आखिरकार ‘अनाथ’ नैनो को गुजरात का आसरा मिल ही गया। अब जाकर मुल्क के लाखों भावी कार मालिकों की जान में जान आई है।
टाटा को जिस तरीके से नैनो की सख्त मुखालफत करने वाली बंगाल की एक जिद्दी नेता से दो-दो हाथ करने पड़े, उसे देखकर अपनी कार का सपना देखने वाले लोगों की तो सांस ही अटक गई थी। लेकिन जब से ‘जनता की कार’ को मुल्क के सबसे कड़े और कथित रूप से सबसे कार्यकुशल मुख्यमंत्री का सहारा मिला है, लोगों के सपने फिर से उड़ान भरने लगे हैं।
राष्ट्रीय सम्मान को हमेशा से ही ऑटोमोबाइल सेक्टर से बड़े करीब से जोड़ा जाता रहा है। इसीलिए तो टाटा के इस रतन के साथ इतनी उम्मीद और इज्जत जुड़ी हुई है। यह भी बिल्कुल सच है कि इससे इतने सारे लोगों के जुड़े होने की असल वजह, इसकी कीमत ही है। इसकी एक लाख रुपये या 2500 डॉलर की शुरुआती कीमत ही इसे असल तरीके से ‘जनता की कार’ के तमगे से नवाजती है।
इस मुल्क में अपनी कार का सपना देखने वाले लाखों लोगों के लिए ‘जनता की कार’ का इतिहास जानना काफी मजेदार बात होगी। दरअसल, ‘नैनो’ इकलौती ऐसी कार नहीं है, जिसे यह तमगा मिला है। पहले भी कई कारों को आम आदमी की कार के वादे के साथ लाया गया, लेकिन वे इस मामले में कामयाब नहीं हो सकीं।
उनमें से कई तो सस्ती कार के वादे साथ शुरू हुईं, लेकिन बनने के बाद उनकी कीमत इतनी ज्यादा थी कि कोई उन्हें खरीद ही नहीं पाया। और कुछ चुपचाप गुमनामी के अंधेरे में खो गईं। समय और लागत के बढ़ते रहने के साथ-साथ ‘जनता’ या ‘आम आदमी’ की परिभाषा भी जबरदस्त तरीके से बदलती रही।
भले ही कंपनियों के सामने दशकों से ‘जनता की कार’ एक बड़े खतरे के रूप में रहीं हैं, लेकिन इसका ऑटोमोबाइल बाजार पर कोई बहुत बड़ा असर नहीं पड़ा है। आज बाजार में लग्जरी मॉडल्स, महंगी कारें और ठीक-ठाक कीमत वाली कई सारी कारें हैं, लेकिन अब भी ‘जनता की कार’ एक मिथक ही है। पर्यावरणविद तो इसके लिए भगवान का शुक्र ही अदा करेंगे। वैसे, उनकी बातों में भी दम है।
जरा सोचिए, क्या होगा अगर मुल्क की एक अरब की आबादी के हाथों में कार की चाभी आ जाएगी? खैर, वे नैनो के पूर्वजों की हालात को देखकर संतोष पा सकते हैं। वैसे, उसके पूर्वजों की लिस्ट अच्छी खासी है। शुरुआत करते हैं हेनरी फोर्ड के मॉडल टी से, जिसे लोग प्यार से टीन लिजी पुकारते थे। यह पहली कार थी, जो एसेंबली लाइन पर बनी थी।
पिछली सदी के शुरुआती 25 सालों में यह कार हजारों की तादाद में बिकी थी, लेकिन खरीदारों में इक्का-दुक्का ही उसे बनाने वाले वर्कर थे। हालांकि बाद के सालों में टीन लिजी को पीछे छोड़ कंपनी ने खूबसूरत, बेहतर और मजबूत मॉडलों की तरफ ध्यान देना शुरू कर दिया, ताकि वह अपने प्रतिद्वंद्वियों की कार का मुकाबला कर सके।
इसीलिए हमें दुनिया की पहली ‘जनता की कार’ लाने का तमगा नाजियों को देना चाहिए, जिनकी जर्मन फॉक्सवैगन ने इसे सपनों की दुनिया से निकालकर हकीकत की सड़क पर दौड़ा दिया। जब हिटलर यूरोप पर कब्जा करने की कोशिश में जुटा हुआ था, उसी वक्त उसने फैसला किया कि कम से कम हरेक जर्मन कामगार के पास एक कार तो होनी ही चाहिए।
