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  लेख  गरीबों और गरीबी के दो जुदा-जुदा चेहरे
लेख

गरीबों और गरीबी के दो जुदा-जुदा चेहरे

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —September 1, 2008 1:08 AM IST0
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कांग्रेस पार्टी को छोड़कर दूसरी पार्टियों के जो लोग यह मानते थे कि भारत की 77 फीसदी आबादी 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा करती है, उनका ध्यान भी अब विश्व बैंक की ताजा वैश्विक गरीबी रिपोर्ट पर गया है।


इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की 42 फीसदी जनता गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रही है। अगर अब लोगों को इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता पर शक हो रहा है तो इसकी वजह भी स्वाभाविक है। देश में रह रहे लोगों ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान यह देखा कि है कि कैसे उपभोग में खासी बढ़ोतरी हुई है।

ऐसा नहीं है कि केवल अमीरों के कारण देश में खपत बढ़ी है, दरअसल सभी लोगों का इसमें योगदान है। हालांकि, सुरजीत भल्ला कई सालों से यह कहते आए हैं कि गरीबी को लेकर आंकड़े बढ़ा चढ़ाकर पेश किये जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ये आंकड़े नैशनल सैम्पल सर्वे पर आधारित होते हैं जिसमें देश की वास्तविक आय का पता लगाने के लिए पूरी जनसंख्या शामिल नहीं हो पाती।

हर गुजरते साल के साथ इसमें कम से कम आबादी को ही शामिल किया जाता है। अगर 1993-94 के जीडीपी के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि इन दोनों में कितना अंतर है। एनएसएस इस दौरान 38 फीसदी उपभोग का पता लगाने से चूक गया था और 2004-05 में तो उपभोग के जो आंकड़े एनएसएस ने पेश किए थे, उनसे वास्तविक आंकड़े 52 फीसदी अधिक थे।

तो अगर यह कहें कि एनएसएस के आंकड़ों पर आधारित गरीबी का जो अनुमान पेश किया जाता है, हकीकत उससे आधी से भी कम हो सकती है तो शायद यह गलत नहीं होगा। अब जरा इस आंकड़े पर नजर डालें- एनसीएईआर के घरों में किए गए हाल के सर्वे से पता चला है कि 2005 में निचले तबके के 40 फीसदी घरों में से 33 फीसदी घरों में टेलीविजन था और 12 फीसदी घरों में दो पहिया वाहन भी था तो आखिर कोई कैसे कह सकता है कि ये गरीबी रेखा के नीचे जिंदगी जी रहे हैं।

पर मेरे इस लेख का मकसद यह बताना नहीं है कि विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट में कोई सच्चाई नहीं है और भल्ला के तर्क और दूसरे आंकड़ों के आधार पर इसे एक सिरे से नकार दिया जाना चाहिए। मैं तो केवल इतना बताना चाहता हूं कि एनएसएस के आंकड़े में कोई निरंतरता नहीं है और भारत सरकार को इस बारे में सोचना चाहिए कि दोनों ही (विश्व बैंक और भारत सरकार) इसी को आधार मानते हुए गरीबी का आकलन करते हैं फिर भी जो परिणाम निकलता है वह एक दूसरे से बिल्कुल जुदा होता है।

जहां भारत सरकार के अनुसार देश में गरीबी की दर 27.5 फीसदी है वहीं विश्व बैंक ने इससे कहीं अधिक 42 फीसदी का आकलन किया है। वर्ष 1993-94 में विश्व बैंक गरीबी रेखा का पता लगाने के लिए जिस फार्मूले का इस्तेमाल करता था, वह यह था कि अगर किसी व्यक्ति की क्रय शक्ति समतुल्यता यानी पर्चेजिंग पावर पैरिटी (पीपीपी) 1.08 डॉलर से कम है तो वह गरीबी रेखा के नीचे आता था। पर उस दौरान भारत भी गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए फार्मूले का इस्तेमाल करता था वह भी इससे कुछ खास अलग नहीं था।

पर वर्ष 2005 में विश्व बैंक ने इस फार्मूले में कुछ बदलाव करते हुए यह तय किया है कि गरीबी रेखा से बाहर होने के लिए एक व्यक्ति की क्रय शक्ति समतुल्यता (पीपीपी) कम से कम 1.25 डॉलर होनी चाहिए। तो क्या यह समझा जाए कि दोनों (विश्व बैंक और भारत सरकार) के आकलन में जो बड़ा अंतर है वह इसी वजह से है? पर अफसोस इस बात का है कि यह इतना आसान नहीं है।

हर देश की आय का आंकड़ा प्राप्त करने के बाद उसे बाजार विनिमय दर के हिसाब से अमेरिकी डॉलर में बदला जाता है और उसके बाद पीपीपी बेस का निर्धारण किया जाता है, जिसके हिसाब से देशों में क्रय क्षमता का निर्धारण किया जाता है। अब क्योंकि यह अमेरिकी डॉलर को ध्यान में रखकर किया जाता है इस वजह से पीपीपी विनिमय दर में हुए बदलावों का पता लगाने के लिए अमेरिका में कीमतों को देखना जरूरी है।

ऐसा करने पर आपको पता चलेगा कि 1993 में 1.08 पीपीपी डॉलर का मूल्य 2005 की कीमतों के अनुसार बदलकर 1.38 डॉलर हो गया है। ऐसे में अगर विश्व बैंक ने 1993 की 1.08 डॉलर की क्रय क्षमता को बदलकर 2005 में 1.25 डॉलर कर दिया है तो वास्तव में यह कम ही है। असल आधार तो इससे भी अधिक होना चाहिए। तो फिर आखिर गरीबी के आंकड़े इतने अधिक क्यों निकलकर सामने आए हैं।

जब गरीबी रेखा के निर्धारण का आधार भी कम है तो विश्व बैंक को गरीबी के इतने बढ़े हुए आंकड़े कैसे मिले? साफ है कि यह इस वजह से हुआ है क्योंकि भारत के आय का स्तर 36 फीसदी तक कम आंका गया है। विश्व बैंक की वेबसाइट से पता चलता है कि 2005 में भारत का जीडीपी 2,414 अरब पीपीपी डॉलर था। अगर विश्व बैंक के विश्व विकास सूचकांक पर नजर डालें तो यही आंकड़ा 3,780 पीपीपी डॉलर है।

तो अब अचानक से यह आंकड़ा इतना गिर कैसे गया? पीपीपी दरअसल अमेरिका और भारत में कीमतों में जो अंतर है उसे दिखाता है। ऐसे में अगर आपको अमेरिका में बाल कटवाने पर 1 डॉलर खर्च करना पड़ता है तो भारत में इसके लिए केवल 22 रुपये चुकाने पड़ते हैं तो बाल कटवाने के लिए पीपी विनिमय दर 22 होगी जबकि बाजार विनिमय दर 44 होगी।

और अगर आपको लगता है कि अमेरिका में बाल कटवाना भारत में बाल कटवाने से दोगुना बेहतर है तो ऐसे में पीपीपी विनिमय दर भी 44 हो जाएगी। यही वजह है कि पीपीपी के लिए रिलेटिव एक्सचेंज का निर्धारण करते वक्त विश्व बैंक ने यह माना कि भारत में मिलने वाली सेवाओं की गुणवत्ता अमेरिका की तुलना में काफी कम है।

two different faces of poverty and poor
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