मौजूदा वर्ष में सरकारी बैंकों का निजीकरण होने की संभावना नहीं है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद को दिए लिखित उत्तर में कहा है कि कैबिनेट ने इस विषय में कोई निर्णय नहीं लिया है। सीतारमण ने इस वर्ष के बजट में घोषणा की थी कि सरकार दो सरकारी बैंकों का निजीकरण करेगी। चूंकि सरकार बुधवार को समाप्त हुए शीतकालीन सत्र में जरूरी विधेयक नहीं ला सकी इसलिए चालू वित्त वर्ष के समाप्त होने के पहले इस प्रक्रिया के पूरा होने की संभावना बहुत कम है। सरकारी बैंकों का निजीकरण करने के लिए बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अर्जन एवं अंतरण) अधिनियम, 1970 एवं 1980 तथा बैंकिंग नियमन अधिनियम में संशोधन करना होगा। हालांकि सदन में सरकार का संख्या बल मजबूत है और ऐसे में संशोधनों को पारित करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। परंतु सरकारी बैंकों के निजीकरण से जुड़े कई अन्य मसलों को हल करने की आवश्यकता है।
हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर सरकार बजट में घोषणा करने के बावजूद प्रक्रिया में देरी क्यों कर रही है। जिन दो सरकारी बैंकों का निजीकरण किया जाना है उनके नाम भी सार्वजनिक नहीं किए गए हैं। यदि सरकार को अगले वित्त वर्ष में निजीकरण करना है तो उसे जल्द से जल्द प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। ब्योरों की बात करें तो कहा जा रहा है कि सरकार निजीकृत बैंक में 26 फीसदी हिस्सेदारी रखेगी। इन मसलों से सावधानीपूर्वक निपटना होगा। यदि सरकार ज्यादा हिस्सेदारी अपने पास रखती है तो संभावित बोलीकर्ता पीछे हट सकते हैं क्योंकि प्रबंधन में हस्तक्षेप की गुंजाइश बनी रहेगी। इसका अर्थ यह भी होगा कि सरकार नियुक्तियों पर असर डाल सकेगी जिससे निजीकरण का उद्देेश्य ही पूरा नहीं होगा।
बीते वर्षों में सरकारी बैंकों की खराब हालत की एक वजह यह भी रही है कि सरकारी क्षेत्र की बाधाओं के चलते ये बैंक काबिल लोगों को विशिष्ट पदों पर नियुक्त नहीं कर सके। चूंकि बैंकों में अंशधारिता को लेकर नियामकीय बाधाएं भी हैं इसलिए सरकार को एक निश्चित समय में अपनी हिस्सेदारी कम करने का खाका पेश करना चाहिए। ऐसा करने से संभावित निवेशकों के समक्ष हालात स्पष्ट होंगे। सरकार को इन बैंकों के मौजूदा कर्मचारियों की चिंताओं को भी दूर करना होगा। बैंक कर्मचारियों के संगठन निजीकरण का विरोध कर रहे हैं। इस मसले को हल करने में समय लग सकता है। जो कर्मचारी नई व्यवस्था में काम नहीं करना चाहते हैं, सरकार को उन्हें निर्गम का मार्ग मुहैया कराना चाहिए।
सरकारी बैंकों के निजीकरण का इरादा जताने और इस संबंध में घोषणा करने के लिए सरकार की सराहना की जानी चाहिए। सरकारी बैंक सार्वजनिक वित्त पर बोझ बने हुए हैं और सरकार इन बैंकों में नकदी डालने के लिए लगातार उधारी लेती रही है। निजीकरण होने के बाद ये बैंक बाजार से पूंजी जुटा सकेंगे। उस स्थिति में उनका प्रबंधन भी बिना दबाव के निर्णय लेने की स्थिति में होगा। सरकारी क्षेत्र के बैंकर इस तथ्य से भी परेशान हैं कि उनके कारोबारी निर्णयों पर जांच एजेंसियां सवाल उठा सकती हैं। व्यापक स्तर पर देखें तो निर्णय लेने की अनिच्छा अर्थव्यवस्था में ऋण के प्रवाह को प्रभावित करती है। ऐसे में सरकार के पास बैंकों का निजीकरण करने की ठोस वजह है। इसके पहले सरकार को अंशधारिता और मानव संसाधन से जुड़े कुछ मसलों को जरूर हल करना होगा। साफ कहा जाए तो सरकार के लिए बैंकों का निजीकरण करना आसान नहीं होगा। परंतु इसे टालने से भी कुछ बेहतर नहीं होने वाला। यह बात भी ध्यान रखनी होगी कि आधे अधूरे मन से किए जाने वाले प्रयास भी संभावित लाभ को सीमित करेंगे।