जर्मन तानाशाह ने फौरन इस बारे में अपने सहयोगी और आस्ट्रिया के इंजीनियर फर्डिनैंड पोर्से को ‘जनता की कार’ बनाने का हुक्म दिया। हिटलर ने इस कार के लिए पोर्से को खास ताकीद भी दी थी कि इसका 26 एचपी का एयरकूल्ड इंजन पीछे की तरफ, आकार गोल और इसकी रफ्तार 100 किमी प्रतिघंटा होनी चाहिए।
तो ऐसे हकीकत बनी फॉक्सवैगन की सबसे मशहूर कार ‘बीटल’। इसकी कीमत रखी गई थी 990 मार्क। इसी वजह से तत्कालीन दुनिया की सबसे बड़ी कार फैक्टरी का भी जन्म हुआ, जहां साल भर में 15 लाख कारें बनाई जा सकती थीं। इस कार को बनाने में जितने पैसे लगे, उसका एक हिस्सा तो खुद वर्करों ने दिया था। उनसे हर हफ्ते कम से कम पांच मार्क देने के लिए कहा।
अगर उन्होंने कुल मिलाकर 750 मार्क दे दिए तो उन्हें एक ऑर्डर नंबर मिलेगा, जिससे वे उस कार के बनने के बाद उसे घर ले जा सकते हैं। लेकिन उनके एक भी ऑर्डर नंबर की कार नहीं बन पाई। नाजी हुकूमत पर अच्छी-खासी जानकारी रखने वाले विलियम शियअर का कहना है कि, ‘जर्मन मजदूरों से करोड़ों मार्क नाजियों ने लिए थे, लेकिन उसमें से एक भी पाई उन्होंने वापस नहीं की।
द्वितीय विश्वयुध्द की शुरुआत के वक्त तक तो फॉक्सवैगन फैक्टरी में उन चीजों का निर्माण होने लगा था, जिनकी सेना को ज्यादा जरूरत थी।’ मुद्दे की बात यहां यह है कि बीटल की कामयाबी के पीछे सबसे बड़ी वजह उसकी अमेरिका में सफलता थी। अमेरिका में उसने अपने स्टैंडर्ड वर्जन के मुकाबले कहीं ज्यादा खूबसूरत और बेहतर मॉडल भेजा था।
1950 के दशक तक यह अमेरिकी संस्कृति का प्रतिनिधि बन चुकी थी। 1960 के दशक के शुरुआती सालों में तो यह सबसे ज्यादा बिकने वाली कार भी बन गई थी। दुनिया के दूसरे हिस्सों में मौजूद फॉक्सवैगन की दूसरी फैक्टरियों ने बेहतर मॉडलों को बनाना जारी रखा, लेकिन अब वह जनता की कार नहीं रह गई थी।
‘जनता की कार’ अब कोई आम नहीं, बल्कि खास मुहावरा बन चुका है। यह सच्चे तौर पर समाजवाद को दिखलाता है। इसी वजह से सोवियत संघ ने भी अपने सुनहरे दिनों में अपनी ‘जनता की कार’ यानी ‘जोपोरोजेत्स’ बनाई थी। हालांकि, इस कार को ऐसे नामों से नवाजा गया, जिनका मैं यहां उल्लेख भी नहीं कर सकती। वैसे, इस कार को 1958 में बनाया गया था।
दुनिया की सबसे सस्ती और आम लोगों की एक मजबूत कार के तौर पर। इसे मजबूत इसलिए बनाया गया क्योंकि उस समय सड़कें काफी घटिया थीं और तब गाड़ियों की मरम्मत पर खर्च भी बहुत आता था। रूसी इसकी कीमत तय करने के फॉर्मूले को बनाने के बारे में बड़ी मजेदार कहानी सुनाते हैं।
कहते हैं, सोवियत सरकार ने फैसला यह किया था कि ‘जोपोरोजेत्स’ की कीमत, वोदका की एक हजार बोतलों की कीमत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। 1958 में जब यह कार आई थी, तब वोदका की एक बोतल की कीमत 1.8 रुबल थी, इसलिए कार के पहले मॉडल की कीमत भी 1800 रुबल रखी गई थी।
कुछ साल बाद जब वोदका की कीमत 2.2 रुबल प्रति बोतल हो गई तो कार की कीमत भी बढ़ाकर 2200 रुबल कर दी गई। नैनो की कीमत जाहिर तौर इतने बेवकूफाना तरीके से नहीं तय की गई है, लेकिन बढ़ती लागत को देखते हुए इसका लंबे वक्त तक ‘जनता की कार’ बने रहना काफी मुश्किल है। साथ ही, आम आदमी तक पहुंचने के लिए इसे जरूरत होगी अच्छी सड़कों की, जिसके लिए भारी-भरकम निवेश चाहिए। इसीलिए ‘जनता’, ‘आपकी कार’ तो आपसे अब भी कोसों दूर है।