्क के ही अनुरूप सेबी ने कंपनी का पक्ष सुने बगैर एक ‘औचक’ आदेश पारित कर दिया और बिक्री में आई गिरावट की समान राशि जब्त करने को कहा। इस आदेश को प्रतिभूति अपील अधिकरण ने खारिज कर दिया लेकिन विलय एवं अधिग्रहण से संबंधित परंपरागत एवं सार्वभौम सिद्धांतों की समझ न होने से विलय एवं अधिग्रहण से जुड़े पक्षों में एक तरह का डर फैल गया।
अब सीसीआई शेयरधारक समझौतों की समझ को लेकर उत्सुक है। यह एक अहम बिंदु है जिसे इस लिहाज से समझने की जरूरत है कि बाजार का एक खिलाड़ी दूसरे पर किस तरह से असर डाल सकता है? ‘असर’ का स्वरूप एवं ‘नियंत्रण’ से इसका विभेद और दोनों के निहितार्थ प्रतिस्पद्र्धा कानून के अहम पहलू हैं। ऐसी समझ के बगैर ‘नियंत्रणकारी असर’ और ‘असरकारी नियंत्रण’ जैसी वैधानिक रूप से अपरिभाषित अवधारणाएं ईजाद की जा रही हैं और यह अर्थव्यवस्था के लिए सिर्फ नुकसानदायक ही हो सकता है। ये संकल्पनाएं प्रतिभूति नियमन, प्रतिस्पद्र्धा कानून, कंपनी कानून और दिवालिया कानून के लिए बेहद अहम हैं।
एक कंपनी के प्रशासन से जुड़े सकारात्मक अधिकारों का ही मामला लें। ये अधिकार परंपरागत तौर पर अल्पांश शेयरधारकों को दिए गए हैं जिसका मकसद ताकतवर बहुसंख्यकवाद के असर में लिए जाने वाले फैसलों से संरक्षण देने पर सहमति बनाना है। हालांकि नियामकीय अधिकारियों की धारणा इन प्रावधानों के बारे में अलहदा हो सकती है। कुछ लोग कहेंगे कि वे ‘नियंत्रण’ को तरजीह देते हैं तो कुछ ‘असर’ पर जोर देंगे और कुछ अधिकारी ‘नियंत्रणकारी असर’ जैसी नई संकल्पना के भी हिमायती नजर आ सकते हैं।
अगर नियामकों की बाजार वास्तविकता, सार्वभौम समझौतों, वैश्विक बाजार के तौर-तरीकों एवं उनके निहितार्थों के बारे में बेहतर समझ होती तो बाजार को एक बेहतर वृद्धि से फायदा होगा। लिहाजा पारिस्थितिकी के बारे में अधिक जानकारी की एक सरकारी एजेंसी का चाहत को लेकर डर होना अनुचित है। नियामकीय एजेंसियों के कदम बाजार की वास्तविकताओं के अनुरूप नहीं होने से पहली नजर में जानकारी-आधारित निर्णयों का क्षरण होता है। इसका स्वाभाविक तौर पर न्याय-क्षेत्र के विकास पर अधिप्लावन प्रभाव पड़ता है और एक बड़े फलक पर बाजार एवं कानून के बीच एक असंबद्धता की स्थिति पैदा होती है। इस खतरे के बारे में हर किसी को सजग रहने की जरूरत है।
(लेखक अधिवक्ता एवं स्वतंत्र परामर्शदाता हैं)
