जब चीजें उस हद तक पहुंच जाएं कि तीनों सेनाध्यक्षों ने मिलकर छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू न करने का फैसला कर लिया, तो उस हालत को काफी गंभीर ही कहेंगे। शुक्र है, चीजें रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी के हस्तक्षेप के बाद ठीक हो गईं। एंटनी ने सेनाध्यक्षों से साफ-साफ कह दिया कि वे इन सिफारिशों को लागू करने के मुद्दे पर एकतरफा फैसला नहीं कर सकते। यह हक केवल रक्षा मंत्रालय के पास है। इस तरह का काम करके सेनाध्यक्षों ने कोई अच्छी मिसाल पेश नहीं की है। लेकिन यहां यह भी पूछना जरूरी है कि क्या सरकार ने उन्हें ऐसा कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया। उससे भी जरूरी सवाल यह है कि क्या उनका यह फैसला उनके अफसरों के बीच इस मुद्दे पर फैले रोष को दिखलाता है। किसी भी सरकार को केवल इसलिए सैनिकों की जायज मांगों को नजरअंदाज नहीं कर देना चाहिए क्योंकि उनके बारे में आखिरी फैसला कोई नागरिक सरकार ही कर सकती है।
तीनों सेनाध्यक्षों ने छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के बारे में अपने विचारों की जानकारी महीनों पहले ही दे दी थी। इस बाबत थोड़े-बहुत फेरबदल तो किए भी गए, लेकिन विरोध के प्रमुख बिंदुओं को या तो नजरअंदाज कर दिया गया या फिर उन्हें सिरे से खारिज कर दिया गया। जैसा सेना प्रमुख पहले ही कह चुके हैं कि आज की तारीख में सेना, बतौर कैरियर अब लोगों के लिए एक जबरदस्त विकल्प नहीं रह गया है। इस वजह से लोगों को चुनना काफी मुश्किल होता जा रहा है। इस बात का सबूत है, चुने गए अफसरों की तादाद और अफसरों की अनुमानित संख्या के बीच एक बड़ा अंतर। इस बात में शायद ही कोई संदेह है कि अपनी रक्षा क्षमता को मजबूत बनाए रखने के लिए सुरक्षाबलों को एक बेहतरीन कैरियर विकल्प बनाना होगा। इसके लिए जरूरत होगी, मोटे वेतन और भत्तों की। इस समस्या से जूझने के लिए कोई न कोई रास्ता निकालना ही होगा। इस बारे में कोई जवाब नहीं मिला है कि कैसे इतने साफ संकेतों के बावजूद भी सरकार ने सुरक्षाबलों की जायज मांगों को अनसुना करते हुए छठे वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया। शायद, ताकतवर नौकरशाहों को यह लगा कि सैनिक चुपचाप यह आदेश मान लेंगे।
सुरक्षाबलों की शिकायतों की जड़ में है, वह तरीका जिससे उन्हें प्रशासनिक सेवाओं से कमतर आंका गया। एक लेफ्टिनेंट कर्नल पहले अपने प्रशासनिक समकक्ष से 800 रुपये ज्यादा कमाता था, लेकिन नई सिफारिशें लागू होने के बाद उसे अपने समकक्ष से 11 हजार रुपये कम मिलेंगे। सुरक्षाबल की मांग रही है कि मेजर जनरल के रैंक तक एकीकृत वेतनमान हो। उनकी इस मांग को चौथे वेतन आयोग ने मान लिया था, लेकिन पांचवें वेतन आयोग ने इसे दरकिनार कर दिया था।
इस वेतन आयोग ने इसे फिर से लागू कर दिया, लेकिन ऐसे तरीके से लागू किया कि प्रशासनिक अधिकारियों को ज्यादा पैसे मिलेंगे। हैरत की बात यह है कि एकीकृत वेतनमान लागू करने के लिए सुरक्षा बलों ने जो आंकड़े सरकार को सौंपे हैं, उसके मुताबिक इस पर 250 करोड़ रुपये से भी कम खर्च आएगा। लेकिन अहम यह है कि यह पैसों की बात कतई नहीं है। यह कोशिश है, प्रशासनिक सेवाओं का अपना दबदबा साबित करने की। अब इस बारे में गठित मंत्रियों के समूह को पिछली सरकारों की गलतियों को सुधारना पड़ेगा।