रुपये में आ रही लगातार गिरावट के कारण केंद्र सरकार को काफी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष की शुरुआत से अब तक यह अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 10 फीसदी से अधिक गिरावट दर्ज कर चुका है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस आर्थिक बहस में एक निराधार सुझाव दे दिया कि नकद मुद्रा पर भगवान गणेश और देवी लक्ष्मी की तस्वीर अंकित की जाए ताकि देश की आर्थिक स्थिति बेहतर की जा सके।
यह दिक्कतदेह बात है और इसे अत्यंत संकीर्ण राजनीतिक लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए कहा गया। भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य है, न कि कोई हिंदू राज्य। यह बात इसलिए भी चिंतित करने वाली है कि राजनीतिक बहस एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गई है जहां हर बात को धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा है। इस फिसलन भरी राह से बचा जाना चाहिए। राजनीतिक दलों से आमतौर पर यह अपेक्षा रहती है कि आर्थिक प्रबंधन पर उनकी बहस अधिक जानकारीपूर्ण हो। मुद्रा बदलने या उस पर छपी तस्वीर बदलने से इसमें मदद नहीं मिलेगी।
आमतौर पर मुद्रा को लेकर होने वाली राजनीतिक बहस, अमेरिकी डॉलर के बरअक्स उसके असमायोजित मूल्य तक सीमित रहती हैं जबकि इससे भी बचने की आवश्यकता है। समायोजन के बगैर मुद्रा की मजबूती को सीधे अर्थव्यवस्था से जोड़ने के कारण ही रुपये की मजबूती को लेकर एक व्यवस्थागत पूर्वग्रह उत्पन्न हो गया है। सभी राजनीतिक दलों ने संसद में अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार यही रवैया अपनाया है।
ऐसी तमाम वजह हैं जिनके चलते रुपया अक्सर दबाव में रहा है और इन वजहों में से ज्यादातर भारत के नियंत्रण में नहीं हैं। यह जानना और मानना जरूरी है कि भारत अपनी जरूरत के कच्चे तेल में से ज्यादातर आयात करता है। इसकी ऊंची कीमतें बाह्य खाते की स्थिति को प्रभावित करती हैं। चूंकि तेल कीमतें ऊंची हैं और उनके निकट भविष्य में भी ऊंचा बने रहने की आशंका है, इसलिए भारत का चालू खाते का घाटा भी ऊंचा बना रहेगा। इससे रुपये पर जाहिर तौर पर दबाव पड़ेगा।
तेल और व्यापारिक कारकों से इतर अन्य मसले भी हैं जो इस समय मुद्रा की गति को प्रभावित कर रहे हैं। अमेरिकी डॉलर मजबूत हो रहा है, इसका परिणाम अधिकांश मुद्राओं में गिरावट के रूप में सामने आया है। इनमें यूरो, येन और पाउंड जैसी मुद्राएं भी शामिल हैं। सच तो यह है कि रुपया कई अन्य मुद्राओं की तुलना में कम गिरा है क्योंकि भारतीय रिजर्व बैंक ने जरूरी हस्तक्षेप किए हैं। चूंकि अमेरिकी केंद्रीय बैंक मौद्रिक स्थितियों को अन्य केंद्रीय बैंकों की तुलना में तेज गति से सख्त बना रहा है, इसलिए पूंजी अमेरिका की ओर जा रही है।
भारतीय बाजारों से भी इस वर्ष 24 अरब डॉलर की पूंजी बाहर गई है। ऐसे में चूंकि आयातक और विदेशी निवेशक दोनों और अधिक डॉलर की मांग कर रहे हैं इसलिए घरेलू मुद्रा की तुलना में इसका मूल्य बढ़ रहा है। चूंकि अमेरिकी फेडरल रिजर्व के दरों में इजाफा जारी रखने की संभावना है, इसलिए रुपये पर दबाव भी बरकरार रहेगा।
यह बात भी माननी होगी कि मुद्रा का अवमूल्यन भी आवश्यक है। अन्य मुद्राओं में गिरावट के बीच रुपये की कीमत को न गिरने देना देश की बाह्य प्रतिस्पर्धा को प्रभावित करेगा। मजबूत मुद्रा से उपभोक्ताओं को लाभ होगा और उत्पादकों को नुकसान। इतना ही नहीं ऐसे माहौल में ऐसे देश को कठिनाई होगी जो अपनी मुद्रा के बचाव के लिए पूंजी की आवक पर निर्भर है। इससे ज्यादा बड़ा असंतुलन तथा वित्तीय स्थिरता को अधिक जोखिम उत्पन्न हो सकता है। केंद्रीय बैंक के विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल करते हुए अतिरिक्त अस्थिरता को थामा जाना चाहिए।
आरबीआई द्वारा घोषित तरीका भी यही है। कुल मिलाकर यह अहम है कि अर्थव्यवस्था को लेकर राजनीतिक बहस अधिक जानकारीपूर्ण हो और संस्थानों पर अनावश्यक दबाव न डाले। बहस इस बात पर केंद्रित होनी चाहिए कि एक संतुलित बजट से कम मुद्रास्फीति के साथ उच्च वृद्धि कैसे हासिल की जाए। इससे दीर्घावधि में स्थिरता और समृद्धि सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।
