प्रकृति को जब भी गुस्सा आता है, हर तरफ तबाही मचा जाती है। हर ओर बर्बादी का आलम होता है। हर तरफ से लोग मदद के लिए चीखते-चिल्लाते रहते हैं।
मदद के कुछ हाथ आगे भी बढ़ते हैं, लेकिन वक्त के साथ-साथ उस चीख-पुकार की गूंज भी धुंधली पड़ जाती है। किसी भी प्राकृतिक आपदा के बाद उसका सबसे ज्यादा असर पड़ता महिलाओं पर। विपत्तियों की सतायी हुई ऐसी ही महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होने में मदद कर रही हैं प्रेमा गोपालन और उनकी संस्था स्वयं शिक्षण प्रयोग।
नाम से तो यह संस्था शिक्षण से जुड़ी लगती है, लेकिन इसका दायरा काफी बड़ा है। प्रेमा गोपालन का कहना है कि, ‘हम लोगों की मदद वैसे स्वयंसहायता समूहों के जरिये करते हैं, जिसे महिलाएं चलाती हैं।
हमारे साथ इस वक्त पांच से छह हजार महिला स्वयं सहायता समूह जुड़ी हुई हैं। इन समूहों से कम से कम 50-60 हजार महिलाएं जुड़ी हुई हैं। हम इन्हीं स्वयंसहायता समूहों और पंचायतों के जरिये लोगों की मदद करते हैं।’
वैसे, इसकी शुरुआत हुई थी 1993 में। प्रेमा बताती हैं, ‘तब महाराष्ट्र के लाटूर में भूकंप आया था। हर तरफ तबाही का आलम था। लोगों के बीच सरकार को लेकर काफी गुस्सा था। इसलिए हमारे लिए वहां काम करना चुनौती से कम नहीं था।’
उन्होंने बताया कि, ‘आपको लगता होगा कि प्राकृतिक आपदा के बाद लोग टूट जाते हैं। यह बात एक हद सच भी है, लेकिन यह भी उतनी बड़ी हकीकत है कि इसके बाद उनमें जीवन को लेकर एक नया जोश आ जाता है।
वे अपने पैरों पर खड़े फिर से खड़े होने के लिए बेताब होते हैं। आपदा उन्हें और भी ज्यादा जीवट बना देती है। लाटूर में हमने महसूस किया कि वहां लोगों को मदद की जरूरत तो थी, लेकिन वे उसी पर आश्रित नहीं थे। कुछ ऐसा ही हमें भुज और सुनामी से तबाह तमिलनाडु में भी देखने को मिला।’
आज की तारीख में यह ऐसे सामाजिक कारोबारों को खड़ा करने में जुटी हुई हैं, जिसके तहत बड़ी-बड़ी कंपनियां, स्वयंसहायता समूहों के साथ साझेदारी करती हैं।
इसमें इस बात पर भी जोर दिया जाता है कि उन स्वयंसहायता समूहों के प्रबंधन की जिम्मेदारी उन ग्रामीण महिलाएं की ही हो, जिन्होंने प्राकृतिक आपदा के दंश को झेला हो।
प्रेमा बताती हैं कि, ‘ देखिए, जब आप महिलाओं का विकास करते हैं, उनके साथ पूरा का पूरा समुदाय भी आगे बढ़ता है। हमने ब्रिटिश पेट्रोलियम के साथ साझेदारी की है, जिसके तहत हम उनके नए स्टोव को अलग-अलग गांवों में बेच रहे हैं।
इसके लिए हमने एक डिस्ट्रीब्यूशन चेन बनाई है। अब तक करीब 50-60 हजार परिवार पुराने और धुंआ फैलाने वाले चूल्हों को छोड़ अब इस नए स्टोव को अपना लिया है। इसका नेटवर्क 820 गांवों में फैला हुआ है। हमने इसके लिए काम करने वाली महिलाओं को नाम दिया है ‘सखी’ का।’
उनकी कोशिशों की वजह से आज की तारीख में 1820 महिला कारोबार अपने पैरों पर खड़ी हैं और उनकी कुल आय 2.3 करोड़ रुपये है। उन्हें 2008 में नंद एंड जीत फाउंडेशन और यूएनडीपी की तरफ से सोशल एंटरप्रेन्योर ऑफ द इयर के लिए आखिरी तीन में शामिल किया गया था।
स्वयं शिक्षण संस्था ने तो अब ‘सखी रिटेल’ के नाम से एक कंपनी भी शुरू की है। प्रेमा बताती हैं, ‘हम तो बस ग्रामीण महिलाओं और बड़ी-बड़ी कंपनियों के बीच में संपर्क का काम करते हैं। अहम फैसले तो वे खुद लेती हैं।’
वैसे कंपनी ने अपने कुछ नियम भी रखे हैं। सौदा पक्का करने से पहले वह बड़ी-बड़ी कंपनियों के सामने यह शर्त रखती हैं कि वह डिस्ट्रीब्यूटर-डीलर के नेटवर्क को छोड़ सारे सौदे ‘सखी रिटेल’ के जरिये ही करे।
प्रेमा बताती हैं कि, ‘आप ही बताइए बिचौलियों के हटने से हर किसी को फायदा ही होता है।’ तो किन-किन दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है उनकी संस्था को?
इसके जवाब में उन्होंने बताया कि, ‘दिक्कतें तो हैं। हमारे पास कार्यशील पूंजी भी कम ही होगा। साथ ही, हम सरकार से भी किसी तरह की मदद नहीं लेते। इसलिए हमें उन कंपनियों से पैसे कर्ज लेने पड़ते हैं, जिनके साथ हम सौदा करते हैं।’
प्रेमा ने बताया कि, ‘हम पिछले 10 सालों से काम कर रहे हैं। हमारी वजह से आज कम से कम 60 हजार घरों की आय में 33 फीसदी का इजाफा हुआ है। माइक्रो-फाइनैंसिंग क्षेत्र में उतरने से 15 हजार घरों की कमाई और संपत्ति आज बढ़ी है।
आज इन लोगों की कुल जमा पूंजी 10 करोड़ रुपये हो चुकी है। साथ ही, हमारी संस्था से जुड़ी महिलाओं की जिंदगी भी काफी बदल चुकी है।
पिछले सात-आठ सालों में उनकी जमापूंजी सात-आठ करोड़ रुपये हो चुकी है। साथ ही, उनकी स्थिति में भी सुधार हुआ है। उनकी वजह अब उनके समुदायों को कन्याओं को बोझ नहीं, भगवान की नेमत माना जाता है।’
तो अब आगे क्या? इस बारे में उनका कहना है, ‘फिलहाल तो हम अपनी संस्था से जुड़ी महिला स्वयंसहायता समूहों की तादाद को 12 हजार तक ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही, अपना दायरा भी मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों तक बढ़ाना चाहते हैं।’